पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३२१

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६३५ कलंदर कृप -संवा पुं० [स० कप] तन्।ि जोश । वढ़ावा । दे० 'करण' । का टीका लगे तो कही का न रहू। फिसाना०, भा० ३, कर्षक' संज्ञा पुं० [४०] १.. खींचनेवाला । २ हल जोतनेवाला । पृ० ११६ । किसान । खेतिहर । उ०—हम राज्य' लिए मरते हैं। सच्चा ५ वबजली जो पारा सिद्ध हो जाने पर बैठ जाती है । उ०—* - *ज्य रतु हमारे कृर्षक ही करते हैं। साकेत, पृ० २८५ t; करत न समुमत झूठ गुन सुनत होत मतिरछ। पारद प्रगट कपंक-वि० खींचनेवाला हो ।' प्रपच मर्य सिद्धिउँ नाउ कलंक —तुलसी (शब्द०)। ६. पारे कर्पण---चन्ना पु० [सं०][वि कषत, 'इर्षी, कर्षक, कर्षणीय, फयं] और गंधक की कजली । उ०—जी लहि घरी कलंक न परा। 7 1 खीचना । '२. खरोचकर लकीर डालना। ३. ज़ोतना । काँच होहि नहि कंचन करा ।—जायसी (शब्द०)। ७ है। ४ कृषि कर्म । खेती का काम ।। ५: आकर्षण । बिचाव । | . - का मुरचा । । ३। उ०-किंतु तो भी कर्षण बलवंत है जब तक मिले हैं। कलंकी -सज्ञा पु० [स० कल्कि, कलंकी] दे॰ 'कल्कि। 5 • मापस में ।—अपरा, पृ० ९८ । . यो०-फलंक सरूप = कल्कि रूप या अवतार। उ०—फलि कर्पणविकर्षण-संज्ञा पुं० [सं०] १. खींचतान'। २. सिक्ति और कलिमल- हुरन हरि कियौ कलक सुरूप ।—पृ० रा०, २। अनासक्ति +5--कपॅण विकर्पण भाव जारी रहेगा यदि इसी ५७१ । ' तरह आपस में अपरा, पृ० ९७ । ' कलक्ष-सझा पुं०[सं० कलङ्कय] १ सिंह । शेर । २ एक प्रकार की कपणि-सुश भी० [सं०] व्यभिचारिणी स्त्री । कुलटा (कौ । | वाजा [को०)। कर्पना(0--क्रि० स० [कय+हिं० ना (प्रत्य॰)] खींचना । कृलंकषी-सज्ञा स्त्री० [सं० कलङ्कृषी] सिंहनी [को०)। । उनको ग्राजु राज समाज में वल शम् को धनु कपिढे । कलकाक-संज्ञा पुं० [सं० कलङ्कङ चंद्रमा का काला दाग । --केशव (शब्द०)। .. कलकित-वि० [सं० कलङ्कित] १. जिसे फलंक लगा हौं । लछित । कपंफल--चंश पु० [सं०] १. वहेड़ा। विभीतक । २. अविला । 'दोषयुक्त । २ जिसमें मुरचा लगा हो। कर्पफला--सज्ञा स्त्री० [सं०] आमलकी (क्रो०] । कलंकी-वि० [स० कलङ्गिन्] [स्त्री० कलकिनी] जिसे कलक्क कुपिणी-सच्चा वि० [सं०] १. खिरनी का पेड़ | सीरिणी वृक्ष। २. लगा हो । दोषी । अपराधी । उ०-वे करता नहि भए कलकी, घोडे की लगाम । नही कलगे भारी !-घट०, पृ० २६४ । कलकी--सज्ञा पुं० चद्रमा) ३०-मैलो मृग धारे जगत नाम कलको कपित-वि० [सं०[१ खींचा हुआ । ग्रीकृष्ट किया हुआ । उ०—बार । जागे । तऊ कियो न मयंक तुम सरनागत को त्याग |-- * बार देखती चुगल चित स्पर्श चकित कपित हो हयित् ।-- दीन० ग्र ०, पृ० १६८ । गीतिका, पृ० १५। २. सताया हुआ। पीडित (को०)। ३, कलंकी --संज्ञा पुं० [सं० फल्कि] दे० 'कल्कि'। क्षीण किया हुआ (को०)। ४, जोता हुआ (को॰) । यौ---कलको सहप=कल्कि अवतार । उ०—-कलकी सरूप कविताभूमि-सज्ञा स्त्री॰ [त०] वह भूमि जिसको शत्रु ने पूर्ण रूप | धरतं अनूप -पु० रा०, २१ ५८४।। ' से निचोड लिया हो । कलकुरसी पुं० [सं० कलङ्कर] पानी का भंवर । कप-वि० [स० कपिम्] माकपंक । खीचनेवाला [को०] । कलकूट -सा पुं० [सं० कालकूट] दे० 'कालकूट'। उ०—-12 दत क सय पुं० किसान1 हल चलानेवाला (को॰] । जारी। करै गै विहारी। परे भूमि थान । कलंक्ट वान ।कपू-सी पुं० [सं०] १. कंडे की आग । २. खेती । ३. जीविका । पृ० रा०, ११ ६४३ । " - कुंपू—सच्चा स्त्री० [सं०] १ छोटा ताल । २. नदी । नहर । ४. कलंगी-सच्चा खो० [हिं० कलगी] दे० 'कलगी। उ०—वहै लाने छोटा कुड़ जिसमें यज्ञ की अग्नि रखी जाती है। ५. के हैं। लोहू लर्स वारिघारा। मन कौल फूले कलंगी अपारा । ३. जुताई (०) ।, | हम्मीर०, पृ० ५९ ।। कृह-क्रि० वि० [सं०] कब ?-किस समय ? | कलंगो-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दे० पहाडों में होनेवाली जंगली माँग का। कहिचित्–क्रि० वि०--[सं०] १. कमी । किसी समय । २. कदाचित् ।। वह पौधा जिसमे वीज लगते हैं। फुलगों का उलटा। कुलक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० फल वि० फल कित, कलंकी] १. दाग । कलज-सा पुं० [सं०] १ तवाकू का पौधा । ३ भृग । ३ पक्षी { घन्वा । २ चद्रमा पर काला दाग। | • ४ पक्षी का मास । ५. १० पल की तौल । ६ विषैले अस्त्र से यौ॰—¥लकाक। मारा हुआ मृग या पक्षी (को॰) । * ३. लछिन बदनामी । ४, ऐब । दोष । कलडर--सज्ञा पु० [अ० कॅलेंडर] वह अँगरेजी यंत्री या तिथिपत्र क्रि० प्र०--ना- देना !--चना ।—लगाना । जिसका प्रारंभ पहली जनवरी से होता है। मुहा०—-कलंक चढाना= काल के ग्रा-टोप लगना। फलक का कलंदक---संज्ञा पुं० [अ० फुलन्दफ] एक ऋषि का नाम । । | टीका लगाना = दो मा धब्बा लगना । लाछन लगना । कलदर'--सच्ची पुं० [अ० कलदर] १. एक प्रकार का मुसलमान छ। 'अपयश होना। उ०-बूढ़ा अदमी हू, इस बुढौती में झलक जो संसार से विरक्त होता है । १ रीछ ग्रौर वदर नचानेवाला। २०३६।". द , ५ . । ।