पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२७१

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।' कपोल' ६५ पूरकचरी | विशेष—इसकी पत्तियाँ लंबी लवी होती हैं जिनके बीच में मे को कुन से दविखन पश्चिमी घाट तक और लंका, टनामरम, सफेद लकीर होती हैं। इसकी जड़ में से कपूर की सी सुगंध वर्मा अादि स्थानों में होता है। इसका पत्ता तेजपात और निकलती है। छाल दारचीनी है। इससे भी कपूर निकलता है। वरा—यह वोनियो और सुमात्रा में होता है और इसका पेड़ कपोत-सा पु० [सं०] [० कपोतिका, कपोती] १. कवून् र । २. परेवा । बहुत ऊँचा होता है। इसके सौ वर्ष से अधिक पुराने । पेड के बीच से तथा गाँठो मे से कपूर का जमा हुअा डला , यौ०--म्रकपोत । चित्रकपोत । हरितकपोत । कपोतमुद्रा । ३. पक्षी मात्र । चिडिया। निकलता है और छिलको के नीचे से भी कपूर निक नता है । यो०-कपोतपालिका । कपोनारि। इस कपुर को वास, भीमसेनी आदि कहते हैं और ४ भूरे रग का कच्चा सुरमा । प्राचीनो ने इसी को अपक्व कहा है। पेड में कभी कभी छेव कपोतक-सज्ञा पुं० [सं०] १ छोटा कबूतर । २ हाथ जोनने का लगाकर दूध निकालते हैं जो जमकर कपूर हो जाता है। एक ढगे । ३ सुरमा धातु को०)। के भी पुराने पेड़ की छाल फट जाती है और उससे अाप कपोतकीया–सच्चा स्त्री० [सं०] वह भूमि या स्थान जहाँ कबूतरो से आप दूध निकलने लगता है जो जमकर कपूर हो जाता | की बहुतायत हो (को०] । है। यह वपुर बाजारों में कम मिलता है और महँगा विकता। ३ री प्रकार के कपोवपालिका, कपोतपाली----स। स्त्री० [सं०] १. काबुक । कवून का दब। २. कबूतरो के बैठने की छतरी । चिडियाखाना। नक नी कपूर बनते हैं। जापान में दारनी कपूरी के तेल से कपोतवक[-- सच्चा स्त्री० [सं० कपोतब ब्राह्मी वुटी । (जो लडकियो को पानी में रखकर खीचकर निकाला जाता कपोतव--सच्चा स्त्री॰ [सं०] छोटी इलायची । है) एक प्रकार कपूर का बनाया जाता है। तेल 'भूरे रंग कपोत्तवृत्ति--सा स्त्री॰ [सं०] सचयहीन वृत्त । रोज कमाना रोज का होता है और वानिश के काम आता है। खाना । कपुर स्वाद में कड़, सुगध में तीक्ष्ण और गुण मे शीतल होना पतिव्रत--संज्ञा ब्री० [सं०] चुपचाप दूसरे के अत्याचारों को है। यह कृमिघ्न और वायुशोधक होता हैं और अधिक मात्रा सहना ।' दूसरे के पहुंचाए हुए अत्याचार या कष्ट पर चून में खने से विप वा काम करता है । करना । उ०—है इत लाल कोतव्रत कठिन प्रीति की चाल । पर्या-घनसार । चद्र । सिताभ । मुख सो अाह न भाखिहाँ निज सुख करो हुला। (शब्द०) । महा०—कपूर खाना= विप खाना। उ०-बूडे जलजात कर विशेष—कबूतर कष्ट के समय नही वोलता, केवल हर्ष के समय केदली कनूर वाव दाडिम दरिक अंग उपमा न तौल री । तेरे स्वोस सौरभ को त्रिविध समीर धीर विविध लतान तीर वन | गुटर गू की तरह का अस्फुट स्वर निकाला है । वन डोल री !-वेनी प्रवीन (शब्द॰) । कपोतसार--सी पुं० [सं०] सुरमा (धातु) । कपुरकचरी-सच्चा स्त्री० [हिं० कपूर +फचरी] एक बेल जिसकी कपोताघ्रि-सा औ० [सं० कपोताङ्घ्रि] १. गधद्रव्य । २. प्रवाल जड़ सुगधत होती है और दवा के काम में आती है । अासाम । विद्रुम । मूगा । उ०—सुषिरा नटी नली धमनि कपोताघ्रि के पहाड़ी लोग इसकी पत्तियो की चटाई बनाते हैं । इसकी परवाल --अनेकार्थ, पृ० ६४। जउ खाने में कडई, चरपरी और तीक्ष्ण होती है तथा ज्वर कपोताजन- सज्ञा पुं० [स० कपोताञ्जन] सुरमा (धातु)। हिचकी और मुह की विरसता को दूर करती है । कुपोतारि--सज्ञा पुं० [सं०] बाज पक्षी।। पर्या०-- गघपलाशी। गंघमली । गधौली। सितरुती । कपोती'--सच्चा औ० [सं०] १. कबूतरी। २. पेड़की । ३. कुमरी। कपूरकोट--संज्ञा पुं० [हिं० पूर+काट]एक प्रकार की महीने जहन कपोती'- वि० [सं०] कपोत के रंग का । खोकी । घूमले रग का । - धान जिसका चावल सुगंधित और स्वादिष्ट होता है। | फाख्तई रग का। नीले रग का । कपूरमणि-सच्चा पु०स० कपूरमणि १ एक प्रकार का रत्न । २ एक कपोल-सज्ञा पुं० [सं०] गाल । उ॰—तोहि कुपो न बाएँ तिल प्रकार का श्वेत पापाणु जो अपघ के काम आता है [को०] । पुरा । जेई तिल देख सो तिल तिल जरा ।-जायसौ ग्रं, कृपूरा-सी पुं० हिं० कपूर = कपूर के ऐसा सफेव भेट, वकरी पृ० १६२। आदि चौपाया का अडकोश । । यौ॰—कपोलकल्पना । कपोलकल्पित । कपूरी'वि० [हिं० कपूर] १ कपूर का बना हुआ । २ हुनके पीले कपोल-सच्चा पुं० [सं०] नृत्य या नाट्य मे कपोल की चेष्टाएँ । रंग का । । विशेष—ये सात प्रकार की होती हैं-(१) कुचित (लज्जा के कपूरी-सच्चा पु० १ एक रंग जो कुछ हुलका पीला होता है और , समय) (२) रोमाचित (भय के समय) । (३) कुपित (क्रोध केसरी फिटकरी और हरसिंगार के फुल से बनता है। २ के समय) । (४) फुल्ल (हर्ष के समय) । (५) सम एक प्रकार को पग्न जो बहुत लुवा और चौडा होता है । (स्वाभाविक) । (६) नाम (कष्ट के समय)। (७) पूर्ण इसके किनारे कुछ लहरदार होते हैं । (गर्व या उत्साह के समय) । पूर----संज्ञा स्त्री॰ एक प्रकार की वूटी जो पहाडी पर होती है ।