पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२४८

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कृणज ७६२ केतना कणजा-सुज्ञा पुं० [हिं० कजा‘क जा' या के जा की गुदी जो कणेठी--वि० [स० कनिष्ठ]छोटा भाई। दे॰ 'कनिष्ठ' । उ ज्वर और चर्म रोग में उपयोगी है। उ०-कोसी कणजा राजा के कणठी वीर ऊदै पेत छोट्या --शिखर० पृ० ४६ । कानूनग वैधत ताई माँहि । जन रज्जव शीतल समै अस्तक कण-सज्ञा पुं० [सं० कणं, प्रा० कण्ण] कर्ण। कान । उ०—कण्ण छाडे नाहि ।-रज्जव०, पृ० १६ ।। समाइम अमिय तुज्झु कहते कन्त ।-कीर्ति०, पृ० ५६ ।। कणजीरक–संज्ञा पुं० [स०] सफेद जीरा । कण्व---सच्चा पुं० [सं०] १ एक मप्रकार ऋषि जिनके बहुत से मत्र कुणजीरा---सज्ञा पुं॰ [स० केजीरक] दे० 'कण जीरक' । ऋग्वेद में हैं । २ शुक्ल यजुर्वेद के एक शाखाकार ऋषि । कणप-सज्ञा पुं० [सं०] व रछा। भाला [को०] । इनकी संहिता भी है और ब्राह्मण भी 1 सायणाचार्य ने इन्हीं कणप्रिय संज्ञा पुं॰ [स०] गौरेया चिडिया । बाह्मन चिरैया। की संहिता पर भाष्य किया है । ३ कश्यप गोत्र में उत्पन्न एक कभिक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं०] वैशेषिक दर्शनकार कणाद मुनि (को०] । ऋपि जिन्होने शकुंतला को पाला या । कणभक्षक-संज्ञा पुं० [सं०] १ कणाद मूनि । २ एक पक्षी[को॰] । कत-सच्चा [सं०] १. निर्मली। २ रीठा । कणभुक्-सज्ञ। पुं० [सं०] दे॰ 'कणभक्ष' । । कत - सक्षा पुं० [अ० कत] देशी कलमे की नोक की प्राडो काट । कणभुज–सुज्ञा पुं० [स० कणभुक्] दे० 'कणभक्ष' । क्रि० प्र०----काटना ।---देना ।—मारना ।—रखना । लगान । कणमणना -क्रि० अ० [हिं० कनमनाना) दे० 'कन मनाना"। उ०-- यौ॰— कतगीर ।--ऋतजन । मारू तोइण कणमई, साल्हकुमर व साद | ढोला० कत--अव्य ० [स० कुत , पा० कुतो क्यो। किसलिये । काहे को । ६० ६०५। उ० --कत सिख देइ हुमहिं कोउ माई । गाल करई केहि कर कणा-सुज्ञा स्त्री० [सं०] पीपल 1 पिप्पली । बल गई ।—तुलसी (शब्द॰) । कणाच-सज्ञा पुं० [देश॰] केवच ! करेंच । कौंछ । कणाटीन-सज्ञा पुं॰ [स०] खजन पक्षी (को॰) । कत--वि० [सं० कियत् १ कितना । कितना । २ अधिक। कतअन्----अब्य ०[अ० कतअन्] सर्वया । विलकुल । हगिज (को॰] । कणाटीर--सधा पुं० [स०] दे० 'कणाटीन' [को०] । कणाटीरक---सज्ञा पुं॰ [सं॰] दे॰ कणाटीन' [को०)। कतई?--क्रि० वि० [अ० कतई] नितुति । निपट । बिलकुल । जैसे,—कणाद-संज्ञा पुं० [सं०] १ वैशेषिक शास्त्र के रचयिता एक मुनि । मैं उनसे कतई कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहता । उ०-- उलूक मुनि । २ सुनार । वादलो में सूरज का कही कही कतई कोई प्रभास 1–ठडी पृ० ३४ । कणामूल—सज्ञा पुं० [सं०] पिपरामू न । कृतई–वि० [अ०] १. अतिम । २ पूर्ण । ३. पक्का । कणासुफल-सज्ञा पुं० [सं०] अकोल । कणिक-सज्ञा पुं० [स०]१ कण । उ०—गुरु मुख कणिक प्रीति से यौ- कतई इन्कार = सर्वथा इनकार । कतई फैसला = अतिम पावै । ऊँच नीच के भरम मिटावे --कवीर सा०, भा० ४, निर्णय । कतई हुक्म = पक्का आदेश । पृ० ४१० । २ अनाज की बाली । ३ गेहूं का आटा। ४ कतक' संज्ञा पुं० [स०] १ निर्मली । २ रीठा । | शत्रु ! ५ अग्निमथ वृक्ष (को०] । कतक-~-वि० [हिं०] दे॰ कतिक'। कणिका --सज्ञा स्त्री० [सं०] किनका । टुकडा । जर। उ०—जिसकी कतकर -सज्ञा स ०[हिं० कातना+कर]कताई का काम करनेवाला ! कृपाकणिका के प्रसाद से यह शुभ अवसर । प्रेमघन॰, उ०--हिंदुस्तानी कतकरो और जुलाहो का सफाया कर दिया 1-मान०, पृ॰ ३२५ । कुणियपु–सच्चा पुं० [सं० का कार] दे० 'कनेर । कतकी–वि०सि० फातिकी कतिका सवधी । उ०—कतकी में गंगा कणिश–सच्चा पुं० [स]अनाज की वाल । जौ, गेहू आदि की वाल । । नहाने की बढी उमगें ।--अपरा, पृ० १६६ ।। कष्ठि -वि० [सं०] सवसे छोटा ) अति सूक्ष्म को०] । कतगीर-सज्ञा पुं० [अ० कत +फा० गोर दे० 'कतजन' । कणी-सज्ञा स्त्री० [स०] १ कणिका । कनी । २ एक अन्न [को० । कर्तजन—सञ्च। पुं० [अ० कतजन] लकड़ी या हाथीदांत का बना कणीक -वि० [स०] बहुत छोटा । अत्यल्प } हुआ एक छोटा सा दस्ता जिसपर कलम की नोक रखकर कणीची---सच्चा मी० [सं०] १ शब्द । ध्वनि । २ एक वृक्ष । ३ उसपर कत रखते हैं । शुकट । ४ पुष्पित लता [वै]। कतना'-क्रि० अ० [हिं० कातना] काता जाना ।। कणोसक-सक्षा जी० [स० कणिश) अनाज की बान । जौ, गेह केतना -क्रि० वि० [हिं०] दे॰ कितना'। उ०—कतने जतने घर | इत्यादि की बाल ।—(हिं० ।) | अए लाहू, केकर दधि दुध काजे।--विद्यापति, पृ० १६४ ।। कणेर-सधा पुं० [सं०] कनियार या कणिकार का पेड [को०] । । कतनी--संज्ञा स्त्री॰ [हिं० कातना]१ सूत कातने की टेकुरी । ढेरिया । कणेरा--सल्ला • [स०] १ हस्तिनी । २. वेश्या [को०] । २ वह टोकरी जिसमे सूत काटने के सामान रखे जाते हैं । कणेरु–सच्चा पुं० [स०] दे० 'कणेर' । कतन्ना–संज्ञा पुं० [हिं० कतरना] दे॰ 'ऋतरना' ।