पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२६७

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- अंडार। कपदनाद सुकवि कपड़कौट कार करनेवाला एक कीडा । दे० 'कपडा' । २ तमाखू के पौधों में कंपनी-सज्ञा जी० कैंपकंपी। कुपन । ३०-~-भूप को सुध नहीं लगनेवाला एक रोग जिसे 'कोढ़।' भी कहते हैं। अपनी । गगन चढ़ते लगी कपनी !--सत तुर सी०, पृ० ६४। कपडकोट- सच्चा पु० [हिं० कपड़ी + कोट] डेरा । खीमा । तबू । कपरिया--सज्ञा पुं० [सं० कपाली] एक नीचे जाति । ३०---ताल कपडखसोट-सज्ञा पुं० [हिं० कपड़+खसोट] इमरो का वस्त्र तक पखावज वो मंगाने । गाइन गुनी कपरिया अाने ।--हिंदी छीन लेनेवाला व्यक्ति 1 बहुत धूर्त या लोभी व्यक्ति । प्रेमा०, पृ० २१०। । कपडेगध-सज्ञा स्त्री० [हिं० कपडा + गध] कपड़े के जलने की दुर्गध । कपरटो---संज्ञा स्त्री॰ [हिं० पौटी] दे० 'कपड़ौटी' । कपड़छन, कपड़छान'- सुज्ञा पुं० [हिं० कपड़ी+छानना] किसी कपर्द-सज्ञा पु० [सं०]१. शिव की जटा । जटाजूट । २ कोडी । पिसी हुई बुकनी को कपड़े में छानने का कार्य । मैदे की तरह पदक---संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कर्पादका] १ (शिव की) जटामहीन करना। | जुट । २. कौडी । क्रि० प्र०—करना ।—होना । कपदिका--- संज्ञा स्त्री॰ [सं०]दुग। शिवा । भवानी । उ०—हमारे मामा कपड़छन, कपड़छान-वि०कपड़े सेछाना हुआ। मैदे की तरह महीन । के एक पड साहूकार की जीविका थी पर उससे उनको क्रि० प्र०—करना ।—होना । जन्म भर में एक कपर्दिका भी नही मिली ।- श्रीनिवास ग्र० कपडद्वार-संज्ञा पुं० [हिं० कपडा + द्वार] कपडो का भंडार । वस्त्रागार । तोशाखाना ! कपदिनी----सा लौ०[स०] दु । शिवा । भवानी। उ०—जै जैयति कपडधूलि---सच्चा श्री० [हिं० कपड़ा +थूल] एक प्रकार का बारीक जै आदि सुकति जै कालि कपर्दिनि । जे मधुकैटभ छलनि देवि | रेशमी कपडा । करे। जै महिप विमदनि ।—भूपण (शब्द॰) । कपडमिट्टी-सच्चा स्त्री० [हिं० कपडा+मिट्टी]धातु या ग्रोपधि फूकने के • धो हकने कपर्दी-सच्चा पु० [सं० कपद्दिन्] [सं० कर्पानी। १. जटाके सपुट पर गीली मिट्टी के लेव के साय कपड़ा या रूई पीसकर र जुटधारी शिव। २. ११ द्धो में से एक का नाम । या सान कर लपेटने की क्रिया । कपडौ । गिल हिकमत । कपर्दी-वि० [सं० कपर्द + ई (प्रत्य॰)] जटाजूटधारी । उ० --वह क्रि० प्र०—करना ।---होना । कपर्दी और जटाधारी है ---प्रा० भा० १०, पृ० १४९। कपडविदार--संज्ञा पुं० [हिं० कपा+विदारण] १ कपडा ब्योंतने- कपसी-संज्ञा चौ[सं० कपिश] १. एक प्रकार की चिकनी मिट्टी जिससे याला दरजी । २. रफूगर ।-(डि०) । कुम्हार वर्तन पर रग चढ़ाते हैं। काविस । २. गारा । लेई ।। कपसेठा सज्ञा पुं॰ [हिं० कपास +एठा] [स्त्री० अल्पा० कपसेठी] कपडा- सच्चा १० [सं० कपंट, प्रा० कप्पट, कप्पड] १ लई, रेशम, कपास के सूखे हुए पेड जो ईंधन के काम मे लाए जाते हैं । ऊन या सन के तागों से बुना हुआ माचदिने । वस्त्र । पट। यो०- कपडा लत्ता= व्यवहार के सब कपडे। कपसेठी-सज्ञा झी० [हिं० कपसेठा] सं० 'कपसेठा'। मुहा०--कपों से होना= मासिक धर्म से होना। रजस्वला कपाट---सज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री॰ अल्पा० कपाटी] किवाड़। पाट । । होना । एकवस्या होना । उ०—उसका नाम पवनरेखा सो उ०—नाम पाहुख राति दिनु ध्यान तुम्हारे कपाट । लोचन अति सुदरी और पतिव्रता थी। अठो पहर स्वामी की प्रज्ञा निज पद जत्रित जाहि प्रान केहि बाट --मानस, ५.३० । ही में रहे । एक दिन कपड़ो से भई तो पति की आज्ञा लेकर यौ---कपाटबद्ध । झपाटमगल । रथ मे चढ़कर वन में खेलने को गई ।---गल्ल (शब्द॰) । कपाटवद्ध--सज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसके अक्षरी कपर अना= मासिक धर्म से होना । जैसे,--प्राज तो उसे को विशेप रूप से लिखने से किवाडो का चित्र बन जाता है ! कपड़ आए हैं। कपाटमंगल-सज्ञा पुं० [सं० कपाटमङ्गल] द्वार बंद करना। २, पहनावा । पोशाक । (वल्लभकुल) । क्रि० प्र०—उतारना ।-पहनना । क्रि० प्र०—करना [--होना। ' यो०-कपडा लत्ता= पहनने का सामान । जैसे,--जो आदमी १ कपाटवक्षा--वि० [सं० कपाटवक्षस्] जिसकी छाती किवाड की तरह आए थे, सब कपडे लत्त से थे। हो । चौडी छातीदाना । कपाटसधि--मुज्ञा स्त्री॰ [स० कपाटसन्धि दरवाजे के पल्ले का जोड मुहा०----कपड़ों में न समानी= फूलै अग न समानी ! अनिद से फलना। कप उतार लेना=वस्त्र मोचन करना । खूब लूटना। क़पाटसधिक-संज्ञा पुं० [सं० कपाटसन्धिक| सुश्रुत के अनुसार कान कपड़ छानना=पल्ला छुडान । विहं छुडाना 1 पीछा छुडानी के १५ प्रकार के रोगों में से एक। कप रंगना=गेरुमा वस्त्र पहनना । योगी होनी । विरक्त कपार -संज्ञा पुं० [सं० कपाल] दे० 'कपाल'। उ०-सेस हार होना । टूटि पलल कपार |--विद्यापति, पृ० १४० । कृपडौटी-सच्चा औ० [हिं० कपड़ा+ौटी(प्रत्य०)]दे० 'कापड मिट्टी' । । । मुहा०----कपार मारना= दे० 'भूइमारना'.। उ०-पुरुप प्रज्ञा अस कपनी+---वि०:[सं० कम्पन] कप पैदा करनेवाली। जैसे,—कपनी | भयउ अपारा । मारहु धर्म के माँझ कपारा -कवीर सा०, । १०,६ ।