पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३१७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

कर्म ६३१ कैर्मगुणपिकर्ष " कर्मक में वह क्रिया यौ०-कर्मकार । कर्मक्षेत्र । कर्मचारी । कर्मफत । कर्मभोग । ५. योगसूत्र की वृत्ति में कर्म के तीन भेद । भोज ने ये भेद किए कर्मकेंद्र । कर्मेंद्रिय । हैं--(क) विहित, जिनके करने की शास्त्रों में शाज्ञा है, (ख) २. व्याकरण में वह शब्द जिचके वाच्य पर कर्ता की क्रिया का निषिद्ध, जिनके करने का निषेध है और (ग) मिश्र अर्थात् मिले प्रभाव पड़े । कर्ता की क्रिया या व्यापार द्वारा नाघ्य जो भी जुलै । जाति, आयु और भोग कर्म के विपीक या फल कहैं स्तितम कार्य हो जैसे, राम ने रावण को मारा । यहाँ राम के हाते है । ६ जन्मभेद से कर्म के चार विभाग- सचित, मारने का प्रमाव रावण में पाया गया, इससे वह कम हुआ। प्रारब्ध, क्रियमाण और भावो। ७. जैन दर्शन के अनुसार यह द्वितीय कारक माना जाता है जिसका विभक्तिचिह्न कर्म पुद्गल और जीव के अनादि सबंध से उत्पन्न होता ‘को' है । कभी कभी अधिकरण अर्थ में भी द्वितीया रूप का है, इसी से जैन लोग इसे पोद्गलिक भी कहते हैं। इसके दो प्रयोग होता है। जैसे,—वह घर हो गया या । पर ऐसा भेद हैं । (क) घाति जो मुक्ति का वाधक होता है और (ख) प्रयोग अकर्मक क्रिया में विशेषकर आना, जाना, फिरना, अघाति जो मुक्ति का वाधक नहीं होता । ८. वह कार्य या लौटना, फेंकना, आदि गत्यर्थक क्रियाअों के ही नाय होता क्रिया जिसका करा कर्तव्य हो । जैसे,—ब्राह्मण के पट्कर्महै, जिनका सवंध देश म्यान और काल से होता है। संप्रदान यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान, प्रतिग्रह। ९ कर्म कारक में भी कर्मकारक का चिह्न 'को' लगाया जाता है। की फल । भाग्य ! प्रारब्ध । किस्मत । इसके भी दो भेद हैंजैसे,-'उसको रुपया दौ’ (व्याकरण में कर्म दो प्रकार के होते (क) प्रारब्ध कर्म जिसका फन मनुष्य भोग रहा है और (२) हैं—मुख्य कर्म और गौण कर्म !) ३ वैशेपिक के अनुसार छह सुचित कर्म जिसका फन भविष्यत् मे मिलनेवाला है। जैसे,---- पदार्थों में से एक जिसका लक्षण इस प्रकार लिखा है-जो एक (क) अपना कर्म भो रहे हैं । (ख) कर्म में जो लिखा होगा, प्रध्य में हो, गुण न हो घौर सुयोग और विभाग में अनपेक्ष सो होगा। उ०—कर्म हुरचौ सीता कहं प्राई, दुख सुख कर्म कारण हो। (कर्म यहाँ क्रिया का लगभग पर्याय शब्द है । ताहि भुगताई - कबीर सा०, पृ० ६६० । वि० दे० करम' । 'व्यापार' भी उसे ही वैयाकरण कहते हैं। कर्म पाँच हैं | १० मृतक सस्कार। क्रिया कम । उ०—जव तनु तज्यो गोध उरक्षेपण (ऊपर फेंकना), अवक्षेपण (नीचे फेंकना), अकुचन | रघुपति तव वहुत कर्म विधि कोनी । जान्यो सखी राय दशरथ (सिकोडना), प्रसारण (फैलाना), और गमन (जाना, चलना) । को तुरतहि निज मति दीनी ।