पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२७

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उचकैत उधरना उचकन--संज्ञा पुं० [सं० उच्च + कृत्> हि० उचक से उचकन] इंट, उचटाना)---क्रि० स० [सं० उच्चाटन] १ उचाइना' । अलग पत्थर आदि का वह टुकडा जिसे नीचे देकर किसी चीज को करना । बिखेरना । नोचना । . पृथक् करनः । छुडाना ऊँचीं करते हैं। जैसे, चूल्हे पर चढ़े हुए वरतन के पैदे के नीचे ३ उदासीन करना। खिन्न करना 1 विरक्त करना । उ०-- दिया हुआ खपडेल का टुक्ड अथवा खाते समय थाली को नैननि हरि क निठुर कराए । चुगली करी जाइ उन प्रागै एक और ऊँचा करने के लिये पेंदी के नीचे रखी हुई लकडी । हुमते वै उचटाए । सूर०, १०] २३३४ ! ४ भडकाना। उचकना--क्रि० अ० [स० उच्च = ऊंचा+करण = करना] १. ऊँचा विचकाना । उ०----चहती उचटायो, सोर मचायो, सच मिलि होने के लिये पैर के पजो के बल ऍडी उठाकर खड़ा होना। यासो वीच हरे ---गुमान (शब्द॰) । कोई वन्तु लेने या देखने के लिये शरीर को उठाना और सिर उचटावना.---क्रि० स० [हिं० उचटाना]। दे० 'उचटाना' । ऊँचा करना । जैसे,—( क ) दीवार की आडे से क्या उचक उचडना--क्रि० अ० [स० उच्चारण, प्रा० उच्चाडण] १. सटी या उचककर देख रहे हो। ( ख ) वह लडका टोकरे में से आम लगी हुई चीज का अलग होना । पृथक् होना । २ किसी स्था। निकालने के लिये उचक रहा है। उ०--सुठि ऊँचे देखत वह से हटना या अलग होना 1 जाना। भागना । जैसे--कौआ, उचका। दृष्टि पहुच पर पहुँच न सका।—जायसी (शब्द॰) । यदि हमारे भैया अाते हो तो उचड़ जा (स्त्री०)। २ उछलना । कूदना। उ०-यो कहिके उचकी परजक ते पृरि विशेषजब घर का कोई विदेश भे रहता है तब स्त्रियाँ शकुन रही दृग वारि की वृंदे ।—देव (शब्द॰) । द्वारा उसके आने का समय विचारा करती हैं। जैसे, यदि को उचकन -क्रि० स० उछलकर लेना । लपककर छीनना। उठाकर खपल पर आकर बैठती है तो उससे कहती हैं कि यदि चल देना। जैसे-जो चीज होती है तुम हाथ से उचक ले ‘अमुक अाते हो तो उचड जा' । यदि को उड गया जाते हो। तो समझती हैं कि विदेश गया है। व्यक्ति शीघ्र आएगा । संयो० झिs -ले जाना। उचना---क्रि० अ० [स० उच्च से नाभिक घातु] १ ऊँचा होना। उचकना--सुज्ञा पुं० उचकने की क्रिया या भाव । ऊपर उठना । उचकना । उ०-अँगुरिन उचि, अरु भीति उचका--क्रि० वि० [हिं० औचक या अचाका] अचानक । सहसा । दै, उलमि चिते चख लोल, रुचि सो दुई दुहुनु के चुमे चास ३०--ज्यों हरनिन की होत हुँकाई, उचका उठे वाघ विरझाई। कपोल |–विहारी र०, दो० ५०५। ३. उठना । उ०—(क) -लाल (शब्द०)। इतर नृपति जिहि उचत निकट करि देत न मुठ रिती । उचकाना--क्रि० स० [हिं० ‘उचकना] उठानी। ऊपर करन । उ०- --सूर० (शब्द॰) । (ख) औचक ही उचि ऐचि लई गहि ---स्याम लियो गिरिराज उठाई । सत्य वचन गिरि देव कहत गोरे बड़े कर कोर उचाइक -देव (शब्द०)। हैं कान्ह लेहि मोहि कर उचकाइ ।