पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३२८

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फुलमास ६। कालाग्नि कलमास- वि० [सं० कल्माष] चितकबरा । । । कलवारि---सच्चा भी० [हिं० कलवार] कलवार जाति की स्त्री ।। कलमी- वि० अ० कलम + फt० ई (प्रत्य॰)] १ लिखा हुआ । फलवारिन । उ०-चली सुनारि मुहाग सुनाती । म कलवारि ५३ । लिखित । हाथ का लिखा हुआ। हस्तलिखित । २ मो कलम प्रभ मधुमाती - जायसी (शब्द॰) । । लगाने से उत्पन्न हुआ। हो । जैसे,—कलमी 'नीबू फलमीं मानी। कुलवारिन-सच्चा श्री० [वि॰ कलवार का स्त्री॰] । कलवार जाति । ३. जिसमे कलम या रा हो । जैसे,—कनमी शोरा। की स्त्री० । २. कलवार की स्त्री ।। कलमी,सज्ञा स्त्री० [सं० कलम्वी], करेमू । कलमी साग । कलवारिनी--सा स्त्री० [हिं० कलवारिन] ६० कलवारिन ।। कलमीशोरा--सज्ञा पुं० [ हि० कलमी+शोरा] साफ किया हुआ। उ०—-माया कलवारिनी देत विप घोरि के, पिए विप सबै ना १४-:, शोर । । ५ , कोउ भागे ।-पलटू॰, भा॰ २, पृ० ३८] । विशेष—इसमे कलमे होती हैं। शोरे को पानी में साफ करके। कलविक-सा पुं० [सं० कविडू] १' चटक । गौरया । २० । । उसकी मैन को छाँटकर कलम जमाते हैं । यह पोरा साधारण | कालीदा । तरबूज । ३ सफेद चँवर । ४ त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप ।। शोरे से अधिक साफ और तेज होता है। इसकी कलमे भी वही | उही होती हैं। के तीन मस्तको में से वह मस्तक जिसके मुह से वह शरीर कलमुह-वि० [हिं० काला + मुह] १ काले मुहं का। जिसका मुंह पीता था । ५ एक तीर्थ का नाम । ६ धव्वा । दाग (को०)। ७ कोयल (को॰) । काला हो । २ कलकित । लाछित । कुर्लावकविनोद-सदा पुं० [सं० कलविङ्कविनोद] नृत्य के ५१ कलयुग-सच्चा पु० [सं० कलियुग] दे॰ कलियुग' । उ०—असाधारण | मुख्य चालकों में से एक ।। की लोलुपता ने जो कलयुग में बढ़ गई है ।--प्रेमघन॰, भा० । विशेष—इसमें माये के ऊपर दोनों हायों को ले जाकर प्रकाश में !. २, पृ॰ २६६ । । । घुमाते हैं और फिर पसली पर लाकर नीचे ऊपर घुमाते हैं । कलरवे---सत्र पुं० [सं०] १ मधुर शब्द । कोमल या मद मधुर ध्वनि ।। कलविकस्वर-संज्ञा पुं० [सं० कलविवर] एक प्रकार की समाधि । उ०-रजनी की लाज समेटो तो कलरव से उठकर भटो तो 1- | फो०)। लहर, पु० २२ । २ कोकिल । ३ कवू वर । ४ चिबियों के के कलविश–सझा पुं० [सं० कझवि ङ्घ १ गोरया। घटेक । २ दाग ६ कल चहकने की आवाज (को॰) । धब्बा [को०] । कुलसि -वि० [सं०,फला +राशि]: कलाविद् । कला में कुशल । कलश-सवा पुं० [सं०] [स्त्री० पी० कलशी] १. पड़ा। गगरा । । फल मे जानकर। उ०—चतुरई रासि छल रसि, कल- २ वत्र के अनुसार वह घडा या गगर। जो व्यास में कम से |: रासि, हरि भजे जिहि हेत तिहि देन हारी ।—सूर०, १० । । कम ५० अगुल मौर उचाईम १३ अंगुल हो और जिसका मुंह ६ अगुल से कम न हो । ३. मदिर, चैत्य आदि का शिखर।. कलुरिन सुज्ञा स्त्री॰ [ देश-] जोंक ,लगानेवाली स्त्री । कीड़ी लगाने मदिरो के शिखर पर लगा हुआ पीपल, पत्थर अादि का ५ वाली स्त्री- , । । केंगूरा । ५ खपड़ेल के कानों पर हुए मिट्टी को कंगूरा। कलल-सज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भाशय में रज और वीर्य की वह अवस्था । ६. एक प्रकार का मान जो द्रोण या आठ सेर के बराबर ,जिसमे एकपली झिल्ली सी बन जाती हैं मोर जो_कलन के होता था । ७ ,चोटी । सिर । ८ प्रधान अग् । श्रेष्ठ व्यक्ति... उपरात होती है । 'विशेष-सुथुत के अनुसार अब ऋतुमती स्त्री को स्वप्न मैथुन , जैसे,—रघुकुल कलश । ६, काश्मीर का एक राजा जिसका नाम रणादित्य भी था।' ०' द्वारा रज उसके गर्भाशय में प्रवेश करता है, तब भी उससे 1. हड्डी आदि से रहित एकृ. बुलबुला स वनकर रह जाता है। विशेष—यह ९५७.शकाव्द, में हुआ था और वेडा कुमार्गी तथा और कल कहलाता है । अन्यायी था । इसने अपने पिता पर बहुत से अत्याचार किए। । । •i' गभशिय (को॰) । । थे और अपनी भगिनी तक का सतीत्व नष्ट किया था। मश्रिय » यौ= फललन =(१) गर्भ (२)राला ।। । । । । ने इसे सिंहासन से उतारकर इसके पिता को गद्दी पर कृलुलन्सच्चा भी० [हिं॰ कलकल] कलकल । P+: । वैठाया था । - । - कललिपि-सज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णाक्षरों में लिखावट। सोने के पानी १० कोहल मुनि के मत से नृत्य की एक वर्तना। ११ समुद्र की लिखावट ये] । *, ' । - ५ कलवच्या - सच्चा स्त्री० [हिं० कलवार+इयां (प्रत्ये०):]: कलवार यौ-कलशाभोघि, फलशर्णव, कसुशोधि= (१) समुद्र ! (२) क्षीरसागर । - के दुकान,1 राव.की. दुकान ।. ' ' . " ---८ , कलशक्ष-सचा पुं० [सं०] कर्णाटक देश के अतर्गत एक तीर्थ ।।१r कलवार-संज्ञा 3rसै० कल्यपाल, भा० कुल्लवोल] [भी० कुलवारी, कलशज--सूझा पु० [सं०] कलश से उत्पन्न अगस्त्य ऋषि (ो । कलवालि ! ! जाति जो, किसी समय .शावे, घनावी कलशभव—संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य ऋपि जिनकी उत्पत्ति घर्ट में कहीं ।। १ था । घाय? मनाने औंर ,बेचनेवाला ।

बनाने । ' ,बचनवाला । ।" गई है ।

ज्ञई है।" - " " " ! 5,'उ०—सुनि कला का होजोगी महा रूपः के अहउ कलशयोनि–सज्ञा १० [सं०] अगस्त्य ऋषि को । वियोगी ।इद्रा० कलश-संशा औ० [सं०] दे० 'कलयी’ को]। 1 = 1 4 ) ११ पदेचती -६