पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२६८

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कपाल ७८३ कपासी कपाल–सज्ञा पुं॰ [सं०] [वि०- कपाली, कापालिक] १ -खोपड़ा । पक्ष को दवना न पड़े। समान सधि ! समान बातों पर हुई खोपड़ी। सधि (को॰] । यौ॰—कपालक्रिया। कपालमाला । कपालमोचन । कपाल सश्रय-सज्ञा पुं॰ [सं०]वह राष्ट्र, या राज्य जो दो शक्तिशाली | २ ललाट ! मस्तक । ३ । अदृश्य । भाग्य । | राष्ट्रों के बीच में न हो और दोनो का मित्र बना रहे । मुहा०—कपाल खुलना=(१) भाग्य उदय होना । (२) सिर कपालसोधनी-- सच्चा स्त्री॰ [स० कृपाल+हि० सोवनी]हठयोग की खुलना । सिर से लोहू निकलना । एक क्रिया । उ०—वाये सेती रेचिये होरे होरे जान 1 कपाल| ४ घडे आदि के नीचे या ऊपर का भाग । खपडा । खर्पर ।। सोधनी जानिये चरणदास पहिचान –अष्टाग०, पृ० ७७ । ५ मिट्टी का एक पात्र जिसमें पहले भिक्षुक लोग भिक्षा लेते कपालास्त्र-सज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का अस्त्र ।'२. ढाल[ो०)। थे । खप्पर । ६ वह वतन जिममे यज्ञो मे देवताओं के लिये कपालि-सच्चा पु० [सं० कपालिन् ] शिव' [को॰) । कपालिक –सशा पुं० [सं० फापालिक] दे॰ 'कापालिक' । पुरोडाश पकाया जाता था 1 । यौ9-—पचकपाल । अष्टकपाल। एकादश कपाल 1 कपालसभव कपालिका'- सच्चा ली० [सं०] १ खोपडी । २. घडे के नीचे या कपात रत्न =(१) गजमुक्ता । (२) नागमणि । उ०---कपालस भब ऊपर का भाग । ३ दौत का एक रोग जिसमे दाँत टूटने लगते हैं । दतशर्करा) ४.'काली। रणचडी । ५. दुर्गा (को॰) । रत्न हाथी के सिर से निकली मणि या नाग के सिर से निकली मणि० |--वृत्, पृ० १६५।। कपालिनी--सज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा । शिवा । ।। ७ वह वर्तन जिसमे मडमूजे दाना भूनते हैं। खपही । ८. अड़े के । कपाली-सज्ञा पुं० [सं० फ पालिन्] [ स्त्री० कपालिनी] १ शिव । छिनके का प्राधा भाग । ६ कछुए का खोपडा ! १० ढक्कन । महादेव । २. भैरव । उ करे केलि काली व पाली समेतं । ११ कोढ़ का एक भेद । - -हम्मीर०, १० ५६ । ३ ठीकरा लेकर भीख माँगनेवाला कपाल अस्त्र--सज्ञा पुं॰ [सं०] ३० 'कपालास्त्र' । भिक्षक । ४ एक वर्णसकर जाति जो ब्राह्मणी माती और कपालक -सज्ञा पुं॰ [स० कापालिक] ३० कापालिक' । घीवर वाप से उत्पन्न मानी जाती है । कपरिया। कपास-सच्चा स्त्री० [स० क पस] [वि कपासी एक पौधा जिसके कपालक-सज्ञा पु० [सं०] प्याला । [को०)। ढूंढ से रुई निकलती है । कपालक-वि० प्याले के आकार का [को०] । विशेष--इसके कई भेद हैं। किसी किसी के पेड-ऊँचे और बड़े कपाल केतु-[स०] बृहत्सहिता के अनुसार एक केतु । होते हैं, किसी का झाड होता है, किसी का-पौधा छोटा होता विशेष--इसकी पूछ धुएँदार, प्रकाशरश्मि तुल्य होती है। यह है, कोई सदावहार होता है, और कितने की काश्त प्रति वर्ष प्रकाश के पूर्वार्ध में अमावस्या के दिन उदय होता है । इस की जाती हैं । इसके पत्ते भी भिन्न | भन्न आकार के होते हैं। तारे के उदय से . भारी अनावृष्टि होती है और अकाल और फूल भी किसी का लाल, किसी का पीला तया किसी पड़ता है। का सफेद होता है । फूलो के गिरने पर उनमें ढूंढ़ लगते हैं। कपालक्रिया--सच्चा श्री० [सं०] मृतसस्कार के अनर्गत एक कृत्य जिनमे रूई होती है। केंद्र के ग्राकार और रग भिन्न भिन्न जिसमें जलते हुए शव की खोपडी को वांस या किसी और होते हैं । भीतर की रूई अधिकतर सफेद होती है, पर किसी से फोड़ देते हैं। किसी के भीतर की रूई कुछ लाल और मटमैली भी होती कपालचूर्ण-सज्ञा पुं० [म०] नृत्य में एक प्रकार की क्रिया जिसमे है और किसी को सफेद होती है। किसी कपास की गई सिर को नीचे जमीन पर टेककर और पैर ऊपर करके चिकनी और मुलायम और किसी की खुरखुरी होती है । रुई चलते हैं । के बीच में जो वीज निकलते हैं वे विनौले कहलाते हैं। कपालनलिका--सज्ञा स्त्री० [सं०] १. तकुली । २. धिरनी जिसमे कपास की बहुत सी जातियाँ है, जैसे, नरमा, नदन, हिरगुनी, सुत लपेटा या भरा जाय [वै] । कोल, वरदी, कटेली, नदम, रोजी, कुपटा, तेलपट्टी, खानपुरी कपालभाती-नशा स्त्री० [सं०]हठयोग की एक क्रिया । इसमे वेगपूर्वक इत्यादि । पूरक और रेचक नलिका द्वारा श्वास खींचा और छोडा जाता। क्रि० प्र०---ौटना = चरखी में रूई डालकर बिनौले को अलग हैं कि०] । करना । उ०-~-अाए थे हरिभजन को टन लगें कपास । कपालभाथी---सज्ञा स्त्री० [स० कपालभाती] दे० 'कपालभाती' । (शब्द०)। उ०---त्राटक ,निरपे नौली फेरे । कपालभाथी नीके हेर । मुहा०—वही के धोखे कपास खाना = और को 'अरि समझना । ---सूदर प्र०, भा० १, पृ० १०३ । । एक ही प्रकार की वस्तुओं के बीच धोखा खाना । कपालमालिनी- सुज्ञा स्त्री० [सं०] काली । दुर्गा [को॰] । । कपास-वि० [हिं० पास] कपास के फूल के रग के समान १ कपालमाली-सज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव । | हलके पीले रंग का । कपालमोचन--संज्ञा पुं० [सं०] काशी का एक तालाब जहाँ लोग कृपासी-सज्ञा पुं० एक रग जो कृपास के फूल के रग जैसा बहुत , स्नान करते हैं । हुल का पीला होता है। उ०—खसखसी, कपासी,-गुलवासी-। कपालसधि--सज्ञा स्त्री० [स० कपालसन्धि] ऐसी से घ्रि जिसमे किसी --प्रेमघन॰, भा॰ १ पृ० ११८ । । ।