पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२८

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उच्चे उचुराई उचाई- सज्ञा स्त्री० [हिं० उचर+आई (प्रत्य॰)] १ उच्चारण करने करै उचापति सौदै मलि-अ६०, पृ० २। जो चीज बनिए के यहाँ से उधार ली जाय। वी क्रिया या भाव। २ उच्चारण करने या कुछ बतलाने का पारिश्रमिक । उचार -सी पुं० [सं० उच्चार] कथन । उच्चारण । उ०—मानुस उचलना- क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उचड़ना' ।। देही पाप का, किया न नाम उ वार !-दरिया० वानी, पृ० ८। उचाई- संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ऊचाई' । उ०—-सागर मैं गहिराई, उचारन -सज्ञा पुं० [सं० उच्चारण] दे० 'उच्चारण' । मेरु में उचाई, रनायक मे रूप की निकाई निरधारिए !-- उचैरना'—क्रि० स० [सं० उच्चारण उच्चारण करना । मुह से मति० से ०, पृ० ३७२। शब्द निकालना। बोलना । उ०-पकरि लियो छन माँझ असुर उचाकु -संज्ञा पुं० [हिं० उचाटे या स० उतूचक = भ्राति] उचाट । बल डाघो नखन विदारी । रुधिर पनि करि माल अति धरि उ०----नीदो जाइ, भूखी जाइ, जियहू मे जाइ जाई, उरहू में जय जय शब्द उचारी - सूर (शब्द०) ! अाइ अाइ लागत उचाकु सो ! -गग०, पृ० १३ ।। उचरना-क्रि० स० [सं० उच्चाटन] उखाना । नोचना ! उ०---- उचाट--सज्ञा पुं० [सं० उच्चाट १ मन का न लगना । विरवित । (क) वृक्ष उचारि पेडि सो लीन्ही । मस्तक झार तार मुख उदासीनता । अनमनापन । ३०--(क) न जाने क्यों भाजकल दोन्ही ।—जायसी (शब्द०)। (ख) ऋपी क्रोध करि जटी चित्त उचाट रहता है। (क) सुर स्वारथी मलीन मन, कीन्ह उचारी । सो कृया भइ ज्वाला मारी 1- सूर (शब्द०)। कुमत्र कुठाट। रचि प्रपंच माया प्रवल, भय, भ्रम, अरति उचालना-क्रि० स० [हिं०] दे॰ 'उचाइना' ।। उचाटु ॥ --मानस, २॥ २६४ । (ख) प्रथम कुमति करि कपट उचावा-सझी पुं० [सं० उच्चाबच ] सपने में बकना । वरना । सकेला। सो उचाट सव के सिर मेला ।—तुलसी (शब्द॰) । उचास—सच्चों स्त्री० [हिं० ऊँचा+अस (प्रत्य॰)] उँचाई। ऊंचास (ग) मोहन लला को सुन्यो चलत विदेस भयो मोहनी को उ०—जण अपणाय गया तारण जग चित्रकूट गिर सिखर चारु चित निपट उचाट भै ----मतिराम (शब्द०)। उचास ।--रघु० रू०, पृ० १३० । उचाटन - सज्ञा पुं॰ [ सं० उच्चाटन ] दे॰ 'उच्चाटन'। उ०--- उचित—वि० [सं०] [सच्चा औचित्य १ योग्य । ठीक 1 उपयुक्त । मारन मोहन उचाटन बसिकरन मनहि माहि पछिताई ।