-सूर०, १०। ८७१।। उचना-.--क्रि० स० [सं० उच्च] ऊँचा करना। ऊपर उठाना । उचकैयाँ-वि० [हिं० उचक +ऐया (प्रत्य॰)] उछलयुक्त । उचकता या। उ०—जा गिर ते चढि कुलोच लीनी उचकैयौं ।-नद० उठाना । उ०-(क) हँसि ओठनु विच, करु उचे, किये निचौहैं ग्र ०, पृ० ३२९ । नैन, खरे अरे प्रिय के प्रिया लगी विरी मुख दैन । विहारी उचकोही- वि० [हिं० उचक+ौहीं (प्रत्य॰)] उचकनेवाली । र०, दो० ६२७ । (ख) भौंह उचे चर उ नटि मोरि मोरि उ०- लचकहीं सो लक उर, उचकोही सो ऐन, विहस से मुहँ भोरि । नीठि नीठि भीतर गई दीठि दीठि से जोरि । वदन मैं, लसूत नचौहें नैन ।-मति० ग्र ०, पृ० ४४६।। -विहारी (शब्द॰) । उचक्का----संज्ञा पुं० [हिं० उचकना से] [स्त्री० उचक्की] १. उचककर उचान' -सजा " स उच] ३ भाड' । जेठान । उ०--(क) परी दृष्टि कुच उचनि पिया की वह सुख कह्यो न जाई । अगिया चीज ले मागनेवाला । चाई। ठग । जैसे, मैलो में चोर नील मांडनी राती निरखत नैन चुराई । सूर (शब्द॰) । उचक्के बहुत जाते हैं । २ बदमाश । लुच्चा । उठाईगीरा ।। (ख) चिबुकं तर कठ श्रीमाल मोतीन छवि कुच उचनि हेम उ०—बटपारी, ठग, चोर, उचक्का, गाँठिकट, लठवासी । गिरि अतिहि लाजै । सूर० (शब्द०)। •-सुर, १ । १८६ । उचटना--- क्रि० अ० [सं० उच्चाटन] १ उचड़ना । जमी हुई वस्तु उचरग----सज्ञा पुं० [हिं० उछरना+अग] उडनेवाला कीडा । पतग । का उखड़ना । उ०-लक लगाई दई हुनुमत विमान बचे अति फतिगा। उच्चरुखी त्व' 1 पाच फट उचट वहुधा मनि रानी रटे पानी उचरना -क्रि० स० [स० उच्चारण] उवारण करना । बोलना। मुंह से शब्द निकालन। उ०—-चढि गिरि शिखर शब्द इका पानी दुखी त्व' ।---केशव (शब्द०)। २ अलग होना। पृथक उचरयो गगन उठ्यो ग्राघात, कपत कमठ शेप वसुधा नभ रवि- होना । छूटन। । उ०-अति अगिनि झार भ मार धुधार करि रथ भयो उतपात —सूर (शब्द॰) । उचटि अगार झझर छायो ।-सूर, १०५६६ । ३. मडकना। उचरना----क्रि० अ० १. शब्द होना । मुह से शब्द निकालना । । जैसे,—तुम्हारा गहिक उचट गया। ४ विर# उचरना-.--क्रि० अ० [हिं०] दे• 'उचड़ना' । होना । हटना । जैसे---जी उचटना ( शब्द०) ५. खुलना । उचरन -क्रि० अ० [हिं॰] दे॰ 'उछलना' । ३०-अषु धरन उ०----जगहु जागहु नदकुमार। रवि वहु चढ्यो रैनि सब हिंत दुष्ट मॅज़ारी, मो परि उचरि परी इमारी ।तद० ग्र' निघडी इचये सुकुल किवाय ।सुर, १० । ४०६। मृ० १Y६ ।