पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२९

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उच्चारण यौ०३ -उच्चाशय । उच्चकुल । उच्चकोटि । उच्चपद । उच्चयापचय-सज्ञा पुं० [सं०] उत्थान और पतन [को॰] । विशेप---ज्योतिष में मैप का सूर्य उच्च (दश अशो के भीतर उच्चरण---सज्ञा पुं० [सं०] [ वि० उच्चरणीय, उच्चरित] १ कठ, पर म उच्च ) वृप का चद्रमा उच्च ( ६ अगों के भीतर परम् तालु, जिह्वा अादि के प्रयत्न से शब्द निकलना । मुह से उच्च ), मुकर का मगल उच्च ( २८ अंशों के भीतर परम शब्द फूटना। ३ ऊपर या वाहुर अाना (को०) । उच्च ), कन्या का वुव उच्च ( १५ अशो के भीतर परम् उच्चरना -क्रि० स० [ सु० उच्चरण ] उच्चारण करना । उच्च ), केके का बृहस्पति उच्च ( ५ अशी के भीतर परम बोलना । उ०—-वेदमत्र मुनिवर उच्चरहीं। जय जय जय सकर उच्च ), मीन का शुक्र उच्च (२७ अंशों के भीतर परम सुर करही ।—मानस, १५१०१ । उच्च ), मुत्रों का शनि उच्च ( २७ अशो के भीतर परम उच्चरित-वि० [सं०] १ कथित । कहा हुआ। २ बाहर आया हुआ उच्च ), इसी प्रकार उच्चरानि से सातवीं राशि पर होने से [को०] । वह नीच होता है, जैसे, मैप का सूर्य उच्च और तुला का उच्चरित- संवा पुं० ल । विप्ठा [को॰] । नीच होता है । उच्चल'.-वि० [ स० ] गतिवान ! चलायमान । उ०—-तोता मारू उच्चक----वि० [ से उच्च + क ] उच्चतम । सबसे अधिक ऊँचा । मह गुण, जैता तारा अभ्भ । उच्चलचित्ता साजण, कहि उच्चकित---वि० [ ३० ] दे॰ 'चकित' । क्यउँ दाखउँ सम्म ।—दोला०, दू० ४८७ । उच्चक्षु----वि० [स० उच्चक्षुस] १ ऊपर की और देखनेवाला । २ । उच्चल..- सज्ञा पुं० मन [को०] । अधा । विना अाँख का [] उच्चलन--संज्ञा पु० [सं०] गमन । रवाना होना । जाना (को॰] । उच्चगिर----वि० [सं०] जोर से बोलनेवाली। जिसकी आवाज बुलंद उज्वलित-वि० [सं०] १ जाने के लिये उद्यत । प्रस्थान करनेवाला । हो को०] ! २ गया हुआ। ३ फटका हुशा [को॰] । उच्चधन-सच्चा पु० [सं०] छिी हंसी । वह हॅमी जो चेहरे पर व्यक्त उच्चस्रव-- संज्ञा पुं० [ स० उच्च श्रेवा ] दे० 'उच्चैश्रवा' । उ०—- | न हो ( [को०] ) । मनु उच्चन्नव के वधु, आवर्त चक्र सु कंधु --हम्मीर रा० उच्चटा--संज्ञा स्त्री० ( स० ) १. एक प्रकार की घास । २ घमड़ पृ० १२४ । (को०)। ३ अभ्यास । परपर (को०)। ४. गुजा (को०)। ५. उच्चाट---सज्ञा पुं॰ [सं०] १ उखाडने या नोचने की क्रिया । २. एक प्रकार का लहसुन (को०) । ६ चुडाला (को०) ! ७ भूम्या चित्त का न लगना । अनमनापन । विरक्ति । उदासीनता । मलक' (को०)। ८. नागरमुस्ता । नागरमोथा (को॰) । उच्चाटन- --सज्ञा