पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३१३

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६२७ कुणफूल कणक विशेष—यह कन्याकाल में सूर्य से उत्पन्न हुआ था, इसी से कृजित्-सज्ञा पुं० [सं०] जुन ]ि। कर्णवाल-सज्ञा पुं॰ [सं०] १. हायी की कान हिलाना । २ हाथी के । कानन भी कहलाता था । पर्या०—राधेय । वसुपेण अर्कन्दन । घटोत्कचाँतक। चापेश । कानो के हिलने की ध्वनि (को०] । सूतपुत्र । कर्णदेवता--संज्ञा पु० [सं०] कान के देवता, वायु ! ३ सुवर्णालि वृक्ष ।४. नावे को पतवार।५. समकोण त्रिभुज कर्णधार---पुं० [सं०] १. नाविक । माँझी । मल्लाह । केवट। ३. में समकोण के सामने के कोणो को मिलानेवाली रेखा । ६ पतवार थामनेवाला माँझी । ३. पतवार । कलवारी । किसी चतुर्भज मे आमने सामने के कोणों को मिलानेवाली कर्णधार-वि० बहुत बड़े कार्य को करनेवाला । दूसरों की दुःखादि रेखा । ७ पिंगल में इगण अर्थात् चार मात्रावाले गणो की दूर करनेवाला । सञ्चय । जैसे,—-ss-माघो । ६. छप्पय के चौथे भेद का नाम । कर्णनदि-अज्ञा स्त्री० [सं०] १. कान में सुनाई पड़ती हुई गंज । इसमे ६७ मुरु, १८ लघु, ६५ वर्ण और १५२ मात्राए होती घनघनहिट जो कान में सुन पडती है। २ एक रोग जिसमे हैं। परंतु जिसमें उल्नाली २६ मात्रा का होता है, उसे वायु के कारण कान में एक प्रकार की गूज सी सुनाई छप्पय मे ६७ गुरु, १४ लघु, ८१ वर्ण' और १४८ मात्राएँ पड़ती है। होती हैं। ९. दो की संख्या (काव्य)। १० उपदिमाग । कर्णपथ---संज्ञा पुं० [सं०] श्रवण का क्षेत्र । वह दूरी जहाँ तक की दो दिशा का मध्यवर्ती कोण या भाग (को०)। ११. किसी | आवाज सुनाई दे [को॰] । पात्र या वर्तन का हत्या या कुडा (को०)। | कर्णपर परा--संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णपरम्परा] एक के कान से दूसरे के कर्ण क-सज्ञा पु० [सं०] १. बर्तन इत्यादि को पकड़ने का कुडा। २. कान में बात जाने का क्रम् । सुनी सुनाई व्यवस्था । ( किसी । पेड के पत्त यौर शाखाएँ । ३. एक वेल । ४. एक प्रकार का बात को ) बहुत दिनों से लगातार सुनते सुनते चले अाने का | वर क्झेि । । क्रम । श्रुतिपरंपरा ।। कण कट-वि० [न०] कान को अप्रिय । जो सुनने में कर्कश लगे । कर्णपाक-संज्ञा पु० [१०] कान पकने की स्थिति या दशा [को॰] । कण कसन्निपात—सा पुं० [सं०] एक प्रकार का मुन्निपात ।। कर्णपाली- सच्चा स्त्री० [सं०] १ कान की ली कान की लौनक । विशेप-इसमें रोगी कान से वह हो जाता है, उसके शरीर में । कान की लोबिया । कान की लहर । २ कान की बाली । ज्वर रहता है, कान के नीचे सूजन होती है वह अडवड वकता | मुरकी । ३ एक रोग जो कान की लोलक में होता है । है, उसे पीना होता है, प्यास लगती है, बेहोशी अाती है और | कर्णपिशाची- सज्ञा सी० [सं॰] एक तांत्रिक देवी। डर लगता हैं । विशेष—इसके सिद्ध होने पर, कहा जाता है, मनुष्य जो चाहे कण कीटा, कण कीटो----संज्ञा स्त्री० [सं०] कनखजूरा । गोजर ।। कर्ण कुह-सज्ञा पु० [सं०] कान का विल । कान का छेद । उ० सो जान सकता है। कुहरित भी पचम त्वर, रहे बद कर्णकुहर ।-अनामिका, कर्णपुर- सा पुं० [सं०] १ कान का घेरा।२ चपा नगरी जो अग पृ० १३ । देश की राजधानी थी। कर्ण क्ष्वेड-संज्ञा पुं० [सं०] कान का एक रोग । कर्णपुर--सज्ञा पुं० [स०] १. सिरिस का पेड़ । २ अशोक का पेड़ । ३. नील कमले । ४. करनफूल । । विशेष—इसमे पित्त और कफयुक्त वायु कान में घुस जाने से . वनुरी का सा शब्द सुन पड़ता है। कर्णपूरक---सज्ञा पु० [स०] १ कदव का पेड़ । २. कर्णफूल (को॰) । या गूथ-सा पुं० [सं०] कान का बूट । काने की मेल । ३ अशोक का वृक्ष (को०) । ४. नील कमल (को०)। कर्ण गृथक-संज्ञा पुं० [सं०] कान के छूट का कडा होना [को०]। कुर्णप्रणाद---संज्ञा पुं० [अ०] दे॰ 'कण प्रतिनाह' । कण गोचर-वि० [सं०] कान को सुनाई देने वाला कौ] । कर्णप्रतिनीह–चा पु० [सं०] वैद्यक के अनुसार कान का एक रोग । कर्णपट-छा पुं० [में०] शिव जी के उपासको का एक वर्ग जो, विशेप-इसमें छूट फूलकर अयति पतली होकर नाक और मुह | कानों में इसलिये घटा या घंटी बाँधे रहता था, जिससे उसके में पहुंच जाती है इस रोग के होने से अाधीसीसी उत्पन्न हो , स्वर में विप्ण का स्वर दब जाय [को०] । जाती है । झणज-सज्ञा पुं० [सं०] कान का छूट [को॰] । कर्णजप-सज्ञा पुं० [सं०] चुगलखोरी [ये०] । कर्णप्रयाग-- सुज्ञा पुं॰ [स०] गइवान का एक गाँव । कणजप-वि० चुगलखोर वै०] । विशेप–पह अलकनंदा और पिडार नदी के सुगम पर है तया कुणंजाप'--सुच्ची पुं० [सं०] चुगलखोरी [को०] । बदरिकाघम के मार्ग में पड़ता है। हिंदुओं के मत से यहां स्नान कर्जाप-वि० चुगलखोर १०] । | करने का माहात्म्य है ।। कर्णजलुका, कण जलौका-सा जी० [सं०] कनखजूरा ० । कर्णफन--संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली (को॰] । कर्णजाह–पुं० [सं०] कान की जड [को०] । कर्णफूल-चज्ञा पुं॰ [सं० फणं +फूल] कान का एक अभूपए । करन• फूल चे । | 5 = १ । ।