पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२९२

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कहि कम-संज्ञा पुं० [सं०] १ पति । २ कर वसूल करनेवाला [को०)। । उ०—-ससार में किसी करजेदार को करज उतारने की करघा---संज्ञा पु० [फा० कारगाह] दे॰ 'करगह। सामर्थ्य नहीं होती तो वो साहूकार की दृष्टि बचाकर परदेश करचग--संज्ञा पुं० [हिं० कर च] ताल देने की एक वाजा । एक जाने का विचार करता है }--श्रीनिवास में ०, १० १४३।। प्रकार की इफ या वडी खेजरी जिसपर लावतीवाज प्राय ठेका करजोडी---सज्ञा स्त्री० [सं० करज्योडि] एक प्रकार की प्रोधि जो देते हैं। पारी बाँधने के काम में आती है । हस्तजोडी । हस्थजी । करचq---क्रि० वि० [फा० किचं कड़े टुकड़े । खह खः । उ०—(क) वि० दे० 'हत्था जडी' ।। करच करच दुटि फुटि गयौ ऐसे। हर र हत्यो त्रिपुर रिपु करज्योडि–सझा पु० [सं०] एक वृक्ष का नाम । करजोडी [को॰] । जैसे ---नंद० ग्र ०, पृ० २४२ । (ख) करच करच ह्व’ गयौ करदसच्चा पु० [सं०] १. कोअ । चु०-कट कुठाव करा रहि। लिलार। मुख धली रुधिर की धार ।-नद० ग्र०, पृ० २६८ । फेकर हि फेर कुभाँति । नीच निसाचर मीच वस, अनी मोह करछा--सज्ञा पुं॰ [स० कर/र] [स्त्री० करछी] वडी करछी । मदमोति ।--तुलसी(शब्द०)। २. हाथी की कनपटी। हाथी करछा--सज्ञा पुं० [हिं० करौंछा = काला एक प्रकार की चिडिया । का गडस्थल । ३. कुसुम का पौधा । ४ एकादशाहादि श्राद्ध । *० *करछिया' ।। ५ दुदु रूढ । नास्तिक । ६. क्षुद्र या तुच्छ मनुष्य (को०)। ७, एक प्रकार का बाजा (को०) १६ अधम ब्राह्मण (को०)। करछाल-सच्चा श्री० [हिं० कर+ उछाल उछाल । छलाँग । कुलाँग । करटक--- सच्चा पुं० [सं०] १. कोअर । २ करथ जिन्होने चोरी की चौकडी 1 कुदान । कुलच । फलोग। करछिया-- सज्ञा स्त्री० [हिं० कछा+ काला पानी के किनारे कला और उसके शास्त्र का प्रवर्तन किया । करटा--सच्चा स्त्री० [सं०] १. कठिनाई से दुही जानेवाली गाय । २ रहनेवाली एक पहाडी विडियो । हाथी का गंडस्थल (को॰) । विशेप---यह हिमालय पर काश्मीर, नेपाल आदि प्रदेश में होती। करटी-- सच्चा पु० [सं० करटिन] हाथी । उ०—मधुकर कुल करदीनि हैं । जाड़े के दिनों में यह मैदानों में भी उतर माती है और के कपोल नि ते उछि उड़ि पियत्त प्रमुख उद्धपति मैं --पतिपानी के किनारे दिखाई पड़ती है। यह पानी में तैरती और राम (शब्द॰) । गोता लगाती हैं। इसके पजों में अघी ही दूर तक झिल्ली | कर- सज्ञा पुं० [सं०] सारस पक्षी । करकटिया को । । रहती है जिमसे वस्तु को पकड़ भी सकती हैं । इसकी करड करङ-संज्ञा पुं० [अनु०] १ किसी वस्तु के बार बार टूटने या शिकार किया जाता है, पर इसकी मास अच्छा नहीं होता। चिटकने का