पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२७४

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कब ७८८ मुहा०-- फच का कव के, कव से =देर से । विलव से । जैसे,- कवर–स पुं० [सं० कवर] १. व्याख्याता । २ चोटी । ३ अम्ल ।। हम यहाँ कब के बैठे हैं, पर तुम्हारा पता नही । (जब क्रिया एकवचन हो तो कब का और जब वहुवचन हो तो 'कद के कवर--सा स्त्री० [अ० कत्र] दे॰ 'क' । का प्रयोग होता है)। कच कच = कमी कमी। वहृत कम । कवर –अवय [हिं० कय] कब तक । किस समय । उ०•–कव' कब मंगरू बोवे धान । सूखा छाला हे भगवान । कवरेस्तान--सा पुं० [अ० कव+फी० स्तान] १० 'कविस्तान'। ---(शब्द॰) । कब ऐसा हो, कब ऐसा करे = ज्योही ऐसा हो कवर'--वि० [सं० फवर, प्रा० फरवर] [धी० बरी] १ सफेद रग त्योही ऐसा करे। जैसे,—वह तो इसी ताक में हैं कि कई बाप पर कान, नाल, पील प्रादि दागवाल । जिसके शरीर का रग मरे, कम मालिक हो । कव नहीं = वरावर । सदा । जैसे,— दोरगा हो । चितला। उ०—कलुमा केरा मोतिषा झवर हमने तुम्हारी बात कब नहीं मानी। बुचवा मोहि देपावै ।—मुलुक०, पृ० २५। २ कल्माए । २ कदापि नही । नहीं । जैसे,—वह हमारी बात कब मानेंगे ? शब्बला 1 अन क ! (अर्थात् नहीं मानेंगे)। विशेप-इम रग के लिये यह आवश्यक है कि या तो सफेद रेप महा०--कब का = कभी नही । नही । जैसे,—वह कब का देने | पर काले, पीले, लाल अादि दाग हो या काले पीले, लाल अादि वाला है ? ( अयति नहीं देनेवाला है।) रगों पर मफेद दाग हों। कव --सझा पु० [सं० कवि] दे॰ 'कवि' । उ०—गुण गज वंध । यौ---चितकबरा । | तुणा कव गावे ।-रा० रू०, पृ० १६ ।। कुवरा--संज्ञा पुं० [हिं० फौर) करील की जाति की एक प्रक रे कबुक--सज्ञा [फा०] चकोर । को फैलनेवाली झाड़ी जो उतर भारत में अधिकता से पाई जाती है कौर । कवज -सज्ञा पुं० [अ० केजह] दे॰ 'कब्जा' । उ० --कापा के पज विशेप---इसके फल खाए जाते हैं और उनसे एक प्रकार को कमान करि, सार सृवद करि वीर -दादू०, पृ० ३८० । तेल निकाला जाता है। इसकी व्यवहार पधि के रूप (ख) जालिम मिले इजरयाले कबज करे जो जाना।--कबीर | में भी होता है। सा०, पृ० ८८८ । कवरिस्तान--स। पुं० [अ० कत्र +फा० स्तान] दे० 'कब्रिस्तान' ।। कबड्ड़ी---सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] १ लडको के एक खेल का नाम । विशेप----इसमे लडके दो दलो में होकर मैदान में मिट्टी का एक कवरी--सा स्त्री० [सं०] चोटी । डा। उ०—हाँ बुझ्यो कवन ढह बनाते हैं जिसे पाला या डाँटमेड कहते हैं । फिर एक दल सो क्यो कारी दरसाइ । कही जु यि सन मुख रहै. सो कारो ह्व जाप स० सप्तक, पृ० २८३ । पाले के एक शोर और दूसरा दूसरी ओर हो जाता है। एक कबरीमणि-सग स्त्री० [सं०] १ सिर का ग्राभूषण । चूडामणि । लडका एक अोर से दूसरी ओर 'कबड्डी कबड्डी' कहता हु मा २ सर्वश्रेष्ठ । उ०—प्रेम पगे चयि चार फल, कौशल्या के जाता है और दूसरे दल के लड़को को छूने की चेष्टा करता है। लाल । भक्तन की कवरोमणी शबरी करी कृपाल ।—राम यदि वह लडका किसी दूसरे दल के लड़के को छूकर पाले के धर्म०, पृ० २६१ । इसे पार विना साँस तोड़े चला आता है, तो दूसरे पक्ष के वे कवल-क्रि० वि० [अ० फल] पहले । पूर्व में। पेश्वर। जैसे,-- लड़के जिन जिनको इसने छुआ था, मर जाते हैं । अर्थात् मैं अपके पहुंचने के कबल ही वहाँ से चला जाऊँगा । खेल से अलग हो जाते हैं। यदि इसे दूसरे दल के लड़के पकड कवलुसिया पुं० [स० कमल] दे॰ 'कमल' । ३०-उलटे कवतु लें और उसकी साँस उनके हद्द मे ही टूट जाये तो उलटा वह | पवाले काया ।--प्राण०, पृ० ७८ । मर जाता है । फिर दूसरे दल से एक लडका पहले दल की ओर केवहु ----क्रिवि० [हिं० कव+हैं]कभी । किनी समय । उ०—कबहे ‘कबड्डी कबड्डी' करता जाता है। यह तब तक होता रहता है। नयन मय सीतल ताता। होइहि निरखि स्याम मृदुगतिर । जबतक किसी दल के सव खिलाडी शेष नही हो जाते। मरे —मानस, ५। हुए है के तबतक खेल से अलग रहते हैं जबतक उनके दल कबहु क–क्रि० वि० [हिं० कब + क (प्रत्य०)] कभी । किसी का कोई लडका विपक्षी के दल के लड़को में से किसी को न समय । उ०—सहज वानि सेवक सुखदायक । कवतुक सुरति मार डाले । इसे वे जीना कहते हैं। यह जीना भी उसी क्रम । करत रघुनाथ --भान से ।। से होता है जिस क्रम से वे मरे थे । कवण-सज्ञा स्त्री॰ [फा० कमान] ३ 'कमान' । उ०—-सज्जण क्रि० प्र०-खेलना। चाल्या हे सखी, दिस पोगल दोडे । साधण लाल कणि मुहा०—कबड्डी खेलना = कूदना। फाँदना । कबड्डी खेलते ज्यें, कभी कूड मोडेइ ।--ढोला०, ६० ८३।। फिरना=बेकाम फिरना । इधर उधर घूमना । कबा–सज्ञा पुं० [१० फवा] एक प्रकार का पहनावा जो घुटनों के २ कोपा । कपा। नीचे तक लंबा और कुछ कुछ ढीला होता है। यह मागे से केवडिया--सज्ञा पुं० [हिं०। कबाड़ |कमदिन] अवध की एक खुला होता है और इसकी आस्तीन ढीली होती है। उ०-~-- मुसलमान जाति का नाम जो तरकारी बोती और वेचती हैं । खोल कर वदेकवा का मुल्के दिल गारित किया ।-कविता कबर'--वि० [सं० कबु र मिश्रित रगवाला । चितकबरा । कौ॰, भा॰ ४, पृ० ४७ ।