पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२६

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घटी ५४० उघटा'--वि० [हिं० उ घटना] उघटनेवाला। किए हुए उपकार को हुआ स्थान । उ०—(क) पावस वरपि रहे उघारे, सिंसिर बार वार कहनेवाला । एहसान जतानेवाला । जैसे-भकटे का समय वसि नीर मझारे ।-पद्माकर (शब्द०)। (ख) रग गयो खाइए उघटे का न खाइए। उखरि कुरग भयो परे परे, हारे उघारे मारे फू क के उडत उघटा--संज्ञा पुं० [सं०] उघटने का कार्य । है। कोशी राम राम सो परशुराम ऐसो कहतो तोरते घनुप उघडना--क्रि० प्र० स० उद्घाटन प्रा० उधाडण] १ खुलना । ऐसे ऐसे वलकत है ।--हनुमन्नाटक (शब्द॰) । अविरण का हटना । (अावरण के सबध में )। २ खुलना । उघूरारा+----वि० खुला हुअा 1 खुला रहनेवाला । अावरण रहित होना । ( प्रवृत्त के अवध मे )। उ०--सुपन उघरावना-क्रि० स० [हिं०] दे० 'उगाहना' । उ०--अटक गोपी में हरि दरसे दीन्हो, मैं न जाण्यो हरि जात। नैन म्हारा | मही दाण उघरावर्ज पावजै अधर रस गोरधन पास |--बाँकी उधड अाया, ही मन पछतात । —सूतवाणी, पृ० ७० । ग्र ० अ० ३, पृ० ११६ ।। ३ नंगा होना। उघाई--संज्ञा स्त्री० [हिं० उगाही] दे० 'उगाही'। उ०--माहे और मुहा०-~-उघडकर नाचना == खुल्लमखुल्ला लोकलज्जा छोटकर। उघाई अादि की भूली मूलाई रस्मो को लोग ऊपर चट कर मन माना काम करना । जाते थे --श्रीनिवास ० ग्र०, पृ० ३७४ ।। ४ प्रगट होना । प्रकाशित होना 1 ५ भडा फूटना। उघाड़ना--क्रि० स० [सं० उद्घाटन, प्रा० उग्घाडण, उघाडण] १। मुहा०--- उघड पडना खुल पडना । अपने असल रूप को खोल खोलना । अावरण को हटाना ( अावरण के संबंध में )। देना। भेद प्रकट कर देना । दे० 'उघटना' । २ खोलना। आदरणरहित करना ( प्रवृत के सवध मे)। उघन्नी- सज्ञा [स० उद्घाटिनी, हि० उघारिनी] ताली । केजी। ३ नंगा करना। ४ प्रकट करना 1 प्रकाशित करना। ५ गुप्ते चा भी । बात को खोलना । मडा फोडना । उधरना--क्रि० अ० [सं० 'उद्घाटन, पा० उग्घाडण] १ खुनना। उघाना -क्रि० स० [सं० उद्ग्रहण] 'उगाहना' । उ०—-सी तह आवरण का हटना (अावरण के संबंध में) । उ० (क) वैष्णवन सो जाइकै मिलेगो तत्र वैष्णव तोको भेंट उधाय जैसे--मपनो सोइ देखियत तैस यह संसार | जात विलय ह्व देईंगे ।-दो सौ वादन, भा॰ २, पृ० ११६।। छिनक मात्र मे उघरत नैन किवार —सूर (शब्द॰) । (ख) | उघार-सज्ञा पुं० [हिं० उघारना ] उघारने की क्रिया या भाव । सूरदास जसुमति के अागे उघरि गई कलई ।—सूर (शब्द०)। उघार- संज्ञा पुं० [हिं० ओहार] परदा । अविरण । २ तुलना । आवरणरहित होना ( प्रवृत के सवध मे )। उघारना-क्रि० स० [सं० उद्घाटन, प्रा० उग्घाडण] १ खोलना। उ०--उधरहि विमल विलोचन ही के ।—मानस, ६।१। ढाँकनेवाली चीज को दूर करना ( अावरण के अवध मे )। नंगा होना । उ०—ावत देखहि विषय वयारी । ते हटि देहि कपाट मुहा०-उघरकर नाचना = लोकलज्जा छोडकर खुल्लमखुल्ला उघारी ?--मानस, ७/११८ । २ खोलनी । अबिरग्रहित मनमाना काम करना। उ०--(क) अव हौं उपरि नच्यो करना। नगा करना ( आवृत के सुवघ में ) 1 उ०-( क ) चाहत हाँ तुमहि विरद विन करिहौं !-सुर०, (विनय) १३४। तब शिव तीसरे नयन उधारा, चितवत काम भयेउ जरि छोरा । (ख) दुविधा उर दूरि भई गई मति वह काँची। राधा ते —मानस, १८७ 1 (ख) विदुर शस्त्र सव तही उतारी, चल्यो आपु दिवस भई उघरि नाँची ।—सूर, १०। १९१० । ४ प्रकट होना 1 प्रकाशित होना । उ०—(क) छतौ नेहु तीरथनि मुड उघारी ---सूर० ( शब्द०)। (ग) मनहुँ काल तरवारि उघारी -तुलसी (शब्द॰) । ३ प्रकट करना । कागर हियँ भई लखाई न टाँकु । विरह तचे उघरघौ सु अव सेहुड कैसौ अकु ।—विहारी २०, दो० ४५७ । ख) ज्यो प्रकाशित करना। ४ कुआँ खोदने के लिये जमीन की पहली खोदाई। ज्यो मेद लाली चढे त्यो त्यो उधरत जाय ।--विहारी।

