पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३१४

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कर्णभूषण ६२८ कणिका कर्णभूपण-सज्ञा पुं० [सं०] कान का एक आभूषण [को०]। कर्णहीन-वि० जो सुन न सकता हो । बहरा [को०] ।। कर्णभूसा-सज्ञा स्त्री० [सं०] कान का एक अभूपण (को०] । कर्णा दु कर्णा दू--सूझा पुं० [सं० फणन्दुि, कान्दूि] कान का गहना। कर्णमल--सज्ञा पुं० [सं०] कान का मैल । कान का खुट [को०)। | वाली (को०) । कर्णमूल—सज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमे कान की जड़ के पास कर्णाकणि—क्रि० वि० [सं०] कान से कान तक । कानोंकान (औ। | सूजन होती है। कनपेड। कर्णाट-सज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण का एक देश । कण मृदग--सज्ञा पुं० [सं० फर्णमृदङ्ग] कान के भीतर की चमडे की विशेप- इसके अतर्गत प्राचीन काल में वर्तमान मैसूर के उत्तरीय | वह झिल्ली जो मृदंग के चमड़े की तरह हड्डियों पर फसी रहती भाग से लेकर वीजापुर तक का प्रदेश था । पर इधर तयवाले है। इनपर शव्द द्वारा कषित वायु के प्राघात से शब्द का ज्ञान आजकल के करनाटक के अनुसार रामेश्वर से लेकर कावेरी होता है । तक के प्रदेश को कर्णाट मानते हैं। कर्णमोटी-सज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा देवी का एक रूप को०] ।। २ संपूर्ण जाति का एक राग जो मेघ राग का दूसरा पुत्र माना कर्णयुग्म प्रकीर्ण- संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य के ५१ प्रकार के चालको जाता है । | मे से एक जिसमे दोनो हाथों को घुमाते ढुए बगल से सामने विशेप-इसके गाने का समय रात का पहला पहर है। इसका | ले आते हैं। स्वर पाठ इस प्रकार है–प ध नि सा रे ग म प । इसे हिंदी कर्णयोनि–वि० [सं०] कान से जन्म लेनेवाला (को॰) । में कान्हा भी कहते हैं। कर्णरध-मज्ञा पुं० [सं० कर्णरन्ध्र] कान का छेद । कर्णाटक-सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'कर्णाट' । कर्णलग्न स्कध-सज्ञा पुं० [सं० कर्णलग्नस्कन्ध नृत्य मे कधे के पाँच कर्णाटी-शा स्त्री० [सं०] १ सणं जाति का एक शुद्ध रागिनी भेदो मे से एक जिससे कधे को सीधा ऊँचा करके कान की । जो मालवा या किसी मत से दीपक राग की पत्नी है। ओर ले जाते हैं। विशेष—यह रात के दूसरे पहर की दूसरी घडी में गाई जाती कर्णवश---सज्ञा पुं॰ [सं०] बाँस का मंच [को०) । है । स्वरपाठ इस प्रकार है–नि सा रे ग म प ध नी । कर्णवजित- सखा पुं० [सं०] साँप । संगीतदर्पण के अनुसार इस का अहान्यास या ग्राम निपद विशेष—प्राचीनो का विश्वास था कि साँप के कान नहीं होते, है, पर किसी किसी के मुत से पद्धज भी कहते हैं । इसे कान्हडी पर वास्तव में साँप की अखिो के पास कान के छेद प्रत्यक्ष भी कहते हैं । दिखाई पड़ते हैं । २. कणटि देश की स्त्री । ३. कलाट देश की भाषा । ४. हंसपदी कर्णविद्रधूि—सच्चा स्त्री॰ [सं०] कान के अदर की फुसी । कान के लता । ५. शब्दालंकार अनुप्रास की एक बृत्ति जिसमे केवल भीतर की फुडिया या घाव । कवर्ग के ही अक्षर होते हैं । कर्णवेध-सच्चा पुं० [सं०] बालको के कान छेदने का सस्कार । कर्णादर्श-सज्ञा पु० [सं०] कान में पहनने का गहना। करन । कनछेदन । करनवेघ । फूल [को॰] । कर्णवेधनी---सज्ञा स्त्री० [सं०] कान छेदने का औजार । कर्णाधारसा पुं०[सं० कर्णधार] सं० 'कर्णधार । ०-विसर्जन हो । कर्णवेष्ट, कर्णवेष्टन-सज्ञा पुं० [सं०] १. कान का वाला । कुहल । है कर्णाघार वही पहुचा देगा उस पार !—यामा, पृ० १६ । २ कान की बाली (को०] । कर्णानुज-सज्ञा पुं० [सं०] युधिष्ठिर।। कर्णशुष्कूली-संज्ञा स्त्री० [सं०] कान की बाहरी भाग [को०] । कर्णाभरणक संज्ञा पुं॰ [सं०] अमलतासे । कर्णशुल-सज्ञा पुं० [सं०] कान की पीडा। कर्णारि--सी पुं० [सं०] अजुन जिसने कर्ण को मारा था । कर्णशोभन-सज्ञा पुं० [सं०] कान का एक आभूषण । कान का एक, कणिक-वि० [सं०]१ कानवाला । जिसे कान हो । १ जिसके हाथ गहना । उ०---तीसरा अभूिपण कर्णशोभन या !---सपूर्णा | मै पतवार हो को०] । अभि० ग्र०, पृ० ६६ । कणिक--संज्ञा १ लिखनेवाला । लिपिक । क्लार्के । उ० - सीढियों कर्णश्रव- वि० [सं०] जो कान के द्वारा सुना जाय [को॰] । के निकट वृद्ध कणिक गण सन्निपात की तमाम कार्यवाही कर्णसू-सज्ञा स्त्री० [सं०] कुती [को०)। लिखने को तैयार बैठे थे ।—वैशाली०, न० पृ० १४) २ कर्णसूची-संक्षा बी० [सं०] एक छोटा कीडा [को॰] । माँझी । कर्णधार को०) । कर्णस्फोटा-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की वेल । चित्रपर्णीको। कणिका-सज्ञा स्त्री० [सं०] १ कान का एक गहना। करनफुने। कर्णस्राव--सज्ञा पुं॰ [स०] फुसी, फोडा आदि के कारण कान के | २ हाथ की विचली उँगली । ३ हाथी के सू की नोक । भीतर से पीव या मवाद बहने का रोग। ४ कमल का छत्ता जिसमें से केवल गट्टे निकलते हैं ।५ सेवती । कर्णहल्लिका---सूज्ञा स्त्री० [सं०] कान का एक रोग [को॰] । सफेद गुलाब ६ एक योनि रोग जिसमें योनि के कमल के कर्णहीन'-सज्ञा पुं० [म०] सपं । साँप । चारो ग्रोर कॅगनी के अंकुर से निकल आते हैं। ७, अरनी का