पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३११

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करौंदिया ९२५ कर्कटगी सफेद और कुछ इलका और गहरा गुलाबी होती है। ये फल कौन-सुबा पुं० [हिं० करोना = खुरचना] कसेरों की वह कलम खट्टे होते हैं तया अचार और चटनी के काम में आते हैं। जिससे वे वरतन पर नक्काशी करते हैं । नक्काशी खोदने की पजाव में कौंद के पेड़ से लाह भी निकलती है फल रगों में कलम या छैन । भी पड़ता है। डालियो को छीलने से एक प्रकार का लासा करीना-सी बी० [सं० करमदं, ७ करवंद] दे० 'करौंदा' । निकलता है। कुचा फल मनरोधक होता है। इसकी जड़ करौला(-संज्ञा पुं० [हिं० शैला + शोरहेकवा करनेवाला। शिकारी। को कपूर और नीबू में फेंटकर स्वाज पर लगाते हैं जिससे उ० एक स्मै सजिकै म सैन सिकार को अलमगीर सिधाए । खजनी कम होनी है और मक्खियों नहीं बैठती । इसकी लकड़ी ‘ावत है सर सँभरी एक मोर ते लोगन वोलि जनाए । ईंधन के काम में आती हैं, पर दक्षिण में इसके कधे और भूपन भो भ्रम अौरंग को सिव भोंसला भूप की धाक धकाए । कलछले भी बनते हैं। केरौंदे की झाड़ी टेट्टी के लिये भी लगाई घाय के सिंह' कह्यौ समुझाय करौलनि आये अचेत उठाए। जाती है। करौदा प्राय सब जगह होता है। भूषण । ० पृ० ६५। पर्या॰—कर मई । कम्ल । करावुक । बोले । जातिपुष्प । करौली-सच्चा सौ [fइ० राजस्थान को एक नगर] १. राजस्यान का ३ एक छोटी कंटीली झाडी । एक शहर । २. एक प्रकार की सीधी छु जो भोकने के काम विशेष---यह जंग में होती है जिसमें मटर के बरविर छोटे में अाती है । इसमे मूठ लगी रहती है। यह कली शहर में फत्र लगने हैं, जो जाडे के दिनो में पककर सृव काले हो जाते अच्छी बनने से उसी के नाम से ख्याल है । हैं। पकने पर इन फ तो का स्वाद मीठा होता हैं। ककै धु - सज्ञा पुं० [स० कन्घु] दे० 'कर्कंधू'। ३ कान के पास की गिल्टी । कर्कवृ---संज्ञा पुं० [स० ककंन्यू) १ बेर का पेउ या फल । २ अधा करौंदिया--वि० [हिं० करौंदा +इया(प्रत्य॰)] १ कद से संबद्ध । कुग्रौं । सूखा कुप (को॰) । | २ करौंद के रग का । करौंदे के समान इनकी स्याही लिए हुए कर्क--सुज्ञा पुं० [सं०] १ केकडा । २ बारह राशियों में से चौथी खुलते लाल रंग का । उ० -- कौंदिया और सुप खी धानी राशि । उ० अब मैं कहीं चढ़ की धारा । कर्क सक्राति रग के वस्त्र । प्रेमघन॰, भा० २, पृ० १० ।। छैमास विचारा--नवीर स०, पृ० ८७९ ।। कर दिया--सबा पुं० एक रन जो हल्की स्याही के लिए लाल होता है। विशेष- इसमें पुनर्वसु को अ िम चरण तथा पुष्प र अश्लेषा विशेप- गुलाब से इसमें थोडा ही अतर जान पता है। रंगरेज नक्षत्र हैं। ३६० अक के १२ विभाग करने से एक एक राशि लोग जिन वस्तुओं से अब्बासी रग बनाते हैं. उन्हीं में इसे भी मोटे हिसाब से ३०° की मानी जाती है। कुर्क पृष्टोदय बनाते हैं, अर्थात् ४ छटाँक शहाव के फूल, ३ छक अ[म की राशि हैं। खटाई और •६ माशे नीले । । ३ काकडासगी । ४ अग्नि । ५ दर्पण । ६ घडा । ७ कात्याकरौंदी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० फौंदा का स्त्री० दे० 'कौंदिया । उ० धन और सूत्र के एक मष्यिकार । ८ मफेद घोह (को॰) । उत्फुल्ल कदी कुज वायु रह रहकर, करती थीं सबको पुलक ६ एक प्रकार का रत्न (को॰) । पूर्ण मह मह कर ।-साकेत, पृ० २२७ । कर्क-वि० १ सफेद । सुदर। अच्छा (को०] । कराँत'- सझा पुं० [सं० करपत्र! श्री० फरौती] लकड़ी चीरने का कके---वि० [प्रा० कक्कर कठोर ! कठिन । परुप । उ०—फट | श्रीजार । यार।। | वीर बीर सुवीर सुघट्ट । मनो कर्क करवत्त विहत कळठ -- |., पृ० रा०, २५१४४६ । करौत-सज्ञा धी० [हिं० करना] रखेली। कर्कचिभैंटी--सच्चा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ककडी [को०)। करौता–सङ्ग्य पुं० [हिं० करीत] ३० करोत' । कर्कट---सा पुं० [सं०] [स्त्री॰ फर्फटी, कर्कटी] १ कैक:।। २ कर्क करोता'-सज्ञा पुं० [हिं० कारा, काला] करल मिट्टी ! राशि । ३. एक प्रकार का सारस । केरकर । फरकरिया। रति-सुज्ञा पुं० [हिं० फुरवा] कोच का बड़ा बरतन । करावा । ४. लोकी । घी । ५ कमल की मोटी जड । भसीड । | व शीशी ! तराज़ की डही का मुडा हुआ सिरा जिसमे पलड़े की रस्सी करोती-सच्चा स्त्री॰ [हिं० करौतालकदी चीरने का मजार । प्रारी। बँधी रइत है । ७ सँड़सा । ६ वृत्त की त्रिज्या । ६ नृत्य में करतीसच्चा स्त्री० [हिं० करवा] १ घीशे का छोटा वरतन । तेरह प्रकार के हस्तकों में से एक । करावा । ---(क) जाही सो लगत नैन, ताही खगत वैन, विशेष-दोनों हाथ की उँगलियाँ धारे भीतर मिलाकर कलकाते नख सिख लीं सब गात ग्रसति । ज'के रंग राचे हरि सोई है | हैं। यह क्रिया आलस्य या शख वजाने का भाव दिखाने के अंतर सुग, काँच की क़ौती के जल ज्यौं लसति - सुर | लिये की जाती है । (शब्द०) । (ख) वे अति चतुर प्रवीन कहा कहाँ जिन पठई कर्कटक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०]१. केकड । कर्क राशि । ३. वृत्ता 1 ४. एक तौ को बहरावन । सूरदास प्रभु जिय । होनी की जानति | प्रकार की ईख । ५ अँकु । ६ हुक (को॰] । काँच करीती में जल जैसे ऐसे तु लागी प्रगटावन ।—सूर ककंटकी--सज्ञा स्त्री० [सं०] मादा केकडr [को॰) । (शब्द०)। २, काँच की भट्ठी । ककैटऋगी--सुज्ञा क्षी० [सं० कटङ्गी ] काकड़ासीगी । ।