पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३२०

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कृस्थान क के प्रधान रूप को प्रकाश में लाने के लिये उत्सुक थे ।—प्राचार्य० कोंद्रियसज्ञा स्त्री० [सं० कर्मेन्द्रिय] काम करनेवाली इद्रिये ! वह पृ० १६२ । इद्रिय जिसे हिला डुलाकर कोई किया उत्पन्न की जाती है। कस्थान--सज्ञा पुं० [सं०] १ काम करने की जगह । २ फलित विशेष---क में द्रिय पाँच हैं—हाय, पैर, वाणी, गुदा और उपस्य। ज्योतिष में लग्न से दसवाँ स्थान जिसके अनुसार मनुष्य के साक्ष्य में ग्यारह इद्रियां मानी गई हैं। पाँच ज्ञानेंद्रिय पाँच पिता पद, राजसम्मान आदि के सवध में विचार होता है । ३. कर्मेंद्रिय और एक उभयात्मक मन ।। वह स्थान जहाँ कारीगर काम करते हो । कारखाना (को०] । कर्मोपघाती--वि० [० कर्मोपघातिन] काम बिगाड़नेवाला (को०)। कर्महीन- वि० [सं०]१ जिससे शुभ कर्म न बन पड़े। अकर्मनिष्ठ । ३ कर।"f-सा पुं० [स० कराल] [स्त्रो० करों जुलाहो का सूत फैलाकर अभागा । भाग्यहीन । | तानने का काम । कुर्महीनी –वि० जी० [सं० कर्म हीन+३] भाग्यहीन । अभागी । क्रि० प्र०—करना । उ०—मदमति हम कर्महीनी दोप काहि लगाइए । प्राणपति कर्रा---वि० [हिं० कडा या करडा या करा] १ कडा 1 सब्त 1 २ सो नेह बाँध्यो कर्म रि यो सो पाइए । —सूर (शब्द॰) । कठिन । मुश्किल । जैसे,—कर्रा काम, करीं मेहनत ।। कर्मात--सा पुं० [सं० फमन्त] १. काम का अत । काम की करीना----क्रि० अ० [हिं० फर्रा का होना । कोर होना। समाप्ति । २ जोती हुई धरती । ३ अन्न भाडार (को०) । ४ . सख्त होना । कार्यालये । कारखाना (को०)।। | कै'-- सज्ञा सी० [वैश०] एक प्रकार का वृक्ष जो देहरादून श्रीर कर्मातिक-संज्ञा पुं० [हिं० कमान्तिक] कर्मचारी । मजदूर [को०] । | अवध के जगलो तया दक्षिण में पाया जाता है। कर्मा-- वि० [हिं० कर्म + प्रा० (प्रत्य॰)] दे॰ कर्मपरायण उ०-~~ विशेष—इसके पत्ते वहुत बड़े होते हैं और मार्च में झड जाते कम घम त्राग जैनी। ये उतरे भौजल की सैनी-घट०, पृ०, हैं। पत्ते चारे के काम में आते हैं। इन वृक्ष में फन भी लगते २६३ ।। हैं जो जून में पकते हैं। कर्माकारी- सज्ञा पुं० [हिं० कर्मा + कारी] कर्म करनेवाला । कर न करे-वि० [हिं० कर्रा का स्त्री०] की। कठोर ।। कर्मकाडी । उ०----मुन हो पति कर्माकारी । ज्ञान पदार्थ तृत्त कर्राफर-सज्ञा पु० [अ० करं उ-फर्र] गर्व । वैभव। उ०—गर न वौचारी |-- प्रा०, पृ० २६४। होता पास मेरे यह कंकर । काँसू होता मुज को इतना कॉफर ! –दक्खिनी॰, पृ० १८४ । कर्माजीव --सज्ञा पुं० [१०] किसी पेशे में जीवननिर्वाह करनेवाला । कवंट- संज्ञा पुं० [सं०] दो तो गाँवो के बीच का कोई सुदर स्यान व्यक्ति [को॰] ।। जहाँ अासपास के लोग इकट्ठे होकर लेनदेन और व्यापार कुर्मादान-संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यापार जिसका श्रावको के लिये करते हो। मडी । २. नगर। ३ वह गाँव जो कांटेदार झाडियों निषेध है । से घिरा हो । विशेप--ये १५ हैं--१ इग ना कर्म । २ वन कर्म । ३. साकई कवंर--सज्ञा पुं० [सं०] १ पाप । २ चीता र ३ राक्षस [को । क _वता व कर्म या साडी कर्म । ४, भाडी कर्म । ५ स्फोटिक कर्म-कोडी कर्वर–वि० चितकबरा [को॰] । कर्म । ६ इतकूवाणिज्य । ७, लाक्षी-कुवाणिज्य । ६, रस स* कर्वरो- सुज्ञा स्त्री०[सं०] १ दुर्गा । २ रात्रि । ३ राक्षसी । ४ मादा कूवाणिज्य । ६ केशकुवाणिज्य । १०• विपकुवाणिज्य । चीता। व्याही [को०)। ११ पत्रपीड़न । १२. निलाछन् । १३ दावाग्नि-दान-कर्म । कर्शन'—सया पुं० [सं०] मरिन । अाग [क] । १४ शोषण कर्म । १५ असतीपोषण ।। कर्शन- वि० १ दुर्वल करनेवाला । क्षीण करनेवाला । १ कष्ट कर्मापरोध- संज्ञा पुं० [सं०] चिकित्सा में असावधानी । बीमार को | देनेवाला । केप्ट दायक [वै] । इलाज ठीक ढग पर न करना । कशित-वि० [सं०] क्षीण । दुर्वल । कमजोर क्नेि । कमर सझा पु० [सं०] १. कारीगर (सुनार, लोहार इत्यादि)। कश्यं—संज्ञा पुं॰ [र्त०] कचर। नरकचूर । जरवाद । २ कर्मकार। लोहार । ३. कमरख । ४ एक प्रकार का कर्प-सी पुं० [सं०] १. सोहि माझे का एक मान । वाँस ।। विशेष--प्राचीन काल में माशा पाँच रत्ती का होता था। इससे कमश्रियाभूति--सा पु० [सं०] काम के अच्छे या बुरे अथवा कम । अाजकल के अनुसार फर्प दस ही माशे का ठहरेगा। वैद्य के या अधिक होने के अनुसार मजदूरी । कार्यों के अनुसार वेतन । मे कही कहीं कई दो तोले का भी माना गया है। कमिष्ठ--वि० [सं०] १ कर्म करनेवाला । काम में चतुर । २. विधि २ खिचाव । घसीटना । ३ जोताई । ४ (लकीर सादि) खीचनः । खोवनी । ५ वडा । ६ प्राचीन काल का एक पूर्वक शास्त्रविहित सध्या, अग्निहोत्र आदि कर्म करनेवाला । प्रकार का सिक्का । झियावान् । विशेष—यह सिक्का अाजकल के हिसाब से लगभग ४) कर्मी---वि० [सं० मिन्] [स्त्री० मणौ] १ कर्म करनेवाला । मूल्य का होता था। यह चांदी के १६ कापण के बराबर २ फल की आकाक्षा से यज्ञादि कर्म करनेवाला । य।। इसे 'हुण' भी कहते थे । कर्मीर-सज्ञा पुं० [३०]१ नारगी रग । किर्मीर । ३ चिंतकवा रग।