—सूर (शब्द॰) । गमन के पाँच भेद किए गए हैं-भ्रमण (घूमना), रेचन कर्मकरसा पुं० [सं०]१. श्रमी । मजदुर । २. प्राचीन काल की एक (खाली होना), यंदन (बहुना या सुर कना), उर्धज्वलन(ऊपर जाति जो संवा कर्म करती थी। अाजकल इसे कमकर कहते की और जलना), तिर्यग्गमन (तिरछा चलना) । ४. | हैं । ३ गम (को॰] । | = = =ो का? तो ये हैं- कर्मकांड-सुज्ञा पुं० [सं० कर्मकाण्ड १. धर्मसुवधी कृत्य । गन्ना गुण या गौण कर्म और प्रधान या अर्थ कर्म । गुण कर्म । २ वह शास्त्र जिसमे यज्ञादि कर्मों का विधान हो । कुर्मकाडी-सज्ञा पुं० [सं० कर्मकाण्डिन्] यज्ञादि कर्म करानेवाला । (गण) कर्म वह है जिसे द्रव्य (सामग्री की उत्पत्ति या क घमसवैध कृत्य करानेवाला । संस्कार हो, जैसे,—धान कूटना, यूप वनाना, धी तपाना | कर्मकार सञ्चा पुं० [सं०] १. एक वर्षसफर जाति जो शूद्रा और अादि । गुण कर्म का फल दृष्ट है, जैसे, घान कूटने से चावल विश्वकर्मा से उत्पन्न हुई है। २ लोहे या सोने का काम निकलता है, लकडी गढ़ने से यूप बनता है। गुण कर्म के भी वनानवाला । लुहार ! सुनार। ३ वैल । ४. नौकर। सेवक । चार भेद किए गए हैं--(क) उत्पत्ति (जेचे, लकडी के गढने मजदूर।५ विना वेतन या मजदुरी के काम करनेवाला। देकार। से यूप का तैयार होना । (ख) आप्ति (जस, गाय के दुहन कर्मकारक-सा पुं० [सं०] व्याकरण मे कर्म । दे० 'कर्म' २।। चे दूध की प्राप्ति), (ग) विकृति (धान कूटना, सोम का रस । कमकामुक-सज्ञा पु० [सं०] मजबूत धनुष को०] । निचोहना, घी तुपाना),(घ) सस्कृति (चावल पछाड़ना, सोम। कर्मकोलक—सा पुं० [स०] घोवी (को०] । गन्ना) । प्रधान या अर्थमं वह है जिससे द्रव्य कमंझम-वि० [सं०] जो काम करने में समर्थ हो । की उत्पत्ति या शुद्धि न हो, बल्कि उसका प्रयोग हो, जस, कुर्मक्षय-सूझा पु० [सं०] कर्मों का विनाश । यज्ञ प्रादि । उसका फल अष्ट है, जैसे स्वर्ग की प्राप्ति इत्यादि। विशेष-भूतकाल में किए हुए पापकर्मों का विनाश उनके प्रधान या अर्थकर्म के तीन भेद हैं–नित्य, नैमित्तिक विपरीत पुण्यकर्म करने से होता है। और काम्य । नित्य वह है जिससे न करने से पाप हो अर्थात् कर्मक्षेत्र–चा [सं०] १. कार्य करने का स्यान । २. भारतवर्ष। जिसका कृरना परम कृतब्य हो, जैसे, सुष्पा अग्निहोत्र विशेष-भागवत में लिखा है कि नौ वर्षों (प्रदेशो) में से भारतअादि । नैमित्तिक वह है जो किसी निनित्त से किची अवसर वर्ष कर्म करने के लिये है। शेप आठ वर्ष कमों के अवशिष्ट पर किया जाय, जैसे, पौर्णमासपिड, पितृयज्ञ आदि। जो | भोग के लिये हैं! में किसी विशेष फल की कामना से किया जाय, वढू बाप है, जैसे, पुष्टि, कारीरि अादि । मीमासक लोग मा ५० [सं०] कोटिल्य मत से काम की अचछाई व कामं की प्रधान मानते हैं और वेदाती लोग ज्ञान की प्रधान कार्यक्षमता। मानकर उससे मुक्ति मानते हैं। कर्मगुणापकर्ष-संश पुं० [सं०] काम अच्छा न होना। अमियों की पौरुदंशां। आवमा ॥ बा ।' से यूप को तैयार नाक टता, सोम का रस कृमकामुक