पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३३१

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केली ६४५ कला । के लिये कर्णफूल आदि अभूपण वनाना), (१६) गधयुक्त पदार्थ जैसे गुलाब, केवडा, इत्र, फुनेल आदि बनाना, (२०) भूपणभोजन, (२१) इंद्रजाल, (१२) फौचुमारयोग (कुरूप को सुंदर करना या मुह में और शरीर में मलने यादि के लिये ऐसे उबटन यादि बनाना जिनसे कुरूप भी सुदर हो जाय), (२३) हस्तलाघव (हाथ की सफाई, फुर्ती या लाग), (२४) चित्रशाकापूपमक्ष्य-विकार-क्रिया (अनेक प्रकार की तरकारियों, पूप और खाने के पकवान बनाना, सूपकर्म), (२५) पानकरसरागास व भोजन (पीने के लिये अनेक प्रकार के शर्वत, अर्क और शराव आदि बनाना), (२६) सूचीकर्म (सोना, पिरोना), (२७) सूत्रकर्म (रफगूरी और कसीदा काढना तथा तागे से तरह तरह के बैल वूटे बनाना), (२८) प्रहेलिका (पहेली या बुझौवल कहना और बूझना), (२६) प्रति माला (अत्याक्षरी अर्थात् श्लोक का अतिम अक्षर लेकर उसी अक्षर से प्रारंभ होनेवाला दूसरा अलोक कहना, वैतवाजी), (३०) दुर्वाचकयोग (कठिन पदों या शब्दों का विर्य निकालना), (३१) पुस्तक वाचन(उपयुक्त रीति से पुस्तक पढ़ना), (३२) नाटिकाख्यायिकादर्शन (नाटक देखना या दिखलाना), (३३) काव्यसमस्यापूत, (३५) पट्टिका-वैत्र -वाण, विकल्प ,(नेवाड, वाध या बँत से चारपाई अदि बुनना), (३५) तर्ककर्म (दलाल करना या हेतुवाद), (३६) तक्षण (बढ़ई, सुगतराश अादि का काम करना), (३७) वास्तुविद्या (घर बनाना, इजीनियरी), (३८) रूप्यरत्नपरीक्षा (सोने, चांदी अादि धातु और रत्नो को परखना), (३६) घातुवाद (कच्ची घातुमो का साफ करना या मिली धातुओ को अलग अलग करना), (४०) माणिराग-ज्ञान (रत्नो के रगों को जानना), (४१) अाकरज्ञान (खानो की विद्या), (४) वृक्षायुर्वेदयोग (वृक्षो का ज्ञान, चिकित्सा और उन्हें देने आदि की विधि)' (३४) मेपकुक्कुट-लावक-युद्ध-विधि, (भेडे, मुर्गे, वटर, बुलबुल अादि को लड़ान की विधि), (४४) शुक-सारका-प्र नापन (तोता, मैना पढ़ाना), (४५) उत्सादन (उबटन लगाना और हाथ, पैर, सिर अादि दवाना), (४६) केश-माजन-कौल (बालो का मलना और तेल लगाना), (४७) अदरमुष्टिका कथन (करपलई), (४८) म्लेच्छितकला विकल्प (म्नच्छ या विदेशी भापा का जानना), (४९) देशभापाज्ञान (प्राकृतिक वोलियों को जानना), (५०) पुष्पशकटिका निमि ज्ञान (देवी लक्षण जैसे वादल की गरज, बिजली की चमक इत्यादि देखकरे अगाम घटना के लिये भविष्यद्वाणी करना), (५१) यत्र मातृका (यत्र निर्माण), (५२) धारण मातृका (स्मरणे बढ़ाना), (५३) सपाठ्य (दुसर को कुछ पढते हुए सुनकर उसे उसी प्रकार पुढ देना), (५४) मानसीकाव्य क्रिया (दुसरे का अभिप्राय समझकर उसके अनुसार तुरत कविता करना या मन में काव्य