पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३०७

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करौरी ८२३ करुणाकर करीरा-सा खौ• [सं०] १. झींगुर या पतगी। २. हाथी की नूड़ का फुर वात वनाई । ते प्रिय तुमहिं करुइ मैं माई - लस। प्रारभिक माग । झुंडमूल [को०] 1 (शब्द॰) । करीरिका-सा औ० [सं०] हाथी की सूड को प्रारभिक भाग ! करुग्रा--वि० [हिं० काला] काली । श्यामवर्ण का । शुरुमूल ]ि । काइ--वि० [हिं० करुमा] दे॰ 'कन्या"। उ०—विनु बुझे करीरी-मृद्मा [] दे० 'करीरिका' । | काई अस लगिहै वचन हमार। जव # तव मीठे हो कहैं। करीरु, करीफ-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झींगुर या पतंगा । २. हायी कवीर पुकार !--कवीर सा०, पृ० ३६५। । का शुडमूल किये । । करुअाई@---मुझ स्त्री० [हिं० करुमा+ई (प्रत्य॰)] कृड अापन । करील- सच्चा पुं० [सं० करी]ऊसर और केंवरीली भूमि में होनेवाली उ०—(क) सूर, सुजान, सपूत सुलक्षणे नियत गुन गाई । एक केंटीली झाडौ । उ०—(क) केतिक ये कलधौत के धाम | विनु हरिभजन इनारुन के फल तजत नहीं कमाई ।-नुलसी करील के कुजन पर वारो |–रसखान (शब्द॰) । (ख) ग्र०, पृ० ५४६ । (ख) घूमउ तर्ज सहज करुअाई । अगर प्रसग दोप बसंत को दीजै कहा उलही न करील की डारन पाती। सुगध वसाई !—तुलसी (शब्द॰) । --पद्माकर (शब्द०)। | करुझाना---क्रि० अ० [हिं० करो से नाम०] १ का लगना। विशेप-इस झाड़ी में पत्तियां नहीं होतीं, केवल गहरे हरे रंग २ अप्रिय लगना !३ गड़ना । दुखना। की पतली पतली बहुत सी डंठले फूटती हैं। राजपुताने और | कई–वि० [सं० कटुक, प्रा० कडुग्रा] कडवी। कई । उ०— व्रज में करील बहुत होते हैं। फागुन चैत मै इसमें गुलाबी पहिले करुई सोइ अर्व मीठी ।—जायसी ग्र०, पृ० ११७। रग के फूल लगते हैं। फूलों के झड जाने पर गोल गोल फल लगते हैं जिन्हें हेटो या कुचडा कहते हैं। ये स्वाद में कसैले केरुखी-- क्रि० वि० [हिं० कनखी] कनखी। तिरछी नजर 1 उ०---- होते हैं और इनका अचार पड़ता है। करील के हीर की सूरदास प्रमु प्रिय मिली, नैन प्राण सुख भयो चितए करुखियनि लकडी बहुत मजबूत होती है और इससे कई तरह के हलके अनकनि दिए —सूर (शब्द॰) । अनाव वैनते हैं। रेशै से रस्सिय वटी जाती हैं और जाल करुण' -सज्ञा पु० [सं०]१. वह मनोविकार या दु:ख जो दूसरो के दुख बुनै जाते हैं । वैद्यक में कचड़ा गर्म, स्वा, पसीना लानेवाला. के ज्ञान से उत्पन्न होता है और दूसरे के दु ख को दूर करने की कफ, श्वास, वात, शूल, सूजन, खुजली और अवि को दूर प्रेरणा करता है। दया । २. वह दु:ख जो अपने प्रिय बघु या करने वाला माना गया है। इप्ट मित्र आदि के वियोग से उत्पन्न होता है। शोक। करोश, करीश्वर-संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों में श्रेष्ठ । गजराज । विशेष-यह-काव्य के नव रसों में से है। इसका अलंबन वधु करीपंकपा- सच्चा स्त्री॰ [करीयडूषा] ग्रोधी [को०) । या इष्ट मित्र का वियोग, उद्दीपन मृतक का दाह या वियुक्त करीप-संज्ञा पुं॰ [सं०] सूखा गोवर जो जंगलों में मिलता है और पुरुप की किसी वस्तु का दर्शन या उसका दर्शन, श्रवण आदि जलाने के काम आता हैं। वनकंडा ! अरना कडा जगली तया अनुभाव भाग्य की निंदा, ठंढी साँस निकलना, रोना कडा । बन उपला ! ३०-कछु है अव तो कह लाज हिये । पीटना आदि है । करुण रस के अधिष्ठाता बरुण माने ।' कहि कौन विचार हय्यार लिये । अव जाइ कप की मागि गए हैं। | परो । गरु वििध के सागर बुढ़ि मरो !- केशव (शब्द०)। ३ एक बुद्ध का नाम । ४. परमेश्वर। ५ कालिका पुराण के करोपिणी--संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी [को०] ।। अनुसार एक तीर्थ का नाम । ६. करना नीबू का पेड़ ।। करीस - सज्ञा पुं० [सं० करी] ३० करीश' । करुण-वि० कदणायुक्त । दयाई । करोसा-वि० [देश॰] चूर्ण करनेवाला । कुचलनेवाला । उ०- करुणमल्लो संज्ञा स्त्री० [सं०] मल्लिका (चै । सुका दुरग भगवान सरीसा, रिणमल जोघा दुयण करीसां। करुणविप्रर्लभ–सम्रा पुं० [सं० करुणविप्नलम्भ]वियोग शृगार [ये । –० रू०, पृ० ३२९ ! करुणा---प्रज्ञा पी० [सं०] वह मनोविकार या दुवे जो दूसरों के करु'-संज्ञा पुं० [देश॰] दारचीनी की तरह का एक पेड जो दु:ख के ज्ञान से उत्पन्न होता है और जो दूसरों के दु ख को | दक्षिण के उत्तरी कनाड़ा नामक स्थान में होता है । विशेष—इसकी सुगधित छाल और पत्तियों से एक प्रकार का तेल निकाला जाता है जो सिर के दर्द आदि में लगाया जाता हैं। इसका फल दार चीनी के फल से बड़ा होता है और कानी नागकेसर के नाम से बिकता है। रु -वि० [सं० कटक (बी० कई] १. कडे, सुरु- सुनतहि लागत इमैं और इमि ज्यो करुई -सा (शब्द॰) । ३. पश्मि । उ०—कहि