पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२९८

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करभौरु ६१२ करमाला' करभोरु--वि० जिसकी जाँघ हाथो की सू-ड की सी मोटी हो । करमचद}-सज्ञा पुं० [स० कर्म +हि० चद) कर्म । उ०—बाँस जिसकी जाँघ सूदर हो । सुदर जाँघवाली। पुरान साज सब अटखट मुरन तिकोन खटोला रे । महि करम'-- सुज्ञा पुं० [सं० कर्म] १ कर्म । काम । करनी।। दिहुल करि कुटिल करमचद मद मोल विनु होला रे । यौ०-करमभोग = अपने कर्मों का फल । वह दुःख जो अपने तुलसी (शब्द॰) । किए हुए कमों के कारण हो । करम धरम = प्रचार व्यवहार । करमज - वि० [सं० कर्मज अयवा हि० करम + क = (का)] दे० उ०—जिसे अपने करम धरम की बातें कम मालूम थी --- 'कमंज' । उ०—-संत धरण कर अस परतापा । मेढे दोष दुख किन्नर०, पृ० १८ । करमज दापा |--कवीर सी॰, पृ॰ ४१० } मुहा०-करम भोगना = अपने किए का फल पाना । करमट्टा - वि० [पुं० कर+हि० भट्ठा सुस्त या आलमी] कृपण । | २३ कर्म का फल । भाग्य । किस्मत । सूम । कजूस ! मुहा०—करम फुटनी= भाग्य मद होना । भाग्य बुरी होना । करमठ -वि० [कर्मठ] १ कर्म निष्ठ। २ कर्मकाडी। उ०किस्मत खोटी होना। फरम देढ़ा या तिरछा होना = ३• 'करम करमठ कठमलिया कहै, ज्ञानी ज्ञान विहीन । तुलसी त्रिपय फूटना ।' उ०—पालागौं छाडौ अब अचल वार बार अचल विहाइ गो, राम दुआरे दीत |---तुलसी (शब्द॰) । करों तेरी । तिरछे करम भयो पूरव को प्रीतम मयो पोय की करमता - संज्ञा स्त्री० [सं० कर्म +ता (प्रत्य॰)] दे० 'कर्म' । उ०—वेरी —सूर (शब्द०)। । सकल करमता लाभ यह जीव जड़यता महि ।--रज्जव०, यौ॰—करने का घनी या वलो =(१)जिसका भाग्य प्रवल हो। भाग्यवान । (२)प्रभागा । बदकिस्मत–(व्यग) । करमरेख = कमफरमा-वि० [अ० करम +फा० फमf} दयालु । मेहरबान । भाग्य का लिखा । वह बात जो किस्मत मे लिखी हो । करमरत –वि० [सं० कर्म + रत कर्मठ । कर्मलीन उ०--विरत, करम--सज्ञा पुं० [अ०] १ मिहरबानी । कृपा । उ०—कर में उनका करमरत, भगत, मुनि, सिद्ध ऊँच अरु नीचु ।—तुलसी ग्र०, मदद जब ते न होवे । वली हरगिज विलायत कुन पावे । पृ० १०२ । । दक्खिनी०, पृ० ११४ । २ मुर नाम का गोंद या पश्चिमी करमरिया-वि० [पुर्त० फलमरिया] समुद्र में हवा के गिर जाने से गुग्गुल जो अरव और अफ्रिका से आता है। इसे 'वदा करम लहरो का शात हो जाना। भी कहते हैं । करमरी-सज्ञा पुं० [स० करमरिन] आजीवन काराव स के लिये दडित करम-- मझा पुं० [देश॰] एक बहुत ऊँचा पेड जो तर जगहों में, वदी (को०)। विशेषकर जमुना के पूर्व की ओर, हिमालय पर ३००० फुट की करम रेख–सज्ञा स्त्री॰ [स० कर्म+लेख] दे॰ 'कर्मरेख' । उ०——हैं। ऊँचाई तक पाया जाता है। करमरेख मूठियो मे ही । बेहतरी बाँह के सहारे है-चुभते, विशेप---इसकी सफेद और खुरदरी छाल अघि इच के लगभग पृ० १० । मोटी होती है, जिसके भीतर से पीले रंग की मजबूत लकडी करमर्द, कुरमर्दक---सज्ञा पुं०[सं०]१ कराम्ल । अविला । ३ करौंदा। निकलती है । इस लकडी का वज़न प्रति घन फुट १८ से | करमसेंक—संज्ञा पुं० [हिं० कर्म + सेंकना १ पंचो का हुक्का । २५ सेर तक होता है । यह लकड़ी इमारतों में लगती है। विरादरी का हुक्का । २. कम घी में पके हुए कड़े पराठे जो और मेज, अलमारी आदि असवाव बनाने के काम में आती कठिनता से खाए जायें । है। इस पेड़ को हेलदू वा हृदू भी कहते हैं। करमहीन–वि० [सं० फर्म+होन] दे० 'कर्महीन' । उ०—-सकल करमई -- सज्ञा स्त्री० [वश] कचनार की जाति का एक झाड़ी पदारथ हैं जग माहीं । करमहीन नर पावत नाहीं । दार पेड़ । तुलसी (शब्द॰) । विशेप---यह दक्षिण मलावार अादि प्राती में होता है । टियालय करमा'- सञ्चो भौ० [सं० कर्मा] एक भतिन का नाम । की तराई मै गगा से लेकर आसाम तथा बंगाल और वरमा में । विशेष—इसका मदिर जगन्नाथ जी मे वना है । इसकी खिचड़ी मी यह पाया जाता है । ववई में इसकी चरपरी पत्तियाँ खाई । जगन्नाथ जी को भोग लगती है। जाती हैं। अन्य जगह भी इसकी कोपलो का साग बनता है। करमा--सज्ञा पुं० [हिं० कैमा] दे॰ 'कैमा' । करमकल्ला ----संज्ञा पुं० [अ० करम+हिं० कल्ला] एक प्रकार की करमा—सच्ची पु[देश॰] को 7-भीलों के नृत्य एव गान की एक शला। गोभी जिसमे केवल कोमल कोमल पत्तो का बँधा हुआ संपुट करमात - सच्चा पुं० [सं० फर्म] कर्म । भाग्य । किस्मत। नसीब ! होता है। इन पत्तो की तरकारी होती है । वैवी गोभी। उ०-सुनु सजनी मेरी एक बात । तुम तो अति ही करति वडाई पागोभी। वदगोभी । मन मेरो सरमात । मोसो हँसति स्याम तुम एकै यह सुनि के विशेष—यह जाड़े में फूलगोभी के थोड़ा पीछे माघ फागुन में भरमात । एक अग को पार न पावति चकित होइ मरमाते । वह होता है । चैत मे पत स्तुल जाते हैं और उनके बीच से एक मूरति हैं नैन हमारे लिखा नही करमात !-—सूर (शब्द॰) । इठल निकलता है जिसमें सरसों की तरह के फूल अरि पत्तियां के रमाल-सज्ञा पुं० [सं०] ६अ [को०)। लगती हैं। फलियो के भीतर राई के से दाने या वीज कुरमाली'—सा वीसि०]उ गलियो के पौर जिनपर उगली रख कर निकलते हैं। माला के अभाव में जप की गिनती करते हैं।