पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२५७

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७७१ कनकजी। कद्र - सवा स्त्री० [स०] १. पुराणनुमार कश्यप की एक स्त्री जिससे कनउड़ी --वि० [हिं० कनौडा दे० 'कनौड़ा' । उ०----हुमै जु सर्प पैदा हुए थे। उ०—कद्र विनतहि दीन्ह दुख तुम्हहि लग कनउड काढू न कीन्हें । पारवृती तुप प्रेम मौन मोहि कौसिल देव ।--मानस, २ । १६ २. सोमपात्र !--प्रा० मा लीन्हेउ --नुलसी (शब्द॰) । १०, पृ० १४१ । कन्क'.-सज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । सुवर्ण । स्वर्ण । उ०—–अन्न कद्र क-सज्ञा पुं० [सं०] वैल की पीठ पर उठा हुअा मासल भाग । कनक भाजन 'मरि जानी । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना। | डिल्ला (को॰] । —मानस १।१०१।। केद्वद-वि [स]1 बुराई करनेवाला। २. भ्रष्ट्रवक्ता । अस्पष्टवक्ता यौ-- कनककदली । कनककार । कनकरि। कनकाचल । [को०)। कद्वर-सज्ञा पुं० [सं०] छाछ । मंठा (को०] ।। कनकवल्ली=स्वर्णलता या सोने की वेल । उ०—मान सूर कवी–क्रि० वि० [हिं० कद +ही (प्रत्य॰)] कभी । किसी समय । कनकवल्ली जुर, अमृत वूद पवन मिसे झारति ।-सूर०, उ०—(ख) म के माहि केवी नहिं परिहै ।—घट०, पृ० १०] १७५३ 1 कनरेखा=मूर्य को अभा से प्रभात यो २३६। (ख) नही इपक जिसे वह वडा कूढ है । कधी सायकल प्रकाश में पड़नेवाली सुनहली रेखा । उ०—प्रथम कनकरेखा प्राची के माल पर !-अनामिका, पृ० ७७ । उससे मिलु वै चिया जाये ना ---दक्खिनी॰, पृ० ७६। । यौ०-- कधी कयार कभी कभी । भूने भटके ।। २. धतूरा । उ०—कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय । कन'- सङ्वा पुं० [सं० फर कन] १ किमी वस्तु का बहुत छोटा विहारी (शब्द०) । ३ पलास ! टेसू । डाक 1 ४, नागकेसर । हुरड़ा। जर्रा । उ० - विधि केहि भाति घरौं उर धीर। सिरिस ५ खजूर । ६ छपय । छंद का एक भेद । ७ च (को०)।६. सुमन कन वैधि में हीरा ।—मानस, १ । २५६ । अन्न का कालीय नाम का वृक्ष (को॰) । एक दाना । उ०—जैसे कन विहीन ले घान । धमकि धमकि कनक- संज्ञा पुं० [सं० कणिक गेहूं का आटा] १ गेहूं का आटा । कूटते ग्रापान।नद० प्र०, पृ० २६६ । ३ अन्न की किनकी । कनिक । २. गेहू । अनाज के दाने का टव डा । ४ प्रसाद । जूठन । ५ कनक- सुज्ञा स्त्री॰ [फा० खुनुको] नमी । ग्रार्द्रता । शीतलता। भीख । भिक्षान्न । उ०—कन दैन्य सौप्यो ससुर बहू थोरहुयी। । उ०—रात भीज जाने से हवा में कनक आ गई थी ।-अभिशप्त, जान । रूप रहच लगि लग्यौ माँगन सब जग अन् ।विहारी । पृ० १२६ । (शब्द०) । ६ बुदे । कतरा । उ०—निज पद जलज विलोकिकनककदली- सुज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का केला । से करते नयननि वारि रहत ने एक छन् । मनहु नील नीरज कनककली--सूझा पुं० [सं० कनक + हि० कली] कान में पहनने का ससि सभव रवि वियोग दोउ श्रवत सुधा कन !-तुलसी एक गहन । लौंग । उ०—चौतनी सिरन, कनकक भी कानन (शब्द०)। ७ चावलो की धूल ! कती । जैसे,—इने चावलो कटि पड, पति सोहाए ।—तुलसी (शब्द॰) । में बहुत कन है। ८. वालू या रेत के कण । उ०-अफ कन के न के कनककशिपु७, कनककसिपु -संज्ञा पुं० [स० कनक = हिरण्प+ माला कर अपने कोने गूध वनाई --सूर (शब्द॰) । ६. ।। । + कशिपु] ३० ‘हिरण्यकशिपु' । उ०—कनककसिपु अरु हाटक कनवे या कली का महीन अकुर जो पहले वे जैसा दिखाई लोचन । जगत विदिते सुरपति-मद-मोचन ।—मानस, ११२२ । पड़ता है। १० शारीरिक शाक्ति । हीर । संत । जैसे,— कनककूट-संज्ञा पुं॰ [स० कनक+कूट] सुमेरु पर्वत । चार महीने की बीमारी से उनके शरीर में कन नहीं रहा । कनकक्षार–सचा पु० [सं०] सोहागा । कन--संज्ञा स्त्री० [स० कृण > हि० कान का समसिगत रूप] कान ।। कनकगिरि–सा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत । । जैसे,—केनपेडा, कनपटी, कनछेदन, कनटोप । कनकशेल--सज्ञा पुं० [सं०] ३• 'कनकगिरि'। कनखिया---स स्त्री० [हिं० कनखियाँ] ३० 'कनखिया' । उ०— कनकचपा--सज्ञा पुं० [सं० कनक+हि० चपा] मध्यम प्रकार का कन अँखियो से वडे की तरह देखकर मुस्कराती था ।—यी। | निवास ग्र०, पृ० २९० । एक पेड़। कन अँगुरी--सज्ञा सी० [स० कङ्गल= हाथ +हिं० ई (प्रत्य०) ! विशेप-इसकी छाल खाकी रंग की होती है। इसकी टहनियों दे० 'कनउँगली' । उ०—कन अँगुरो ऊधर तिन लागे । और फल के दलो के नीचे की हरी कटौरी रोएँदार होती है। केवर मा०, पृ० १५६८।। इसके पत्ते वड़े और कुम्हडे, नेनुए ग्रादि की तरह होते हैं। कतई।--सा स्त्री० [स० कात्र या फन्दल कनवा। नई शाखा । । फल इसके खुव सफेद और मीठी सुगंध के होते हैं । यह दलदलों | कल्ला । कोपल । में प्रायः होता है । वसत ग्रौर ग्रीष्म में फूलता है। इसकी नई+---सा श्री० [स० कर्दम, प्रा० कद्दम, कंदो, कोदो, लकड़ी के तने मजबूत और अच्छे होते हैं । इसे कनियारी भी कांदव, केदईगीली मिट्टी । गिन्नावा । होला । कोच ! कुन गली--संज्ञा स्त्री० [स० फनीयान, हि० कानी+हिं० उँगली] कनकजीरा-सा पु० [स्व० कनक+हिं० जीरा एक प्रकार का | कनी उँगली । सबसे छोटी उँगली । कनिष्ठिका । महीन धान जो अगहन में तैयार होना है। इसका चावल बहुत दिनो तुक ह सकता है।