पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३२३

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६३७ कुलजानले जैसे,--- तुमने तो ऐसी कल ऐंठ दी है कि अब वह किसी की कलक'---सशे पुं० [सं० झलकन्ठ] [० फसफष्ठा] १. सुनता ही नहीं ! कल का पुतला= दूसरे के कहने पर चलने कोकिले । कोयल । ३०-छाछ केहि झलक कटोरा । बाला। दूसरे के अधीन काम करनेवाला । फेस वैकत होना = तुलसी (शब्द०)। २. पावत। परेव।। कबुनर। पि । (१) पुरजा ढीला होना । जो मादि को सरकना । (२) ३ हूँछ । ४. सुदर फं। शोभायुक्त कः । ३०-- ॐ अव्यवस्थित होना । क्रम बिगड़न। किसी को कल हाथ में | वनी जुलजावलि है ।-यनानंद, पृ० ५८५ ।। होना=किसी की मति गति पर अधिकार होना । किसी का कुलकंठ--वि० मीठी घ्यन करनेवाला । सूदर वो नने वाली है। ऐसा देश में होना कि जिघर चलावे, उधर वह चले । कसकंठिनि-सा सी० [सं० कलकण्ठो] कोयल। ३०-करY. बदूक का घोडा या चाप । fafन । निज कलरव में भर, अपने कवि के गोत मनोहर, हीना यौ --- कलदार बंदूक=तोड़ेदार चंदूक । यो वन वन घर पर 1-वीणा, पृ० १२ । इन --संत पं० [सं० त] युद्ध।, संग्राम । ३०-भुज दुइव कलकठी--संज्ञा स्त्री० [सं० कलकण्ठी कोपल ।। स, बीस भुज कल दस माथा काट १-३को० ॥ २, मा १, कलक- सूझा पुं० [अ० झलक] १. वैक । । धेचैनी । घाइट। | पृ० ६० क्रि० प्र०-गुजरना ।—होना ।—रहना -निद्रना। कल-निं० [हिं० कासा शब्द का सक्षिप्त या समासगत रूप]काला। २. जे 1 दुःख । वेद । सौच । चिढ़ा । उ०--पर एक कक होत वैसे,--कलमुहाँ । कलसि । के जिम्मा । कलपोटिया । बड़ तातो ! कुसमय भये राम विनु भ्राता [--(शब्द॰) । कन्नदुमा । कलइया+सुज्ञा स्त्री० [हिं० कतैया] दे० 'कलैया' । कलक..सा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली । २. एक प्रकार असइया+--- सल्ला ओ० [हिं० कलाई] दे॰ 'कलाई । का गद्य (क्ने । कलुक-सा पुं० [सुं० कल्क] दे० 'क' ।। झलई-सा औ• [ग्र० कसई) १. राँगा। यौ---कलई का कुश्ता= गे का भस्म । वैग । फलई की । . कलकतिया-वि० [हिं० कलकत्ता+इया (प्रत्य॰)] कफत - वाला । कलकत से सबघिते । 3०---भु. कलकविये चुना= सफेद) के काम में आनेवाला पत्यर का चुना। २. गे को पतला लेप जो वरतन इत्यादि पर खाद्य पदार्थों को समाचारपत्र भी होली मनाने लगे !-प्रेमपन०, भा॰ २, कसाव से बचाने के लिये लगाते हैं। मुलम्मा ! उ०—कलई के मृ॰ २५१ । काम सबै मिटि जावै ।-दरिया वानी, पृ० ३०1 कलकत्ती-सक्षा पुं० [पं० कॅल्कटा] भार का एक प्रमुख शहर व यौ०-~कलगर । वगाल की राजधानी है। क्रि० प्र०-उना }---उतरना ।—करना ।—होना । | कलफना- क्रि० अ० [हिं० कलकल =शब्द) चित्राना। शोर ३. वह लेप जो न चढ़ाने या चमकाने के लिये किसी वस्तु परे करना । चीत्कार कृरना । चिपाड मारना । ३०---प्रगनि समाया जाता है। जैसे,—(क) दीवार पर चूने की कलई उतने जंग जैतवार जोर जिन्हें चिक्करत दिक्झर हिलवि करना । (ख) दर्पण के पीछे की कतई। ४, बाहरी चमक फलक हैं 1---मति० १ ०, पृ० ३८७ । दमक । दिखाव। भावरण । तृड़क भडका । ऊपरी वनावट । कुलक -माझा पु० [सं०] १. झरने आदि के जल के गिरने का ३०-सावित सत्य सुरीति गई घटि बढ़ी कुरीति कर्पट कलई । शब्द । ३०--कलकल छलछ। सरिती ! उस वो है!--तुलसी (शब्द॰) । छिन छिन ।--मधुज्वाल, पृ० ४१ । २. कोलाहल । हृत्ला । मुहा०---कलई तुलना=असलियत जाहिर होना । असली भेद शोर । ३. शिव (ले०) । युलना । वास्तविक रूप का प्रपट होना । उ०—ाई उधरि कलकल--सा श्री० झगड: । वाद विवाद । दाँत किटकि। प्रीति झलई सी जैसी स्वार्टी मामी-भूर (ब्द०)। कलकल—सय पुं० [सं०] साल वृक्ष की मोद। रात । कतई न सगना=युक्ति में चलना । जैसे,—पह! तुम्हारी कतई ने जगेगी । कलकल*----शि सी० [६० कल्लाना] घुजती । मुरमुरी। चुन: १. अन । झली । चुनाट । क्रि० प्र०—करना ।—पोतनी । कलकलती--वि० [हिं० रुलकलाना मधवा कफातो पर्यंत झलईगर-सा पुं० [अ० कतई+फा० पर कई करनेवाला । तेज । ३०-कतनत किरगे, चाँझ भटक तीन वन । इसईदार--- [अ० कलई+फा शर] जिस पर कलई को हो । वको १०, मा० ३. पृ० ५४ । जिसपर रन का लेप चड़ा हो । जैसे,—कलईदार बरतने । झलनाना० म० [अनु! मन को मापने होना ।। झलक' - वि० [सं० हसिपुग ६० 'कलियुग। उ०—२३ कर कलकलना-३० म० दश मिया हि कुलथुलना १, शरद पुकार के २ क र --कीर सो, पृ० ७१। में गरमी वा चुनचुनाट सी अनुभूति होना। ३. युवान।। लिङ' पुं० । १०–ठीनो गुग छ । ३०-कर्म अझलाई गउ ।-५०, १० ३१ । ३. कि पोई। तेहि म पनि ४ाई - सागर, पर प्रवृति होना । जैसे,—रि घाने ३ विप पीठ का