पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२५२

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कत्थर कैथ। कत्थ-सज्ञा पु० [सं० कया था 1 बात । चर्चा। उ०—तब वोल्यो कुथडी-सज्ञा स्त्री० [हिं० कयरी ]दे० 'कथरी' । उ०---खिसक गई कुर्थों विचार । सुनि ससिवत कत्य इक सार --पृ० की कथडी, ठिठुर रहा अब सर्दी से तन ।—ग्राम्या, पृ० ६६ । रा०, २५। ७६ ॥ | कथन-संज्ञा पुं० [सं०] १. कहना । वखान । वात । उक्ति । कत्थई-वि० [हिं० फत्था), कत्थ+ई (प्रत्य०)] खैर के रग का । यौ०-- कथनानुसार । खैरा (रग)। २ उपन्यास का एक भेद । विशेष—यह रग हरे, कसीस, गेरू, कत्थे और चूने से बनता है। विशेष—इसमें पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिका नहीं होती, पर इसमे खटाई या फिटकरी का बोर नही दिया जाता । कहनेवाले के नाम अादि का पता प्रसग से चल जाता है। कत्यक---सज्ञा पुं० [सं० कृयक]१. जाति जिसका काम गाना, बजाना कहनेवाला अचानक कथा प्रारंभ करता है और कहनेवाले की । और नाचनी है। २. नृत्य की एक शैली। उ०—कत्थक हो। वक्तृता की समाप्ति के साथ ग्न थ समाप्त हो जाता है। या कथकली या वालदास ।—कुकुर०, पृ० १० । कथना —क्रि० स० [स० कयन] १. रचकर बात करना । उ०कत्थन-सज्ञा पुं॰ [सं०] डीग मारना [को॰] । जिमि जिमी तापस कयइ उदासा । तिमि तिमि नापहि उप कुत्थना-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] डीग को०] 1 विस्दासा । -तुलसी (शब्द॰) । २. कहना । बोलना। कत्था--सज्ञा पुं० [सं० क्वाथ] १. खेर के पेड़ की लकड़ियो को उ०—(क) बेण वजाय रास वन कीन्हो अति आनंद दरसायो। उबालकर निकाला हुआ रस जिसे जमाकर कतरे काटते हैं । लीला कथत सहसमुख तौऊ अजहू' पार न पायो —सूर ये कवरे पान में खाए जाते हैं । वि० दे० खेर' । ३ खेर का (शब्द०) । (ख) १० कथा, कवि चद सु उप्पम थोर । पेछ । कथकीकर । । विराजत पतिय कतिय चोर 1--पृ० १०, २१ । ३९ । कृत्थित-वि० [सं०] डीग में कथित [को०] । ३ निदा करना । बुराई करना । कत्थितव्य–वि० [सं०] अभिमान के साथ कथन योग्य (को०] । कथनो----संज्ञा स्त्री० [सं० कयन-+ई (प्रत्य॰)] १ वात् । कयन् । कत्ल-सज्ञा पुं० [अ० कत्ल] ३० ‘कतल' । कहना । उ०--(क) कथनी थोथी जगत में करनी उत्तम कत्ल-आम- संज्ञा पुं० [अ० कस्ल माम] सव लोगों की वह हत्या जो ।। सार। कई कवर करनी भली उतरे भव जग पार |--कवीर बिना किसी छोटे बड़े या अपराधी का विचार किए की जाय। (शब्द॰) । (ख) करनी है पातर मयनी है दोना ।