पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३३०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

कलहासिनी कला फलहासिनि–वि० जी० [सं०] मधुर हास्यवाली 1 सुंदर हँसीवाली । उ०—कुमुदकला वन फलाहासिनि अमृत प्रकाशिनी, नमवासिनि तेरी अामा को पाकर माँ । जग का तिमिर श्रास हर दू' । वीणा, पृ० २ । काहिनी--वि० सी० [सं०] लडाको । झगडालू । कलहिनी- संज्ञा स्त्री० शनि की स्त्री का नाम । कलही'--वि० [सं० कॅलहिन्] [वि॰ स्त्री० फलहिनी] झगडालु । | लडाका । कलही–वि० ख० दे० 'कलहिनी' ।। कलाँकुर-- सज्ञा पुं॰ [सं० फलाहर]१ काकुल पक्ष । २ फसासुर । । ३ चौरशास्त्र के प्रवं तक कसुत ।। कलातर- सज्ञा पुं० [सं० फलान्तर] १ सूद ( व्याज । ३ दुसरी या अन्य कला (को०)। ३ लाभ [को०)।। कलावि, कलाविका–सच्चा लौ० [सं० कलावि, कलाम्बिका]१ ऋण देना । २ सूदखोरी (को०)। कला- वि० [फा०] वडा । दीघकार । । यौ॰—कलोरराशि का घोड़ा= बड़ी जाति का घोड़ा । कलावत--वि० [हिं० कलावत दे० 'कलावत' । उ०—ाढी कलवत नट नरत अरु पातुर -प्रेमघन, भा० १, पृ० ३० । कला–सच्चा औ० [म०] १ अंश । भाग । २ चंद्रमा की सोलहवाँ 'माग। इन सोलह कलाओ के नाम ये हैं ।--१ अमृता, २ मानदा, ३ पु पाँ,४ पुष्टि, ५ तुष्टि,६ रति,१ घुति,८ शशनी, ६ वद्रिका, १० काति, ११ ज्योत्स्ना, १२ श्री, १३ प्रति, १४ अगदा, १५ पूर्णा और १६ भुर्णामृता । विशेष- पुराणों में लिखा है कि चंद्रमा में अमृत रहता है, जिसे देवता लोग पीते हैं। चद्रमा शुक्ल पक्ष में कला कला करके बढ़ता है और पूर्णिमा के दिन उसकी सोलहवी कला पूर्ण हो। जाती है। कृष्णपक्ष में उसके सचित अमृत को कला कला करके देवतागण इस भाँति पी जाते हैं--पहली कला को अग्नि, दुसरी कला को सूर्य, तीसरी कला को विश्वेदेवा, चौथी को वरुण, पाँचवी को वपट्कार, छठी को इद्र, सातवी को देवप, आठवी को अजएकपात्, नवी को यम, दसवीं को वायु, ग्यारहवी को उमा, वारहवी को पितृगण, तेरहवीं को कुवेर, चौदहवी को पशुपति, पद्रहवी को प्रजापति और सोलहवीं कला अमावस्या के दिन जल और ओपधियो में प्रवेश कर जाती है। जिनके खाने पीने से पशु मे दूध होता है । दूध से धी होता है । यह घी आहुति द्वारा पुन चद्रमा तक पहुँचता है । य –कलाघर । कलानाथ। कलानिधि । कलापति । ३. सूर्य का बारहवाँ भाग । :: विशेषवर्प की वारह सक्रातियो के विचार से सूर्य के बारह नाम हैं, अर्थात्-१ विवस्वान, २ अर्यमा, ३ तुपा, ४ त्वष्टा, * ५ सवित, ६, भग, ७ धाता, ८ विधाता, ६ वरुण, १० मित्र, ११ शुक्र और १२. उरुक्रम । इनके तेज को कला कहते हैं। वारई कताओं के नाम ये हैं-१ तपिनि, २ तापिनी, ३. धूम्रा ४, मरीचि, ५. ज्वालिनी, ६. चि, ७ सुषुम्णा, ८, भोगदा, . विश्वा, १०. वोधिनी, ११ वारि णी पौर १२ क्षमा । ४ अग्नि मन के दस मागो मे से एक । विशेष---उसके दस 'भागो के नाम ये हैं-१. घुम्रा, २ मचि, ३ उमा, ४ ज्वलिनी, ५ ग्वालिनी, ६ बिस्फुल्लिगिनी, ७, | ८ सुरूषा, ६ कपिन अौर १० व्यकव्यवः । ५ समय का एक विभाग जो तीस काष्ठा का होता है। विशेप---किसी के मत से दिन का इ, व माग और किसी के मत से ,८३, वाँ भाग होता है। ६ राशि के ३०३ अंश का ६० भाग । ७ वृत्त का १८० व भाग। ८ राशिचक्र के एक अंश का ६० भाग । ६ उपनिपदो के अनुसार पुरुष की देह के १६ अंश या उपाधि । विशेप-इनके नाम इस प्रकार हैं---१ प्राण २ श्रद्धा ३. व्योम, ४ वायु ५ तेज, ६ जल, ७ पृथ्वी, ८ इद्रिय, ६ मन १० अन्न, ११ वी, १२.तप, १३. मत्र, १४ कर्म,१५ लोक शौर १६ नाम । १० छद शास्त्र या सिंगल मे 'माया' या 'का' । यौ -द्वि क्ले । विकल । ११ चिकिग्सा शास्त्र के अनुसार शरीर की सात विशेष झिल्लियों के नाम जो मास, रक्त, मेद, कफ, मूत्र, विर शोर वीर्य को अलग अलग रखती हैं । १२ किस कार्य को भली -ति करने का कौशन । किम काम में निगम र व्यवस्था के अनुसार करने की विद्या । फन । हुनर । विशेष-कामशास्त्र के अनुसार ६४ लाएँ ये हैं। -(१) गीत (गाना),(२) वाद्य (बाजा बजाना), (३) नृत्य (नाचना), ! (४) नदिय (नाटक करना, अभिनय करना), (५) लेख्य (चित्रकारी करना), (६) विशेपकच्छेद्य (तिलक के साँचे बनाना), (७) तंइडल-कुसुमावलि-विकार (चावल और फूलो की चौक पूरना), (६) पुष्पास्तरण (फूलो की सेज रचना या विछाना, (६)दशन-वसनग राग (दातो, कपडो और अगों को रंगना या दांतो के लिये मजन, मिस्सी आदि, वस्त्रों के लिये रग और रेंगने की सामग्री तथा अगों में लगाने के लिये चदने, केसर, मेहँदी, महावर अदि बनाना और उनके बनाने की विधि का ज्ञान), (१०) मणिभूमिकाकर्म (ऋतु के अनुकूल घर सजाना), (११) शायनरचना (विछावन या पुलग विछाना), (१२) उदकवाद्य (जलतरय बजाना), १३ उदघात (पानी के छीट अदि माने या पिचकारी चलाने अर गुलाबपति से काम न और गुलाबपास से काम लेने की विद्या), (१४) चित्र योग (अवस्थापरिवर्तन करना अति नपुसक करना, जवाने की जवान को बुड्ढा और बुड्ढे को जवान करना इत्यादि), (१५) माल्यग्र थविकल्प (देवपुजन के लिये या पहनने के लिये माला गुथना), (१६) केश-शेखरापोड-योजन ( सिर पर फूलों से अनेक प्रकार की रचना करना या सिर के बालों में फूल लगाकर गुथना), (१७) नेपथ्ययोग (देश काल के अनुसार वस्त्र, आभूषण आदि पहनना, (१८) कर्णपत्रसँग (कानों