पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२७२

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कंपोलकल्पना ७६६ कफनल्लसोटी कपोलकल्पना संज्ञा स्त्री० [सं०] मनगढत । वनावटी वात् । गप्प । । "टुकड़ा जिससे ठोककर चमक से अग काढते या निहारते हैं। क्रि० प्र०-- करना।—होना । नाल । ३०-फाया कफ, चकमक झारौं वारवार । तीन बार कपोलकल्पित--वि० [सं०] वनावटी । मनगढत। झूठ । । । धूम्रो भया, चौथे परा अँगार |--कवीर(शब्द॰) । २ झाग । कपोल पालि, कपोलपोली-- संज्ञा स्त्री० [सं०] कंपोलदेश । कपोल फेन । स्थान । कपोलभित्ति । गडस्थल । उ०—! कोमल कपोलपाली कफ-सझा धी० [सं०] हुयेली । पजा । { ‘में सीधी सादी स्मितरेखा, जानेगा वही कुटिलता जिसने भौं कफकर-वि० [सं०] कफ उत्पन्न करनेवाला (कौ] । | मे बल देखा ।--ग्रीस, पृ० २२ । । । कफकीरक- वि० [सं०] दे॰ 'कफर' (को०)। कुपोलराग--संज्ञा पु० [सं०] गालो पर की लाली [को॰] ।। कफफूचिका–ना खौ० [सं०] यूक । लार को०] । कृपौला--संज्ञा पुं० [देश॰] वैश्यो को एक जाति । कफाय--सी पुं० [२] यक्ष्मा । तपेदिक [वै] । कप्तान--सा' पुं० [अ० कैप्टेन] १ जहाज या सेना का एक कफुगड-- संज्ञा पुं० [सं० फफगण्ड] गले का एक रोग मे०] । अफसर । २ दल का नामक । अघिपति । जैसे,—क्रिकेट की कफीर-सज्ञा पुं० [फा० फफगर] वैली की तरहू की लवी इडि कप्तान । । की कड़छी जिससे दाल, घी अादि का झाग निकालते हैं। कप्पq---सज्ञा पुं० [सं० फपि] दे॰ 'कपि कफगुल्म-खुश पुं० [सं०]पैट का एक रोग जिसमे उदर में गांठ पड कप्पड़-संज्ञा पुं० [सं०' कर्पट] दे० 'कप्पर' । उ०—चो वेरने जाती है (ये०] । !! कपड़े सार्वर घण प्राणोह --दोन०, १० १३९ । कफघ्न--वि० [सं०] कफविनाशक (क) । कप्पना- क्रि० स० [सं० कल्पन : प्रा० कपण) दे० 'काटना' । कफचा-सा पुं० [फा० फफचह.] छोटा कफगर ! चमचा। उ०—कहि मुदर अपना बधनु कप्पे' सोई घनु खोले ।-सुदर कफज्वर--सी पु० [सं०] कफ की वृद्धि या सचय से उत्पन्न । ' ' ग्र, भा० १, पृ० २७५ ।' | होनेवांना ज्वर (को॰) । कप्पर - संज्ञा पुं० [९० कर्पट] कपडा । वस्त्र । उ०—कर सग कफणि--सा पी० [सं०] कुनी (०)। • खप्पर विगत करः । पुलुमि उप्र नचत हैं। बेताल भून कफदार--- सुश पु० [अ० फफ + फ० वार] कड़ाहट के लिये काई में । पिशाच वैती पनी गहि महि रचते हैं ।--रघुराज (शब्द०)। जहाँ भी कफ डावा जाय । कप्परियq----संज्ञा पु०म० कापटिक] खप्परधारी । भिक्षक । उ०-- कफन-मश पुं० [अ० कफन] वह सपा जिसमें मुर्दा लपेटकर गाडा । सृहस सत्ता कपपरिय भैप की नौ तिने वार ,t-पृ° °, या फका जाता है। यौ॰--फफनखसोट । कफनचोर । कफन काठी । कफासज्ञा पु०[फा० फुफ= झाग, गाज] १ अफीम की पसेव महा-फफन को कौडी न होना या रेहना=अत्यंत दरिद्र हैन। जिसमे कपडा डुबो कर मदक बनाने के लिये सुखाते हैं। २ । कफन को फोडी न रखना =(१) जो कमाना वह पा लेना। वह वस्त्र जिसे किसी बरतन के मुहं पर वाधकर उसके ऊपर * अफीम सुखाई जाती है । सफी। छनना । । । । । घने सूचित न करना । (२) अत्यद त्यागी होना। (साधु के • लिये) । कफन फाड़कर उठना=(१) मुर्दे का उठना । मुर्दै कप्याख्य--संज्ञा पुं॰ [सं०] एक गधद्रव्य । धूप [को०)। का जी उठना । (२) सहसा उठ पड़ना । कफन छाडेकर कृप्यास'–सुज्ञा पुं० [म०] वदर का चूतड। 'वोलना या चिल्लाना = सहसा जोर से चिल्लाना। कफन केप्यास--वि० [सं०] लाल रक्त । सिर से बचना= मरने पर तैयार होना । जान जोखिम में कफ-सज्ञा पुं० [न०] १ वह गाढ़ी लसीली और अंठेदार वस्तु जो डालना । * ' खाँसने या थकने से मुंह से बाहर आती है तथा नाक से भी कफनकाठी-सी पुं० [अ० फफन + हि० फाठी] अत्येष्टि कर्म की ' 'निकलती है। श्लेष्मा । बलगम । २. वैद्यक' के अनुसार शरीर व्यवस्या [को०]। के भीतर की एक धातु जिसके रहने का स्थान प्रामाश्य, कफनखसोट--वि० [अ० कफन + हि० खसोट] [संज्ञा कन* हृदय, कठ, शिर और सैध हैं। खसोटी] १.,कजूम । भक्खीचूस । झत्यंत लोनी । तुमडा । * विशेप-इन स्थानों में रहनेवाले कफ का स्थान कमशः क्लेदन, विशेप---पूर्व काल मे डोम इमशान में मुद्दों का कफन फाडकर, अवलवन, रसन, स्नेहन और श्लेष्मा है । आधुनिक पाश्चात्य कर की तरह लेते थे, इसीलिये उन्हें कफनखसोट कहते थे । मत से इसका स्थान साँस लेने की नलिया और अमाशय है। दूसरे के माल को जबरदस्ती छीनकर हडप जानेवाला । । फुफ कुपित होने से दोपो में गिना जाता है।। " - । कफनखसोटी-सज्ञा स्त्री० [अ० कफन + हि० खसोटना] १ डोमो का * यौ-कफकारक कफत । कफैक्षय ।। 1 । । । |कर जो शमशान पर, मुद का कफन फाउझर लेते थे। उ० कफ-संवा पं० [अ०५ फुफ] कमीज़ या कुर्ते।कौं अास्तीत के आगे जाति दास चहल की, घर घनघोर मसान । कप नखसोटी को 3" (की वह दोहरी पट्टी जिसमे बटन लगाते हैं।। ।। | | | करम, सव ही एक समान हरिश्चंद्र (शब्द॰) । २ इधर " य - फदार । जैसे–कफदार कुत) ।। {....., 1 ) । उधर से भले या बुरे ढंग से धन एकत्र करने को वृत्ति । ३. कफ-सज्ञा पुं० [अ० फफ्फ़ फा० कु] लोहे का, वह, अर्धचद्राकार , कंजूसी । सुमडापन। २५॥३५५ । । ।