-घरम०, कत्सर-सुज्ञा पुं० [सं०] कधी ये०] । पृ० ६५ । २. हुज्जत । वकवाद । कथ–अव्य॰ [स० कयम्] १ 'किस रूप मे। कैसे। किस प्रकार। क्रि० प्र०----कयना |--करना। कहाँ से । २ साश्चर्य प्रश्न में प्रयुक्त किये। कथनीय--वि० [स०] १ कहने योग्य । वर्णनीय । उ०—रामहि कथंकथित--सुज्ञा पुं० [सं० कथङ्कथित] प्रश्नकर्ता । अन्वेषक व्यक्ति । चितुव भाव जेहि सीयो । सो सनेह सुख नहि कथनीया - कथचित्-क्रि० वि० [सं० कथञ्चित] शायद । तुलसी (शब्द॰) । २. निंदनीय । वुर ।। कृथभूत--वि० [सं० कथम्भूत] कैसा । किस प्रकार का [को०] । कथर्माप--क्रि० वि० [स० कथम् + अपि] किसी प्रकार । जैसे तैसे। कथभूती--वि० [सं० कथम्मूत +ई (प्रत्य॰)] कथभूत से संवध बहुत कठिनता से । उ०—वैष्णव ग्र यो में उपलब्ध रखनेवाला। उ०—यह, किसो संस्कृत मे लेख का कथभूती ।। उल्लेख, उनके जीवनकृत विपयक हमारी जिज्ञासा को । अनुवाद न हो।-इतिहास०, पृ० ४०४ । कथमपि शात नहीं करते ।-पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० १६७ । कथ+सच्चा पु० [हि कत्या] कत्या । खे । कथरी–सज्ञा पुं० [पु० कन्या +रो (प्रत्य॰)] वह विछावन या कय@t- सज्ञा स्त्री॰ [K० कथा] दे० 'कथा' । चु०--एक दिवस ओढ़ना जो पुराने चिथडौ को जोड़ जोड़कर सीने से बनता है। कवि चद कुथु, केही अप्पनें भोन --पृ॰ रा॰, १ । ७६२ । गुदडी। उ०—पातक पीन कुदारिद दीन मलीन धरे कयरी कथक-सा पु० [सं०] १ कथा कहनेवाला । किस्सा कहनेवाला । करवा है ।—तुलसी (शब्द॰) । कथातर--सज्ञा पुं० [सं० कथान्तर] दूसरी कथा । किसी कथा के ३ पुराण बाँचनेवाला । पौराणिक । ३ नाटक की कथा का अतर्गत अन्य गौण कथा । वर्णन करनेवाला । एक पात्र या नट ! ५ दे० 'कत्थक' । कथा-सज्ञा स्त्री० [सं०] १ वह जो कही जाय । बात । उ०—वैरगिया नाला जुलुम जोर । नौं कथक नचावत तीन विशेप-न्याय में यथार्य निश्चय या द्विपक्षी के पराजय के लिये चोर ।-हिदी प्र०, पृ०। ५ प्रतिवादी (को०)। ६ मुख्य | जो बात कही जाय। इसके तीन भेद हैं --वाद, जल्प, वितडी । अभिनेता। सूत्रधार (को०) ।।। । यौ-कथोपकथन = परस्पर बातचीत । । कथकली सज्ञा पुं० [मम०] दक्षिण भारत को एक भावनृत्य शैली । २ धर्मविषयक व्याख्यान या अख्यिाने । उ०—-हरि हर कथा विशेष—इसमे पानं मे कथा गाई जाती है जिसे नर्तक मुद्रा विराजति वेनी ।--मानस, १ । २ । । द्वारा अभिव्यक्त करता है । । क्रि० प्र०—करना ।--कहना।—बाँधना ।—-सुनना ।—सुनाना। कथकीकर- सज्ञा पुं० [हि कथा+झीकर] कीकर की जाति का वह । —होना । ज हिले ताकर नार्वे * कथा करौं अगाहि । | वृक्ष जिसकी छाल से कत्था या खैरे निकलता है। खैर का पेड़। जायसी प्र ०, पृ० १ ।। कृयवकड़- सज्ञा पुं० [सं० कथा+क(प्रत्य॰)]बहुत कथा कहनेवाला। मुहा०—कया उठना=कथा बद या समाप्त होना । या बैठना==