--- मुनासिव । वाजिव । ३ पूरपरित (को०)। ३ सामान्य (को०)। कवीर श०, भा० २, पृ० २८ । ४ प्रशंसनीय (को०)। ५ ग्रानदकर (को०)। ६ अनुकूल उचाटना-क्रि० स० [सं० उच्चाटन] उच्चाटन करना। हृटाना। (को०)। ७ ज्ञात (को०) । ६ विश्वसनीय (को०)। ६ ग्राह्य (को०) । १० सुविधाजनक (को०) । ध्यान तोड़ना। विरक्त करना । जैसे----उसने हमारा चित्त यो०—उचितज्ञ = उचित यी विहित का ज्ञाता ।। उचाट दिया ।। उचिष्ट---सज्ञा पुं० [ स० उच्छिष्ट 1 दे० 'उच्छिष्ट' । उ०—(क) उचाटी–सच्चा स्त्री॰ [भ० उच्चाट, हि० उग्वाट+ई (प्रत्य०)] उचाट।। अनेक ग्रंथ तिन वरन वत यौं उचिष्ट मति मैं लहिए --पृ० उदासीनता । अनमन।पन। विरवित । उ०--दामयी लिखमण रा०, १ । १५ । (ख) मृत उचिष्ट वार मन झेना। दुरलभ सुत दशरथ, दोऊ सुणे सिधारे दसरथ । दीहू उचाटी कीधे दीन दुहेला ।—घट०, पृ० २०१ । दशरथ, दीधो प्राण पठाडी दशरथ 11-रघु० रू०, पृ० ११२ । उचडनी–क्रि० स० [हिं०] दे॰ 'उचाइना' । उन्चा--वि० [हिं० उचाट +ऊ (प्रत्य॰)] १ उचाट करनेवाला । उचेरना, उचेलना--क्रि० स० [हिं०] दे॰ 'उकेलन', 'उचाइना' । मन को उदास करनेवाला । २ उदास । अनमना । उ०-देह आप करि मानिया महा अज्ञ मतिमंद । सुदर निकस उचाइना–क्रि० स० [हिं० उचडना] १ लगी या सटी हुई चीज को छीलकै जुबहि उयेरे कद —सुदर० १ ०, भा० २, पृ० ७८॥ अलग करना । नोचना । २ उखाडना । उचाढी-वि० स्त्री० [सं० उच्चटित] उचाट । उदासीन । अनमना । उचैहा —वि० [हिं॰] दे॰ 'उचहा' ।। विरक्त । उ०-- -सूखी सग की निरखत यह छवि 'भई व्याकुल उचहा, उचहा -वि० [हिं० ऊँचा+हा (प्रत्य॰)][ ० मन्मथ को डाढ़ी। सूरदास प्रभु के सबसे सर्द भवन काज ते बँचौंही ] ऊँचा उठा हुआ । उभडा हुआ। उ०---जु कालि भई उचाढी ---सूर०, १०1७३६। दिन वैक ते भई यौर ही भाँति । उरज उचौहँ दै उरू तनु उचान सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'ऊँचान' । तकि तिया अन्हात -पदमाकर (शब्द०)। उचाना --क्रि० स० [हिं०] १ उठाना । उँचाना'। उ०-मोहन । उच्चडे--वि० [स० उतचण्ड] १. *चड । उग्र । २ तेज । तीव्र । ३ अत्यत कुद्ध ! ४ उतावला (को०) ।। मोहनी र ‘मरे । दरकि कचकि, वरकि माला, रहीं घरणी उच्चंद-सूझी पुं० [सं० उच्चन्द्र] रात्रि का अतिम भाग जव चंद्रमा जाइ । सूर प्रभु करि निरखि करुणा तुरत लई उचाइ —सूर नहीं रहता। रात्रिशेप (को०] । (शब्द॰) । २ ऊपर उठाना । ऊँचा करना । उ०--- सुनि यह उच्च-वि० [सं०] १ ऊँचा । २. श्रेष्ठ । वडा। महान। उत्तम । एषाम् विरह मरे । मखिन तब मुज गहि उधाए बावरे कत होत। जैसे,—(क) यहाँ पर उच्च मौर नीच का विचार नही है। मुर प्रभु तुम चतुर मोहन मिलो अपने गोत -सूर (शब्द०)। (ख) उनके विचार बहुत उच्च हैं। ३ तार नाम का सप्तक उचापत, उचापति--सज्ञा पुं० [ देश I १ वनिए का हिसाब जो शेष दोनो सप्तको से ऊँचा होता है (सगीत) । ४ प्रभाव- किंवाव ! उठान 1 लेखा। उ०—मुल दास सौं बहुत कृपाल । शील । ५. उच्चपदासीन (को०)।