पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२७६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

कबिताई ७६० बुदिशा (०), दनुभ!ur |-- कविताई--संज्ञा स्त्री० [हिं० फविता+ई (प्रत्य०)] दे० 'कविताई । भगवत नहि करन कपुनाई। तुरत मापने मुदन विधा: उ०—पढे पुरान गरंथ रात दिन, फर कविताई सोई ।--जग० रघुराज (शब्द०)। बानी॰, पृ॰ ३३ ।। कबुलिस भी० [सं०] किसी जानवर के पिता भाग या कवित्थ---सा पुं० [सं०] ६० 'कपित्य' । कविनाह)---सा पुं० [सं० फविनाय] कविश्रेष्ठ । उ०—-प्रेम कथन कच-fh० ० [f० न> १ भ] २० 'कभी' । ३०--ऐसा मगढ़ में तै जानिए, वरनत सव कविना ---मति० ग्र०, पृ० ३५४ । कवु न पाया । नामदेव ने व ३ ।--fiमनी॰, पृ० १६। कबिराइ- सज्ञा पुं० [सं० कविराज] दे० 'कविराय' ।। कबुतर-- सज्ञा पुं० [फा०, तुलनीय ० कपोत] [१० क्यूतरो] कबिरावां---सज्ञा पुं० [सं० कवि+हि० राय ]६० 'कविराज' । ३०-. | एक प६ ।। उपजत जाहि विलोक के चित्त बीच रस भाव। ताहि वधानत विशेष—गढ़ कई र फा देता है पर इसके प्रकार भी इछ नायका, जे प्रवीन कवि राव |–मति० ग्र०, पृ० २७३। भिन्न भिन्न होते हैं। पैर में तीन ग यो प्रागे मोर एक कविल–वि० [सं०] [रापन लिए पीला (को०)। पीछे होती हैं। यह पपने स्थान को अच्छी तरह पहचानता कविल-सज्ञा पुं० भूरापन लिए पीला रग (०] । है और कभी गलत नहीं । प३ ३ १ चता है। नादा कविली--सच्चा झी० [देश॰] मटर को एक प्ररि । दो अरे दी है। केवल इ ६ समय पहू गुट छ। कवीर-सज्ञा पुं० [अ० अबीर- बडा, अठ] १ एक प्रसिद्ध वैष्णव अस्पष्ट थर गिरता है। पाक तया पर दूतरे पर भक्त का नाम । पर नहीं पोलता । इसे मार भी हैं तो यह मुंह नहीं यौ०--कवीरपथी । पोलता । गिरज, गोला, लोटन, न झा, राजी, बुग्दादी २ एक प्रकार का गीत या पद जो होली में पाया जाता है और इत्यादि इराकी चतुत सी जातिय होती हैं। जिवाले कतर प्राय अश्लील होता है । उ०-अररर कबीर। सब के बाभन् भी होते हैं। गिरदान कबूतरों से लोग कभी कभी चिट्ठी वे रहे पढते वेद पुरान। अब के बाभन अस नये जो लेत भेजने का भी नाम लेते हैं। घाट पर दान | भला हम सच कहूँ में ना कुरवे । । क्रि० प्र०--उड़ाना = 'युती न रन । कवीर- वि० [अ०] श्रेष्ठ । वड़ा 1 जैसे अमीर कबीर । उ०---अत्ला चूतरसाना-सा पुं० [६० फतरसान,] वह स्थान जहाँ पनि है वह कवीर उल् अकवर। याने धुजुर्ग हैं वह बरतर }--- | हुए पहुत से कवनर र जा हैं। फतरों का ३३। दरवा। दक्खिनी०, पृ० ३०३ । कयूत रझाड़--सभा पुं० [हिं० फवूतर+झाउ) पित्तपाप 17 तरह की कवीरपथ-सज्ञा पुं० [हिं० प्रबीर+पथ] कवर फा चलाया सप्रदाय । एक झाड । कवीरपथी--वि० [हिं० कबीर+पयो]कवीर का मतानुयायी। कबीर कबूतरवाज--सा पुं[० फेबूतरबाज]कतर पातने का भी नि । | सुप्रदाय फा । जैसे,—-१ वीरपयी साघु । कबुतरी–सा ही[फा० फेबूतर]१ कबुतर ही मादा । २ नाचनेकवरवड- सज्ञा पुं० [अ० अबीर= वडा+सं० वट = व नर्मदा के वाली । ३. भुदर स्यीं ।---(बाबा) । किनारे भडौंच के पास का एक बड का पेड़ जिसका फैलाव कबूद'–१० [फा०[ नीता। ग्रासमानी । नानी । या घेरा १४००० हाथ है और जिसके नीचे ७००० आदमी कवूद--सा पुं० १. नीला या मनमानी रग । २ सन्नोपन की वडे आराम से टिक सकते हैं। एक भेद जिसे 'नीलकी' भी कहते हैं। कृवील--सा पुं० [अ० बोल] १ मनुष्य। मादमी । २ समूह। कबुदो--० [फा०] नीला । मायमानी। समुदाय । कबूल'---सबा पुं० [अ० कबूत] [सा फवूलियत, ग्यूती स्वीकार। कवीला-संज्ञा स्त्री० [अ० कवीलह.] १ स्त्री । जोरू । २ जाति । | अंगीकार। मंजूर। ३ परिवार। ४ घर। ५. स्वजन । ६ पप ७ क्रि० प्र०--फरना ।—होना । | वर्ग 1 श्रेणी । यौ--कबूलरुख । फवूलसूरत = सुदर। रूपवान । केबीला-संज्ञा पुं० [अ० कवीलह.] १ कुल या वश । २ जाति। फवुल-सपा पुं० [] ताज के ज्योतिष के १६ योगों में से एक । ३. घर ] ४, स्वजन । परिवार । ५ वर्गश्रेणी । ६. जगली कबूलना--क्रि० स० [अ० कबूल से नाम०] स्वीकार करना। या असभ्य जनजातियो का छोटा वडा समूह जिसका कोई सकरना । मजूर करना । एक नायक या सरदार होता हैं । कबूलियत सा पुं० [अ० कबुलियत] वह दस्तावेज जो पट्टा लेने कवीला-सा पुं० [हिं०] ६० ‘कमीला' । याला पट्ट की स्वीकृति में ठेका या पट्टा देनेवाले को लिय दे। स्वीकारपत्र । कबुर—सच्चा स्त्री॰ [अ० ] ३० 'क' । कबुली-सा स्त्री० [फा० कबूली चने की दाल की खिचड़ी कबुलवाना--क्रि० स० [अ० कबूल से नाम०] फवूल करवाना। अथवा पुलाव । स्वीकार करवाना।

-सा पुं० [अ० फुज] १. ग्रहण । पकड़ । अवरोध । काबुलाना--क्रि० स० [अ० कबूल से नाम०] कबूल कराना । उ०- क्रि० प्र०—करना ।—होना ।