पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२७०

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कपिलाक्षी ७६४ करें । एक कन्या । ६ रेणको नाम की सुगधित ओपधि । ७ मध्य कपीद्र-सज्ञा पुं० [सं० कप १ हनुमान । २ सुग्रीव । ३ प्रदेश की एक नदी । जरिवान् । कपिलाक्षा सा को०[सं०] १. एक प्रकार की मुगी । २ एक प्रकार कपी - सज्ञा स्त्री० [हिं० कोपना] घिन्नी । पिरनो । का शिशपा वृक्ष (को॰] । कप)–स सी० [सं०] वानरी । मर्कटी को । कपिलागम--सा पुं० [सं०] साख्यशास्त्र । कपी'-सा पु० [फा०, मि० भ० कपि] वदर । शाखामृग । वानर । कपिलाचार्य-सज्ञा पुं० [सं०] १ प्राचार्य कपिल । २ विष्णु (को०] । कपीज्य–सेवा पु० [सं०]१. राम । २. सुयीव । ३ क्षीरिक नामक कपिलाश्व-सच्चा पुं० [सं०] इंद्र जिन को घोडा सफेद है। कपिलोमफला सज्ञा पुं० [सं०] केवॉच । कपिकच्छु [को०] । कपीतनराश पुं० [सं०] अनेक वृक्ष के नाम । जैसे--अश्वत्य, प्रेमठा, शिरोप, दिल्य अादि । कपिलोह-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] पीतल (को०]। कपोश-स) पुं० [सं०] जानरो का राजा। जैन--हनुमान, सुग्रीव, कपिवक्त्र-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] नारद [को०)। | वालि इत्यादि । कपिश'- वि० [सं०] १. काला और पीला रंग मिलाने से जो भूरा कपोष्ठ-भज्ञा पुं॰ [सं०] कपित्थ । केय । रग वने उस रग का। मटमैना । उ० –पुर इन कशि । नि वोल विविध रंग विहँसत सचु उपजावे । सुर स्याम मानद कपुच्छल-सा पुं० [म०] १ मुंडन के बाद गिधा रखने । संस्कार । चूडाकर्म । २. काकपस ० । कद की शोमा कहत न आवै ।-- सूर (शब्द॰) । २ पीला भुरा । लाल भुर। वादामी । उ०—कपिग के कर्कश लगूर कपुष्टिका-संज्ञा स्त्री॰ [स] दे० 'कपुन्छ' [] खलु दल बल भानन ।- तुलसी (शब्द॰) । कपूत--‘स पुं० [स० कुपुत्र] वह पुग्न जो अने के धर्म के विरुद्ध कपिश–सच्चा पुं० १ भूरा या वादामी रंग। २ लाल और काले अचरण करे। बुरी चाल चलन का पुत्र । बुरा लडका । उ०—राम नाम ललित ललाम कियो लाखन को बडो कुर रग का मिश्रित रंग । ३. घूप द्रव्य । ४ एक प्रकार का कायर कपूत कौड़ी अाध को !-तुलसी (शब्द०)। वाण । ५ एक प्रकार का पद्य । कपूती संज्ञा स्त्री॰ [हिं० कपूत] पुत्र के अयोग्य आचरण । कपिशाजन-सा पु[सं० कपिशाजन एक प्रकार की मदिराको]। नालमिकी । कुपिशा-सच्चा सौ॰ [सं०१ एक प्रकार का मद्य । २ एक नदी कपूर- ज्ञा पुं० [नं० कपूर, पा० कपूर, जवा कापूर] एक मुफेद रंग का नाम जिसे अाजकल कसाई कहवे हैं और जो मेदिनीपुर के का जमा हुश्री सुगधित द्रव्य जो वायु में उड जाता है और दक्षिण में पड़ती है। रघुवरों में लिखा है कि रघु इसी नदी जुलाने से जलता है। को पार करके उरकन देश मे गए थे। ३ कश्यप की एक विशेप-प्राचीनो के अनुसार कपूर दो प्रकार का होता है । स्त्री जिससे पिशाच उत्पन्न हुए थे । ४ माधवी लता (को०) । एक पक्व दुसरा अपक्व । राजनिघट और निषटुरत्नाकर में कपिशाक-सज्ञा पुं० [सं०] करमक न।।। पोतास, भीमसेन, हिम इत्यादि इसके बहुत भेद माने गए हैं प्रौर कपिशायव-सम्रा पुं० [सं०] १. कृपिग की वनी मदिरा ! २ एक इनके गुण भी अलग अलग लिखे हैं । कवियों और साधारण देव [को०] । गेवारो का विश्वास है कि केले में स्वाती की बूद पडने से कपिशित--वि० [सं०] भुरा या कपिश किया हृमा [को०) । कपूर उत्पन्न होता है। जायसी ने पद्मावत मे खा है-'पर कपिशी–सच्चा सी० ]सं०] एक प्रकार की मदिर, [को॰] । घर नि' पर होय कचरू। पड़े कदलि मॅह होय कपूरू' । अजि कल फपिशीका-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का मद्य (को०] । कपूर कई वृक्षो से निकाला जाता है। ये सबके सब वृक्ष कपिशोष'—सा पुं० [सं०] दीवार का सबसे ऊपरी भाग जो कपि के प्राय दारचीनी की जाति के हैं। इनमें प्रधान पेड दर चीनी शीर्ष या सिर जैसा हो। कौसीस [को०] । कपूरो मियाने कद का सदाबहार पेड है जो चीन, जापान, कृपिशीर्ष–वि० कपि के शीर्ष तुल्य प्रभा से युक्त (को०] । कोचीन और फारमूसा (ताइवान) में होता है । अव इसके कपिशीर्षकस। पुं० [सं०] हिगुल [को०)। पेड हिंदुस्तान में भी देहरादून और नीलगिरि पर लगाए गए पिशीष्र्णी--सी स्त्री० [सं०] एक प्रकार का;वाद्ययंत्र [को०)। हैं और कलकत्त तथा सहारनपुर के कपनी वागो में भी इनके कपिष्ठल- संज्ञा पुं॰ [सं०] एक ऋषि का नाम, शीर उनके गोत्र के । पेड हैं। इससे कपूर निकालने की विधि यह है-इसकी | लोग (को०)। पतलीपतलीचैलियों और हालियो तया जर्डी के टुकड' वदे बर्तत ।। में जिसमें कुछ दूर तक पानी भरा रहता है, इस ढंग से रखे कपृिष्ठल सहिता–सच्चा सौ० [सं०] कृष्ण यजुर्वेद की एक -जाते हैं कि उनका लगावे पानी से न रहे। वर्तन के नीचे | सहिता [को०) । अाग जलाई जाती है। अच लगने से लकडियो में से कर कपिस –सा पुं० [सं० कपिश] १ पीले भूरे ग का । २. रेशमी। उडकर ऊपर के ढक्कन मे जम जाता है। इसकी लकडी भी उ०---कनक कपिश अबर, संवर करत मान 'भग 1-छी०, सदूक अादि बनाने के काम में आती है। पृ• ५३ ।। दालचीनी जीलानी--इसका पेड़ ऊँचा होता है । यह दक्खिन