पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२५६

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फदवी ७७ कद्र ।। विशेप—यह वरमा और आसाम में बहूत होता है । इसकी लक) कदीम'---वि० [अ० फुदोम] पुराना । प्राचीन । पुरातन । उ० - जहाज बनाने में बहुत काम आती है। इसके पेड डिको के - यकीन जय मे वई वन्दा हूँ कदीम ।-इविपनी०, पृ० ११ । किनारे लगाए जाते हैं । कदीम--सज्ञा पुं॰ [देश॰] लोहे के छई जो जहाजों में वोझ इत्यादि ३ काले और लाल रग का एक हिरन जिसका स्थान महा मारत ' उठाने के काम में आते हैं। | अादि मे कवोज देश लिखा गया है। कदीमी–वि० [अ० कदीम+फा० ई (प्रत्य॰)] प्राचीन काल यौ०—कदलीपुत्र = केले का पता ।—वण ०, पृ० ३१ ।' का। पुराने समय का । पुरातन । उ०---खानैजाद कदम कदली–सज्ञा पुं॰ [स० कदलिन्] हिरन का एक भेद [को०] । 'कहियो तुही आसरो मेरो ।—चरण० बानी०, पृ० ६१ । कदुष्ण-वि० [सं०] इतना गर्म कि जिसके छूने से त्वचा न जले । कदलीक्षता--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ परवन । पटोल । २ सुदर स्त्री ।। | थोड। गर्म । शोरगर्म । सीतगरम । कोसा ।। सूदरी [को॰] । कद्रत---सज्ञा पुं० [अ० फु दूरत] रजिश । मनमोटाब । कीना । कदा–क्रि० वि० [सं०] कव । किस समय । क्रि० प्र०—आना ।—रखना ।होना ।।। मुहा०—यदा कदा = कभी कभी । अनिश्चित समय पर । कदे --अव्य० [हिं०] कव । कमी । किस समय । उ०~कदाकार-वि० [सं०] बुरे प्रकार का । बदसूरत । | (क) जव मिलों राव हम्मीर तुम, बहुरि ममै वं' है कदे । कदाख्य--वि० [सं०] वदन। म । । । । । --हम्मीर रा०, पृ० १३८ । (ख) सेवा भाव दै नहि चौरे । कदाच --क्रि० वि० [स० फदाचन] शायद । कदाचित् । उ०— सदर प्र०, मा० १, पृ० ६६ । कौन समौ इन वतन को रण राम दही घर में पटरानी। राम कद्द'--सज्ञा स्त्री० [अ० फद्द वैमनस्य । हेप । हठ । [को॰] । के हाथ मरे दशकधर ते यह बात सु काहे ते जानी । और कद्द-सशा पु० [अ० केद] ३० कद' ४ । उ०-कारे कद भारे कदाच बने यहि भाँति तो आज वने कहू कौन सी हानी ।'देह' भीम दीरघ'दतारे जौन, जलघर धार ज्यो फुहार फुफकारै ते ।। छटे हू ने सीय छठी चलिहै जग मे युग चार कहानी - -हम्मीर०, १० २३ । हनुमान (शब्द०) । कद्दावर--वि० [हिं० कद+फा० आवर (प्रत्य॰)] बडे डीन डौल ' का । लत्रा चौड़ा । कदाचन--क्रि० वि० [स०] १ किसी समय । कभी । २ शायद । कृद्दी --वि० [हिं० फदी) मं० 'कदी'-१ } कदाचार- संज्ञा पुं० [स०] [वि. कदाचारी] बुरी चाल । बुरा । कद्दीG}--कि० वि० [हिं० कैदी दे० 'कदी'-२ । अचरण । वदचलनी । कडू- सज्ञा पुं० [फा०] १ लौकी । लौवा । चिया । गढेरू । उ०-- कुदाचारी--वि० [म० कदाचारिन् ]बुरे प्रचणवाना । कुचाली(कौ० । आजकल कद्द, (काशीफन) के स्वगुम पुष्प भी खिले थे 1--- कदाचि(५-- क्रि० वि० [स० कदाचित् ] दे० 'कदाचित् 1, ३०---जौ किन्नर, पृ० ७२ । '२' लिन !---बाजा) । | कदाचि मोहि माहि तो पुनि होउँ सनाय ।—मानस, ४।७। कद्द कश-सा पु० [फा०] लोहे पीतन अादि की छोटी चौकी कदाचित्--क्रि० वि० [सं०] कभी 1 शायद कभी । । जिसमे ऐसे नवे छेद होते हैं, जिनका एक किनारा उठा और कदाचित--क्रि० वि० [सं० कदाचित्] कमी । शायद कभी। उ०— दूसरा दवा होता है। इस पर कट्ट, को रगड़कर रायते अदि के अस सुयोग ईस जव करई । तवहु कदाचित सो निरु लिये उसके गहीन टुकड़े करते हैं । । अरई -—मानस, ७ 1 ११७ । । कद्द दाना--संज्ञा पुं० [फा०] पेट के भीतर के छोटे छोटे सफेद कड़े कदापि---क्रि० वि० [सं०] कभी भी । किसी समय । हगिज । | जो मल के साथ गिरते हैं। विशेष—इसका प्रयोग निषेधार्थक शब्द 'न' या 'नही' के साथ ही केद्र-संज्ञा पुं० [अ० कद्र] १ गुण की परख । २ को मत । ३। होता है । जैसे,--- ऐसा कदापि नहीं हो सकता ।।। सत्कार । अादर ।। कद्रदान–वि० [अ०, कन्न+फा०, दान (प्रत्य॰)] गुणग्राहक कदामत--सज्ञा स्त्री० [अ० कंदामत] १ प्राचीनता । पुरानापन। । गुण पहचाननेवाला ।। । ३ प्राचीन काल ! सनातन। कद्रदानो---सशी सी० [अ० फद्र +फी दानी (प्रत्य॰)] गुण की कदाहार-सञ्ज्ञा पुं॰ [म०] दूपित या निकृष्ट भोजन [को०] । परख । गुणज्ञता। गुणगाहकता । उ०--मोटे अक्षरो मे कदाहार.. संज्ञा पुं० [स० कदा+अाहार] अनियमित समय का राजासाहव की कद्रदानी र उदारता की प्रशसा के साथ भोजन 1 जव तव भोजन करना (को॰] । । । खिलाड, को विजयपत्र देने का समाचारपत्र था ।-- कदियक - क्रि० वि० [हिं० दे०'कमी' । उ०---कदिपक अावे कोटडी अभिशप्त, पृ० ६८ ।। | छिपतो छिपतो छल ।—बाँकीदास ग्र०, मा०, २, पृ० १३ । कद्र ...-सज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षपुत्री और कश्यप की पत्नी जो नागों की कुदी-वि० [अ० कई =5) हठी। जिद्दी । । । माता थी-[को०] । ... - कदी--क्रि० वि० [सं० फवा] कभी। उ०--करै कमाई जो कछु, कद्र-वि० [पुं०] १. पीतवर्ण । २. वहुरगी । ३. धब्बेदार [को॰] । कदी न निष्फल जाय -कवीर सre, पृ० ४६६ ।। कुद्र जसज्ञा पु० [सं०] सर्प । नाग । साँप । अ ॥