  • उघारा-वि० [ हि० उघारना ] उघडा हुआ । आवरणहीन । नंगा ।

(शब्द०)। ५ असली रूप में प्रकट होना। असलियत का निर्वस्त्र ।। खुलना । भहा फूटना । उ०—(क) चरन चोच लोचन रगौ उधेड़ना--क्रि० स० [ ब्रुि० दे० 'उघाडना' । विवरन समय वैक उधरत तेहि उघेलना -क्रि० स० [हिं० उघारना] खोलना । उ०-कित तीतिर काल —तुलसी (शब्द॰) । (ख) उघरहि अत न होइ निवाहू । वन जीभ उघना । सो किंत हेरि फांद गिवें मेला । कालनेमि जिमि रावन राह —मानस, १।७। (ग) दाई अर्गे -जायसी ग्र०, पृ० २८ । पेट दुरावति, वाकी बुद्धि प्राजु मैं जानी। हम जातहि वह उचत--सुज्ञा पं० [हिं० उचाना = उठाना, लैना ] ऊर ही ऊपर लेने उपरि परंगी दूध दूध पानी सो पानी--सूर०, १०।१७२३ । । देन करना । ऊपर ही ऊपर सामान्य लिखापढ़ी पर घन लेना। उधरनी-नज्ञा स्त्री॰ [हिं०] दे॰ 'उघन्नी' ।। उचतखाता–संज्ञा पुं० [हिं० उचत + खाता ] बही या पजी में वह उघरानी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० उदग्रहण अप० उगहरण] दे॰ 'उगाही । खाता जिसमे उचत मे दिया गया धन लिखा जाता है। उ०-म्हारी' । शगरी उधुराणी डूब जासी ----श्रीनिवास उचq- वि० [ सं० उच्च ] दे० 'उच्च' । उ०--कसे कचुकी मैं दुवौ । ग्र०, पृ० ५७ । उच कुच करत विहार, गुमज' के गजकुम के गरभ गिरावन- उघरारा'@f-संज्ञा पुं० [हिं० उघड़ना, उधरना] [स्त्री॰ उघरारी]खुला हार -६० सप्तक, पृ॰ ३५३ ।