पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२४७

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.--..- --...- - -- -- - कागज ७६१ कहलान दोष । (२) दाल में काला ! कुछ मर्म की बात । कोई भेद । कढलाना –क्रि० ० [सर काठना+लाना] घसीटना। घनीटकर" वासी कड़ी में उबाल स्नाना=(१) बुढापे में पुन युवावस्था बाहर करना। उ०—-नाहिन काँचो कृपानिधि, करो कहा की सी उभग ग्राना । (२) छोडे हुए कार्य को पुत करने के रिजाइ। सूर तबहू न द्वार चाई डाग्हिी कढई।- सूर हेतु तत्पर होना ।। (शब्द०) ! कढ़वाना--क्रि० स० [हिं० फाडना का प्रे० रूप] ३० ‘काना' । कढ झा'-वि० [हिं० दे० 'क्वा' ।। कहा -सच्ची पुं० [हिं०]३० कढ ग्रा' । कढ़ाई--मुझ ली० [हिं० काही] दे॰ काही' । कढे बा’---वि० [हिं० काढना] निकाला हुआ । कढाई--सी ही० [हिं० काढना] १ निकालने की क्रिया । २ निकालने की मजदूरी । निकलवाई 1 ३ बुटा कसीद निकाउने कृढ वा-सझी पु० १ रात का वचा देश भोजन जो बच्चो के वास्ते । सवेरे के लिये रख छोड़ते हैं । २ कर्जा ! ऋण । का काम । ४ वूटा कसदा बनाने की मजदूरी ! क्रि० प्र०--कातृन् ।-- देना। - लेना। कढ़ाना-क्रि० स० [हिं० काढ़ने का प्रे० रूप] निकलवान् ।। बाहर ३ मटके में से पानी निकालने का टोटा वरतन । बोरना । करना । विचवा लेना। उ०—सन इत्र वन पर बधन करई । बाल कढाइ विपति महि मग्ई ।—तुलसी (शब्द॰) । वोरका | पुरवा ।। कहाव- संज्ञा पुं० [हिं० काढ़ना] १ बूटे कसीदे का काम । २ कढ ई--वि० [हिं० काढदा कही से निकलकर या उड कर देल वुट का उभार। | लाई स्त्री ।। कढ़ाव+-सद्म पु० में कटाई, प्रा० फडाह] १ दे० 'कई ह’ | ३ कढई-सच्चा स्त्री० [हि काढ्नी व लघु पाय जिससे सामान सिखो का कडा प्रसाद अर्थत् हलु . जो कडाह में बनता है। निकालने का काम fन या जाय । उ०-याही गुत् नै कठाव वखानी !-धट, पृ० ३२२ । कढेरना--मज्ञा पुं० [हिं० काढना] सोने चांदी वा पीत । त3 इत्यादि कढावना --क्रि० स० [हिं० काढना का प्रे० रूप] निकलवान ।। में बर्तनों पर नकर राशी करने वालो वा एक औजार जिमसे वे वाहर करना । विचवाना। उ०—पुनि अञ्च कव;" कहसि लोग गोत्र गो र लकीरें डालते हैं। घरपोरी। दो घरि जी कढदिउँ तोरी ।—तुलसी (शब्द॰) । | कढ़या--सच्चा स्त्री० [हिं० कडाही] दे० 'डहीं' । कढ़ाह प्रसाद---संज्ञा पुं० [हिं०कडाह-सं०प्रमाद]६० 'कडा प्रगाद' वढया - सच्चा सुं० [हिं० काढ7] १ निरनिनेवा।। २ उद्धार उ०-६ निच ते कदाह प्रसाद (हलवे) की अपेक्षा चामनी । | करनेवाला । उबारनेवाला । बचानेवाला । में तैरते रसगुल्ले उसे अधिक लुभाने लगे ?--भस्मावृत०, कढेल –सच्चा स्त्री० [हिं०] दे० कढे या-' । पृ० ६९ । । कढल}–सद्या पु० दे० 'कढया-२" । । कढिराना--- क्रि० स० [हिं० कुठलाना] दे० 'कढ़लाना'! कठोरना -नि० सं० [सं० कपण, प्रा. फड्ढ] कनुलाना। कढिलना-झि० अ० [सं० कल्ल] रोग या दु ख से कराहना । १ड़े घसीटना । उ०—(क) तोरि यमकातरि मंदोदरी कढोरि आनी | रहकर छटपटाना । लेटे हुए घुसना या रिघुरना। रावन की रानी मेघनाचे महनारी है। भीर बाढ़ पीर की मुहा०—कढ़िल कढिलकर मेरना = घुल घुलकर मरना । उ०--- निपट राखी महावीर कौन के संकोच तुलसी के सोच भारी कहिले कढिलकर मौन पा चुके ।-वेगाल०, पृ० ६२ । है ।--तुलसी (शब्द॰) । (ख) करपि कढोरि दुरि ले गए। कढिहार-वि० [हिं० काढ़ना+हार (प्रत्य०}] १. उद्धारक । वहुत काठ दै दाहत भए ।-नद० ग्र०, पृ० २३९ । निकालनेवाला । २०--अस अवसर नहिं पाइहीं, धरौ नाम - सयोः क्रि०---डालना --लनि । क ढिहार ।—कवीर सा०, पृ० ५। । मुहा० -कलेजा कढोरना = हृदय कुरेदना ! जी कढोरना = मन कढी-सज्ञा घी० [हिं० कढ़ना= गाढ़ा होना]एक प्रकार का सालन । को वेचैन करना उ०-दाल भात घृत कढ़ी सलोनी अरु नाना पकवान । छारोगत नृप चारि पुत्र मिलि अति अानन्द निधन —सूर (शब्द॰) । कृढोल ना क्रि० स० [हिं०] ३ 'कढ़ोर ना । विशेप-इसके बनाने की रीति यो है-अग पर चढ़ी हुई काही कण--सुज्ञा पुं० [सं०] १ किनका । रवा । जरी । अत्यत में घी, हींग, राई र हुलदीं की बुकनी डाल दे । जब सुग, छोटा टुकड़ा। २ चावल की बारीक टुकडा । कना । ३. उडने लगे तब उसमें नमक, मिर्च समेत मठ में धोके । हुआ अन्न के कुछ दाने 1 दो चार दाने । ४ भिक्षा । ऐ० कन' । बेसन छोड दे और मदी अचि से पकावे । कोई कोई इसमें उ०--कण दैनो सौप्यो समुर बहु थोरइयी जानि !- विहारी वैसन की पकौडी भी छोड़ देते हैं। यह सालन पाचक दीपक, (शब्द॰) । हल्का और विकर हैं। कफ वायु और वज्रकोष्ठ का नाश कणकच--संज्ञा पुं॰ [देश॰] १ केवाच । कछ । कपिकच्छ । २ करता हैं । rf टी घट जानेवाला जोश 1 करंज। कजः । मुहा०—कडी का तो उबाल = शीत्र ही घट जानेवाला जोश ! (कटी में एक ही वार वाले अता है अौर घ्र ही दव जाना कणगच–सा पु० [हिं० फण कच दे० 'कणक च । है)। कड़ी में कोयला =(१) अच्छी वस्तु में कुछ छोटा सा कणगज--सा पु० [हिं०कएकच] दे० 'कणकच' । कढिक्रि० अ० [सं० हुए धुसना