करके शीघ्र कहतें जाना), (५५) क्रियाविकल्प (क्रिया के प्रभाव को पटना), (५६) छलितुकयोग (छन या ऐयारी करना), (५७) अभिधानकोपधंदोवान, (५८), वस्त्रगोपना (वस्त्रो की रक्षा करना), (५६) चूत बिशेष (जुआ खेलना), (६०) अकर्षण क्रीडा (पासा अादि फेंकना), (६१) बालक्रीडाकर्म (लहका खेलाना, (६२) वैनायिक विद्या-ज्ञान (विनय और शिष्टाचार, इल्मे इतलाक वो अदाव), (६३) वैजयिकी विद्याज्ञान, (६४) | वैतालिको विद्याज्ञान । यौ०---कलाकुशल । कलाकौशले । कलावत । १३. मनुष्य के शरीर के अध्यात्मिक विभाग । उ०—सजम साधि कला वसे कोन्ही मन पवन घर अायो।-चरण०' बानी, पृ० १६७ ।। विशेष—ये सद्या में १६ हैं। पाँच ज्ञानेंद्रिया, पांच कर्मेंद्रियाँ, पाँच प्राण और मन या बुद्धि । १४, वृद्धि । सूद । १५. नृत्य का एक भेद ।१६. नौका । १७. जिह्वा । १८ शिव । १६ लेश । लगाव । २० वर्ण । अक्षर । (तत्र) । (२१) मात्रा (छद)। (२२) स्त्री का रज । (२३) पाशुपत दर्शन के अनुसार शरीर के अंग या अवयव ।' विशेप-इनमें कला दो प्रकार की मानी गई हैं।-एक कार्याच्या, दूसरी कारणापा । कायना कलाएँ दस हैं, पृथिव्यादि पौव तत्व, और गवादि उनके पाँच गुण । कारणाख्या १३ हैं--पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रिय तथा अध्यवसाय, अभिमान और सकल्प। २४. विभूति । तेज । जैसे, ईश्वर की अद्भुत कला है । उ०-(क) कासिहु से कल जाती, मथुरा मसीद होती, सिवाजी न होते तो सुनति होति सवको ।--मूपण (शब्द०) । (ख) रामजानकी लपन में ज्यो ज्यो करिहो भाव । त्यो त्यो दरस है कला,दिने दिन दून दुराव -रघुराज (शब्द॰) । २५ शो मा 1 छटा हि प्रमा। उ०—लखन बतौसी कुल निरमला। बरनि न जाये रूप की कला ---जायसी (शब्द॰) । २६ ज्योति । तेज । उ०-अव दस मास पूरि भई घरी। पद्मावति कन्या अवती। जानो सुरुज किरिन हुन गढ़ी । सूरज कला घाट, वह वढी । --जायसी (शब्द॰) । २७ कौतुक । खेल । लीला। उ०—यहि विधि करत कला विविध वसत अवधपुर माहि। अवध प्रजानि उठाहे नित, राम बाँह की छाहि ।--रामस्वला (शब्द०)। महा०—कला बजाना =वदरो का मजीरा बजाना (मदा)।'

  • २८. छल । कपट । घोखा । वहाना। उ०—-पौ ही र | करे हैं कल । कामिनी येनी ।—प्रताप (शब्द॰) ।

यौ--कलाकार = छली ! कपटी । फवादी । २९. बहाना । मिस । होला । ३०. ढग । युक्ति। करतबै । जैसे--." तुम्हारी कोई कला यहीं नहीं लगेगी। उ०--विरह कठिन काल के कला ।—जायसी ग्र०, १० १०३ । ३१ नो की एक कसूरत जिनमे खिलाड़ी सिर नीचे करके उलटता है। वे कले।।। चु०-(क) नाचौ घू भट खोलि ज्ञान का ढोल बजाम्रो देख सर्व संसार कलाएँ उलटी खाम्रो पटू, पृ० ५८ । (ख)तहू नाद शब्द ही मुला के बहू' नाटक चेटक कला —जायसी, (शब्द॰) । - यौ०-कलाबाजी । कलाजग। क्रि० प्र०-२-छाना ।—मारना ।