पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३२२

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कदर ८५६ कपड़ा। इस देश में ये लोग प्राय मुसलमान होते हैं। उ०—आसा ३. वीर्य । ३. साल का पेड ।४. पितरों का एक वर्म (को०)।६, की डोरी गरे बघि देत दुख छोम । चित पितु को बदरे । शकर। शिव (को०)। ६. न्वार मात्रा का काल (को०)। कि यो अहो कलंदर लोभ j–दीन० ग्र०, पृ० २५५ । ३. ३० ७. मात्रा (को॰) । ‘कलंदरा' ।। कल-वि० १ मनोहर । सुदर। उ०—सोमेस सूर प्रयिराज कल कालदर-सञ्ज्ञा पुं० [सं० फलन्चर] १ एक वर्णसकर जाति का तिम समुह चर बर कही ।—पृ॰ रा॰, ६३ । २, कोमल । | नाम । ३ उस जाति का व्यक्ति (को०)। ३ मधुर । ४ कमजोर। दुर्बल (को०)। ५ कच्चा । अपक्व कलंदरा--सच्ची पुं० [अ०] १ एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जो सूत, (को०)। ६ मधुर स्वर करनेवाला (को०)। ७ अस्पष्ट और रेशम और टेसर से बुना जाता है। गुद्दई । २ खेने का अकुडा । मधुर। मद मघुर (ध्वनि) (को०)। | कल-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० कल्य, प्रा० कल्ल] २ नैरोग्य । भाग्य। जिसपर कपडा या रेशम लिपटा रहता है। इसमें लोग कपड़े सेहत तदुरुस्ती । २ आराम । चैन । सुख । उ०—-कल नहि या और और वस्तु लटका देते हैं। उ०—तवू, पाल, कनात, लेत पहरुमा, कवन विधि जाइव हो ।–घरम०, पृ० ६४ । साएबान, सिरायचे । रावटि हूँ बहू भांति, पुनि कुदरा कलदरा !- सुदन (शब्द॰) । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना-पाना ।—होना । मुहा०—कल से = चैन से । ३०–सुर्व तह विन दस कल काटी। कलंदरा-सुझा पुं० [अ० कैलेंडर] १. वह जंत्री या पत्रा जिसका आय व्याघ्र दूका ले टाटी ।—जायसी (शब्द०) । किल से= साल पहली जनवरी से प्रारभ होता है । २. जुर्म या जुर्गों की आराम से । धीरे धीरे । आहिस्ता आहिस्ता । वह सुची याददाश्त जो मजिस्ट्रेट को ऐसे मुकद्दमो मे तैयार ३ सतोप । तुष्टि। करनी पड़ती है जिन्हें वह दौरा सुपुर्द करता है । क्रि० प्र०-माना ।—पड़ना ।—पाना।—होना । कलदरी-सच्ची स्त्री० [हिं॰ कलदरा+ई (प्रत्य॰)] १ वह कल-- क्रि० वि० [स० कल्य= प्रत्यूष, प्रभात] १. दूसरे दिन का छोलदारी जिसमे कलदर लगे हों। ३ एक प्रकार का रेशमी सवेरा । आनेवाला दिन । जैसे,—-मैं कल माऊँगा ।। मुहा०--कल कल करना या माज कलः करना = किसी बात के कलदरी-वि० कलंदर से संबधित । कलंदरी का । लिये सदा दूसरे दिन का वादा करना । टाल मटूव करना । कुलदरी-सच्ची क्षी० कलदर का पेशा यी धधा । हीला हवाला करना। कलदिका----सज्ञा स्त्री० [सं० कलन्दका] ज्ञान । बुद्धि (को॰] । २ भविष्य में 1 पर काल मे। किसी दूसरे समय । जैसे,—वो झलघर--सच्चा पुं० [सं० कलन्दर] चंद्रमा । आज देगा, सो कल पावेगा । ३ गया दिन। बीता हुआ दिन । कल ब-सज्ञा पुं० [सं० फलम्च] १. शर। वाण । २. शाक् का। जैसे,—वह कल घर गया था। मुहा०—कल का = थोड़े दिन का । हाल का । जैसे,—-कल का डठल' । ३. कदवः । लका हुमसे बातें करने आया है। कल की बात = थोड़े दिन फल बक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० कलम्वक] एक प्रकार का कदब [को०] । की बात। ऐसी घटना जिसे हुए बहुत दिन न हुए हो । हाल कलबिकासच्चा स्त्री॰ [सं० कलम्बिका] १ गले के पीछे की नाड़ी । का मामला । कल की रात= वह रात जो भाज से पहले बीत मन्या । ३ एक साग (को०)। गई । कल की घर पर है = अगे की बात आगे देखी जाएगी। कल बियंन–सज्ञा पुं० [अ०] प्रेस या छापे की कल का एक भेद । कल को = भविष्य में। विशेष—इसमें दो लगर होते हैं । एक चिड़िया के प्रकार का केल’- सवा जी० [सं० कला= अग, भाग १ ओर । वल । पहलू। ऊपर रहता है, दूसरा पीछे की ओर। इन्हीं लगरों से इसकी । जैसे,—(क) देखें ऊँट किस कुन वैठता है (ख) कभी वे इस दाब उठती है। कमानी नहीं होती। इसका चलन अव कम कल वैठते हैं, कभी उस कल । २. अग । अवयव । पुरजा ।। |, है । इसे चिडिया प्रेस भी कहते हैं। कुल--सा मी० [सं० कला= विधा] १ युक्ति । ठूग । उ०—-मुझे में तीनों कल वल छल । किसी की कुछ नह सकती चल ।-- कलँगडा--संज्ञा पुं० [सं० फलिङ्ग] कलीदा। तरबूज । हरिश्चंद्र (शब्द॰) । २ कई पैचो और पुरनों के जोड़ से कालँगा-संज्ञा पुं० [हिं० कलंगी] १ लोहे की एक छैनी जिससे ठठेरै बनी हुई वस्तु जिससे कोई काम लिया जाय। यत्र । जैसेथाली मे नक्काशी करते हैं । २ छीपियो का एक ठप्पा जिसमें छापे को कल । कपछी बुनने की कल । सीने की कल । पानी १८ फूल होते हैं । ३ दे० 'कलगा' । की कल ।। कलगी-सच्चा'श्री० [फा० कलगी] ४• 'कलगी। उ०—कनँगी यौ॰—कलदारपत्र से बना हमा सिक्का । रुपया । पानी की सहक सेत गज गाहें । मालनि जटित मजु मुकता है।-हम्मीर०, | कल= वह नल जिसकी मूठ ऐंठने या दबाने से पानी अाती है। पृ० ३ । क्रि० प्र०—खोलना।—-चलना |--चलाना 1-लगाना । केस--सौ पुं० [सं०] १ अव्यक्त मधुर ध्वनि । जैसे--कोयल की ३ पेंच पुरजा । * कूक, भौंरो की गु जार। क्रि० प्र०-उमेठना ।—ऐठना 1--घुमामा-फेरना ।-मोना। यौ०--कुलकठ। मुहा०—कल ऐठना= किसी के चित्त को किसी भोर फेरना ।