शब्द । २, दाँतो के नीचे पडकर वार धार टूटने करछी---सज्ञा स्त्री॰ [हिं०] दे० 'कलछी’ ! का शब्द । जैसे,--कुत्ता करड करइ करके हृड्डी चबा केरछल--संज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'कलछी' ।। रहा है। करछला--सुन्न पुं० १. ३ 'कलछी' । २ भदभूज की बडी कलछी करडा--वि० [हिं० करी, कड़ा] ३० कडा' । उ०—-(क) दूजी का जिसमें हाथ डेढ़ हाथ लबा लकड़ी का वैट लगा रहता है और दिस ताकें नही, पई जो कुरा काम ---दरिया० बानी, | जिसमें चरवन भुनते समय उसमें गरम वालू डालते हैं। पृ० १२ । । करछुलो-सा सी० [हिं० करछुल] दे० 'कलछी'। करण-सज्ञा पुं० [सं०] १ व्याकरण में वह कारक जिसके द्वारा कृरमां -वि० [हिं० काली+छाया] श्यामवर्णा 1 काले रंग की कतई क्रिया को सिद्ध करता हैं। जैसे--छह से साँप मारो । भाभा लिए हुए । इस उदाहरण में 'छडी’ ‘मारने का साधक है, अत उसमे करछौहा –वि० [हिं० फरछा+ हा (प्रत्य॰)] दे० 'कुलझेब' । करण का चिह्न 'स' लगाया गया है। २.• हथियार । औजार । श्यामाम । काली अभावाला। थोड़ा साँवले रगवाला । ३. इद्रिय । उ०—विपय करने सुर जीव समेता । सकल एक ३०-~-दमक रही उजियारों छाती, करौंहे पर। इयाम घनो से एक सचेत ।--तुलसी (शब्द॰) । ४ देहू । ५ क्रिया । से झलक रही विजली क्षण क्षण पर --म्या, पृ० ७४ । कार्य । उ०—कारण करण दयालु दयानिधि निज भय दीन करज'--: स पु० [सं०] १ नख। नाखून । २. उँगली । उ०— हरे --सूर (शब्द) । ६. स्थान । ७ हेतु । ८, असाधारण (१) सिय प्रदेश शानि सूरज प्रभु लियो करज' की कोर । कारण । ६. ज्योचिप में तिथियों का एक विभाग । टूटत धनु नृप लुके जहां तहँ ज्यो तारागन मोर -: सूर । विशेष--एक एक हि थि में दो दो करण होते हैं । करण ग्यारह (शब्द) । (ख) करज मुद्रिका, कर ककन छवि, कटि कि कन, हैं जिनके नाम ये हैं--ववे, वालव, कौलव, तैतिल, गर, नपुर पग भ्राजत । नख सिख काति विलोकि सखी री शशि बणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, किंतुघ्न और नाग । इनके अरु भानु मृगन तनु लाजत ।---सुर (शब्द०)। ३ नख नामक देवता यथाक्रम ये हैं--- इद्र, कमलज, मित्र, अर्यमा, भू, श्री, यम, सुगधित द्रव्य । ४. करज । क ज । कलि, वृष, फणी, भारत ! शुक्ल प्रतिपदा के शेयाधं से कृष्ण करज-सद्या पुं० [अ० केज ! ६० 'कर्ज' । उ०—-लैन न देन दुकान चतुर्दशी के प्रथमाघे तक वेव अादि प्रयम' सात कारणों न जागा । टोट। करज ताहि कस, लागा ।—घट०, की आठ प्रवृत्तियाँ होती हैं । फिर कृष्ण चतुर्दशी के शेषार्ष पु० २७५ । से शुक्ल प्रतिपदा के प्रथमाधं तक शेष चार करण होते हैं। प द -4.-R० म० क + फा= दार (प्रत्य॰)] ६० 'कजंदार' । १० नृत्य में हाथ हिलाकर मत बताने की क्रिया ।