पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२६२

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केनत ७७६ में जाते हैं। इसी से 'कन्यागत' नाम पहा । इस समय श्राद्धादि टुकड़ा । उ०--मुख असू माखन के कनिका निरखि नैन सुख पितृकर्म करना अच्छा समझा जाता है। देत । मनु शशि श्रवत सुधा निधि मोती चुड़गण अवलि २ धाद्ध ।। समेत —सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना । निगर--सी पुं० [हि० कानि+फा गर] अपनी मर्यादा का कनात--संज्ञा स्त्री॰ [तु० कनात] मोटे कपडे की वह दीवार जिससे ध्यान रखनेवास। अपनी की तिरक्षा का ध्यान रग्रनेवाला । किसी स्थान को घेरकर अड़ करते हैं । उ०—(क) तुग में अपने सुयरी फो रक्षित रखनेवाला । नाम की लाज रखने मदर सम सदर भूपति शिविर सोहाये । विमल विख्यात सोहात वाला । उ०— तुलसी के माथे पर हाथ फेरो सनाथ, देखिए कनातन वड वितान छवि छाये --रघु राज (शब्द॰) । | न दास दुधी तो से कनिगर के }--तुलमी ग्रे ०,१० २५६ । विशेष - इसे खड़ा करने के लिये इसमें तीन तीन, चार चार र कनियां- सा जी० [हिं० कवि या फना गदि । फोर! । उने । का हाथ पर वास की फट्टियाँ सिली रहती हैं जिनके सिरों पर से उ०--(क) सादर से मुधि बिनोकि राम सिमुप अनूप भूप रस्सियौ खीचकर यह खड़ी की जाती हैं। लिये कनियाँ --तुलसी (शब्द॰) । क्रि० प्र० -खड़ी करना ।—खींचना १-घेरना |----लगना । -- 1. कानयासि कनिया--सा बी•[हिं०] ६० 'फनिय' । उ० -कनिय चुगाई धुरि खा[हिं॰] दे॰ 'फानया। उ लगाना । ऐसे सुयनान की |--कुवला, पृ० १४०|| कनाना—क्रि० अ० [हिं० फिनाना या फियांना] ऊप की फसल कनियाना'—क्रि० प्र० [हिं० कोना०, १० हि० कोनिमाना] मसि में कना नामक रोग लगना। बचाकर निकल जाना । इराकर चला जाना । कतरना । कनार--मक्ष पुं० [देश॰] घोडो का जुकाम (सर्दी) । कनियाना.- क्रि० प्र० [हिं० फन्नी, कन्ना] पतग का किसी और कतारा - सज्ञा पुं० [हिं० कन्नड़ की अ० वर्तनी] मदरास प्रीत का । झुक जाना । कन्नी पाना। एक भाग 1 कनियाना*---क्रि० अ० [हिं० कनिया से नाम गोद लेना । कनारी-सच्चा स्त्री॰ [हिं० किनारा का भी०] दे॰ 'किनारी । । | गोद में उठाना । कनारी-सझर सी० [हिं० फनार+ई (प्रत्य॰)] मदरसे प्रात कतियार सज्ञा पुं॰ [स० कर्णफार] कनकचपा । के कनारी नामक प्रदेश की भाषा । कन्नड । २. कनार का कनिष्ठ'- --विः [सं०][वि० को० कनिष्ठा]१ बहुत छोटा । प्रत्यत लघु । निवासी 1 कन्नइ । सबसे छोटा । जैसे,---कनिष्ठ माई । २ पीछे का । जो पीछे कनारी-सज्ञा स्त्री॰ [देश] फाँटः ।। उत्पन्न हुआ हो । ३. उमर में छोटा । ४ हीन । निकृष्ट । विशेप-यह पालकीवाले वाहारो की वोली का शब्द है। कनिष्ठ-संज्ञा पुं० [सं०] कनिष्ठ । सरसे छोटा (को॰] । कनाल'—सज्ञा पुं॰ [देश॰] पजाय में जमीन की एक नाप जो कनिष्ठक-वि० [स०] कनिष्ठ । वेवसे छोटा [को०)। घुमावे के अश्वेि 'माग वा बीघे की चौथाई के बराबर होती है। कनिष्ठक--सुज्ञा पु० [सं०] एक तृण । तिनका ०] । कनाल-सज्ञा स्त्री० [अ०] नहर ।। कनिष्ठा'-वि० [सं०] १ बहुत छोटी । सपसे छोटी । जैसे, कनिष्ठा | भगिनी । २ हीन । निकृष्ट । नीच ।। कनावड़ा -सज्ञा पुं० [हिं० कनौड़ा] दे॰ 'कनौडा'। उ०-वानर | कनिष्ठा-~स सी० १. दो या कई स्त्रियों में सबसे छोटी या पीछे ' विभपण की ओर को कनावो है सो प्रसग सुने अंग अरे की विवाहिती स्त्री । २. नायिकाभेद के अनुसार दो या अनुचर को 1-—तुलसी (शब्द॰) । अधिक स्त्रियों में वह स्त्री जिसपर पति का प्रेम कम हो। कनासी--संज्ञा स्त्री०[ देशो०]लद्दाख और कौर के बीच की कगरी ३ छोटी उँगली । छिगुनी । कनगुरो । ४, कनिष्ठ या छोटे वर्ग की एक बोली । भाई की स्त्री (को०)। कनासी- सज्ञा स्त्री॰ [स० कप +अशी] १. रेती जिससे हुक्के कनिष्ठिका–सद्या स्त्री० [सं०]पाँचौ उगलियों में से सबसे छोटी उँगली। वाले नारियल के हुक्के या मुह चौडा करते हैं। २ बढ़ई कानी उँगली । छिगुनी । की रेती जिससे अरे की दाँती निकाली या तेज़ की जाती है। कनी--राज्ञा स्त्री० [सं० कणिका]१ छोटा टुकड़ा । किरिच । २• हरि कनिभारी-सच्चा स्त्री० [सं० कणिकार, प्रा० कपिणार] कनकपा | का बहुत छोटा टुकडा । जैसे,—यह कनी उसने पचास रुपए । का पेहे । उ०—अति व्याकुल भई गोपिका ठूढति गिरधारी । की खरीदी है । " बूझति हैं वन वेलि सो देखे वनवारी जाही जूही सेवती। मुहा०—-कनी खाना या चाइना = हीरे की कुनी निग कर प्राण करना कनिअरी। वेलि चमेली मालती बुझति दुम डारी । देना । हीरे की किरिच खाकर अात्मघात करना । जैसेसूर (शब्द॰) । अनी के बस कनी खाना । कनिक----संज्ञा पुं० [स० कणिक] १ गेहू। २ गेहू' का प्राटा ।' ३. चावल के छोटे छोटे टुकडे । किनकी । जैसे,---इस चावल में उ०—बहुल कोहि कनिक थोड, धविक पेचां दीमें घोड़े । बहुत कनी है। ४. चावल का मध्य भाग जो कभी कभी नहीं कीति०, पृ॰ ६८ ।। ही 'गलती या पकाने पर गलने से रह जाता है। जैसे-चावल कनिका--संज्ञा पुं० [सं० कणिका] किसी वस्तु का बहुत छोटा की'कनी, बछ झी मनी । ५. वैद। छोटी वृंद । उ० --संग्राम विशेष—यह पालकीवाल जीन की एक नाप जो कनिष्ठक-सा बहुत छोटी । सपसे छति