पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२५३

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कॅथारि कदेवन (१) कया होना । (२) कथा प्रारंभ होना। कथा वैठना= कथावस्तु--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] नाटक या आख्यान आदि का कथन या फया कहने के लिये किसी व्यास को नियुक्त करना , कहानी । वि० दे० 'वस्तु'-५ । यो-कथामुख । कयारंभ । कयोदय । कयोद्धात = कथा का कथावात--सज्ञा स्त्री॰ [स] अनेक प्रकार की बातचीत । | प्रारभिक माग । कयापीठ कथा का मुख्य नाग । कथिक-संज्ञा पुं० [हिं० कथक ३० 'कत्यक' । ३ उपन्यास का एक भेद । कथिक–वि० [सं०] १. कथन या वर्णन करनेवाला । १ कहानी विशेप–इसमें पूर्वपीठिका अौर उत्तरपीठिका होती है। पूर्व- कहनेवाला [वै] । पौठिका में एक वक्ता और एक या अनेक स्रोता बनाए जाते हैं। कथित-वि० [सं०] १ कहा हुअा। २. अपुष्ट कैयन् । श्रोता की ग्रोर से ऐसा उत्साह दिखनाया जाता है कि पढनेवालों कथित–सज्ञा पु० [सं०] मृदग के वीरहु प्रवंधो मे में एक प्रबंध । को भी उत्साह होता है। वक्ता के मुंह से सारी कहानी कहलाई ,कथी - सच्चा सौं० [सं० कथित] कयनी । जाती हैं। क्या की समाप्ति में उत्तरपीठिका होती है ! कथीर-सज्ञा पुं० [सं० कस्तोर, पा० फत्थर]फा । हिरनखरी रांगा । इनमें वक्ता और थोता का उठ जाना ग्रान् उत्तरदशा दिखाई उ०—(क, कचन केवल हरिजन दूजी कथा कथोर । - जाती है। कवीर (शब्द॰) । (ख) अव तो मैं ऐसा भया निरमोलिक निज ४. बात । चर्चा । जिक्र । नाम 1 पहले काच कथीर था फिरता ठामुहि ठाम 1—कबीर क्रि० प्र०---उठना }---चलना ।—चलानी । (शब्द॰) । (ग) जहैं वह वीरज परयो सुनी । रेम भई तह की ५. समाचार 1 हाल । ६ वादविवाद । कहासुनी । झगडा । सब चीजे । ता ऋगे की चीजें रूपो । होत भई पुनि लोह मुहा०—-कथा चुकाना = (१) झगड़ा मिटाना। मामला खतम अनूप । जहें बह वीरज कोमल छायो । तहँ कथीर भो राँग करना । (२) काम तमाम करना । मार डालना । उ०-- सोहायो !—पद्माकर (शब्द॰) । मेघनादै रिस अाई, मंत्र पढि के चलाइयो बाण ही में नाग कयौल-सच्चा पु० [हिं० फयोर) दे० 'कथीर' । फासे बड़ी दुख दाइनी ।' काहे की लराई, उन कथा की कथीला--सुज्ञा पुं० [हिं० कयीर] दे॰ 'कथील' । चुकाई जैसे पारा मारि डारत है पल में रसाइनी ।-हनुमाने कृयोद्घात -सा पुं० [म०] १. प्रस्तावना । कयाप्रारंभ । २ (शब्द॰) । (नाटक मे) सूत्रधार की बात, अथवा उसके मर्म को लेकर कथाकार--संज्ञा पु० [सं०] कथावाचक । उ०—अज में अब भी जो पहले पत्रिका रंगभूमि में प्रवेश और अभिनय का आरंम् । कयाकार अर्थात् श्रीमद्भागवत आदि की कथा वाँचने आते जैसे,—रत्नावली मे सूत्रधार की बात को दोहराते हुए हैं 1-पोद्दार अभि० ३ ०, ४८१ । यौगधरायण का प्रवेश । सत्य हरिश्चंद्र मे' सूत्रधार के जो कथाकोविद---वि० [सं०] कथा कहने में कुशन । उ० -- कथाकोविद गुन नृप हरिचंद में' इस वाक्य को सुनकर और उसके अर्थ को ग्रामवृद्धों में उसी प्रकार के माधुर्य का अनुभव किया था ।-- ग्रहण करके इद्र का ‘यही सत्य भय एक के' इत्यादि कहते रस०, पृ० १३ । हुए गभूमि में प्रवेश । कथाकौशल-उज्ञा पुं० [मृ०] १ कया कहने की प्रवीणता। चौंसठ । | कथोपकथन--सझा पु० [सं०] १. बातचीत ! गुफ्तगू । २ बादकला में एक कला । उ०—कृयाकोलि, सुचीकर्म, शास्त्र | विवाद ।। विद्या, एवविध चतु पप्टि कला कलाकुशल नायक देषु ।-- वर्ण०, पृ० २१। २ कहानी रचना का कौशल ! कथा---सच्चा स्त्री॰ [स० कथा] कथा । वार्ता। कहानी। उ०--आदि कथानक--सज्ञा पुं० [सं०] १. कथा । २. छोटी कथा । घड़ी कया अत जसि कय्या अहै ! लिखि भाषा चौपाई कहै ।—जायसी का साराश । कहानी। किस्सा ।' | ये ० (गुप्त), पृ० २४ । कनिकाना स्त्री० [सं०] उपन्यास का एक भेद । कथ्य--वि० [त०] कहने योग्य । कयनीय | जो कहना उचित हो। विशेप--इसमें सव लक्षण कथोपन्यसि ही' के होते हैं, पर अनेक कदव--सबा पु० [सं० कदम्च] १. एक प्रसिद्ध वृक्ष । कदम १२ समूह । पात्रों की बातचीत से प्रधान कहानी कहनाई जाती है । ढेर । झुड [ उ०—(क) यहि विधि करेहु उपाय कदंवी । कथापीठ-सृज्ञा पुं॰ [सं०] कथा की प्रस्तावना। फिरहिं तो होय प्राण अवलवा !-—तुलसी (शब्द॰) । (ख) कथाप्रवच-सज्ञा पुं० [सं० याप्रघ] कया की गठन या वदिश । सोहत हार हिये हीरन को हिमकर सरिस विशाला । अंबरेख उसो सव हेतु कहब मैं गाई । कथाप्रबंध विचित्र कौस्तुभ कदंव छवि पद प्रलंव वनमाला --रघुराज (शब्द०)। | वनाई ।-मनिस, १, ३३ ।। ३. एक प्रकार का तृण । देवतडिक (को०)। ४. सरसों का कथाप्रस ग- सज्ञा पुं०[सं० कथाप्रसङ्ग] अनेक प्रकार की बातचीत । पौघी (को०) । ५. धूलि (को०) । ६ सूगध (को॰) । उa:--तब नारद मबही समुझावा । पूरब कथा प्रसंग सुनावा। कुदवक--संज्ञा पुं० [स० कदम्वक दे० 'कदंब' । —मानस, ११e८ । २ बातचीत का क्रम । ३ विपवंद्य । कुर्देवकोरक न्याय–सच्चा पु० [स० कदम्बकोरफ न्याय] दे॰ 'न्याय' विपचिकित्सक । संपरा । मदारी ।। ये] । फयामुख-सम्रा पु० [स०] अाल्याने या कृयाय थ की प्रस्तावना । । कृदन--सा पु० [स० कदम्वन्ट] एका राग ।