पुं० [सं०] [ वि० उच्चाटनीय, उच्चाटित ] १. उच्चतम'--वि० [सं०] स्वसे ऊँचा । लगी या सटी हुई चीज को अलग करना। विश्लेषण २. उच्चतम्-संज्ञा पुं० स गीत में एक वनावटी सप्तक जो ‘तार' से भी उचाडना । उम्बाडना । नोचना। ३ किसी के चित्त को कहीं | ऊँचा होता है और केवल वजाने के काम में आता है। से हटाना । तत्र के ६ अभिचारों या प्रयोगों में से एक । उ०- उच्चतर--वि० [म ०] अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा । मारन मोहन उच्चाटन और स्त्र भन इत्यादि सव वन वेदमत्रों उच्चतरु-सा पुं० [सं०] १. ऊँचा या लवा पैड । २. नारियल में है ----कवीर ग्र २, पृ० ३४ । ४ चिन का न लगना । का पैड (को॰) । अन मनापन । विरक्ति । उदासीनता । उच्चता--संज्ञा स्त्री॰ [ न० ] १ ऊँचाई । २ श्रेष्ठता। वडाई। उच्चाटनीय---वि० स०] १ उखाडने योग्य । उचाडने के लायक } वर्डप्पन ! ३ उत्तमता । २. उच्चाटन प्रयोग के योग्य । जिसपर उच्चाटन प्रयोग हो। उच्चताल-वृद्धा पुं० [ स० ] भोज या पान गोष्ठी के अवसर पर | सके । होनेवासा नाच, गाना [को॰] । उच्चाटित-वि० [सं०] १ उखाड हुमा । उचाड हुआ। २ जिसपर उच्चल-संज्ञा पुं० [स०] ३० 'उच्चन' । उ०—और जवे सावन उच्चाटन प्रयोग किया गया हो । लुनविन बरस घाया, उन्हें निज़ उच्च पर जव तरस उज्चनाG --क्रि० स० [हि उचाना] दे॰ 'उचाना' । ३०-दोरि राज आया --हिम० पृ० २ 1 पृथ्वीराज सु अयिौ, पमपमा अष्य उच्चायो ।--पृ० ०,४॥3॥ उच्चन्यायालय-सच्चा पुं० [स०उच्च+न्याया नये : अँ० हाईकोर्ट] उच्चार--सज्ञा पु० [सं०] १ कथन । शब्द मुह से निकालना । राज्य का सर्वोच्च न्यायालय जिसमें उन मुकदमों पर विचार, बोलना । उ०-- सकल सुख देनहार तोते कुरो उच्चार कह्व हाँ वार वार जिनि भुलावो। नद० ग्र०, पृ० ३२८ । होता है, जिनपर जिले का न्यायालय निर्णय दे चुकता है। क्रि० प्र०—करना । होना । , गभीर महत्व के कुछ अन्य मुकदमे भी इममे ले जाए जाते हैं। यौo-=-गोत्रोच्चार । मत्रोच्चार । शाखोंच्चार । उच्चय--सा पुं० [ मृ०] १ सपुज । समूह । ढेर। २. (पुष्पादि) १. मन पुरीप। चनने की क्रिया। ३ नीवीवघ । ४ अभिवृद्धि । अभ्युदय ५, उच्चारक-वि० [ सु० ] उच्चार करनेवाला । कहनेवाला (को॰) । नीवार धान्य । ६, त्रिभुज का उलटा भाग (को०)। उच्चारण-सज्ञा पुं० [सं०] [वि॰ उच्चारणीय, उव्वरित, उच्चार्य, उच्चय -वि० [अ० उच्च ! दे• 'ऊँचा'। उ०—कबहुँ हृदय उमगि उच्चार्यभाण] १ कठ, तालु, गोष्ठ, जिह्वा ग्रादि के प्रयत्न द्वारा बहुत उच्च स्वर गाउँसुद० नं १, भा० १, पृ० २६ । मनुष्यों का व्यक्त और विभक्त ध्वनि निकालना है मुह से स्वर