पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२४१

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कठमुल्लापन कठिना' कठमुल्लापन- सज्ञा पुं० [हिं० कठमुल्ला +पन (प्रत्य॰)] कट्टरता। कठहंडी-संत्रा श्री० [स० काष्ठ +हुण्डी काठ की हडी जो अचार दुराग्रह। उ०—याद रखिए कठमुल्लापन जिस तरह धर्म में आदि रखने के काम आती है। उ०—बँडर खठि बँडोई खड़ी। घातक सिद्ध हुा है उसी तरह साहित्य में भी सिद्ध | परी एकतर से कठहंडी ।—जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० ३१३ । होगा |--कुकुम (भू०), पृ० ८।। कठहँसी--संज्ञा औ० [हिं० काठ+हेसी] जबरदस्ती की हँसी । कठमूरति सज्ञा बी० [हिं० काष्ठ+मूत[ १. काठ की मुठ ।। | बनावटी हँसी । कठोर हँसी । ब्यग हँसी । उ०—वावन कठ २. जगन्नाय जी की मूति । उ०-यो जहाँ कुश्मूरति अाहीं। । हँसी हँसते हुए कहा -मैला०, पृ० २६८। कवीर का रूप भयो तेहि पाही। कबीर सा०, पृ० ७० । कठहुज्जत- संज्ञा पुं० [हिं० काठ -+अ० हुज्जत व्यर्थ का झगड़ा या कठर-वि० [सं०] सब्त । कड़ा (को०] । | वादविवाद । बतंगड़ ।। कठरा-संज्ञा पुं॰ [स० काष्ठगृह, हि० कटहरा दे० 'कटहर' वा कठा' --क्रि० वि० [स० कयम्]दे० 'कहा"। उ०—(क) कठा तुक 'कटघरा'। जीव हिज जाएँ 1 रघु० रू० पृ० २४३1-(ख) कोटडियो बाध कठरा–स० पुं० [हिं० कठ+रा (प्रत्य॰)] १ काठ का संदूक । कतै, सो डाभी आज । वाँझी० ग्र०, भा० १. प० ५६ । २ काठ का वरतन । कठौता ! कठा -वि० [सं० कष्ट+ प्रा० कट्ठ, हिं० कठ+श्रा (प्रत्य०)] कठरी-तुझा ली० [हिं० कठुलो दे० 'कुठली । कष्टयुक्त । दुखी । उ०—अस परजर। विरह कर कठा । कठरेती --चझा औ० [हिं० कठ+रेती] काठ या लकड़ी रेतने का मेघ स्याम मैं धुआँ जो उठा—जायसी झ ० (गुप्त), -- | औजार । पृ० ३७० ।। कठला --सबा पुं० [सं० कंठ+ला (प्रत्य०)] एक प्रकार की माला , कठारा —सा पुं० [स० कण्ठ + किनारा+हिं० रा (प्रत्य॰)] या कंठा जैसी चीज । नदी या ताल का किनारा । विशेप---यह बच्चो को पहनाया जाता है और इसमे चोदी या सोने कठोरी–सुधा औ० [हिं० कठ+आरी (प्रत्य०)] १ काठ की की चौकियौ ताने में गुयी होती हैं। वीच बीच में वाध के नख, बरतन । २ कमल । उ०—उसके ऊपर सव साधुओ ने अपनी न्जरबट्ट,, तावीज ग्रादि नजर से बचाने के लिये गुर्थ रहते हैं। गुदडी तथा कठारी इत्यादि लाद ली E-कबीर मं०, १o१५४। कठलोनी —सच्चा स्त्री० [हिं० कठ+लवनी! (पुं० कठलोना) कठिजर--सच्चा पुं० [सं० कठिजर] तुलसी वृक्ष [को॰] । कठौती । कठडी । उ०-~-कठलोनि बीते सोवन मटाइ । पल्लान कठिका--सज्ञा स्त्री० [सं०] सेतखरी । खरिया [को०] । ऊच दविन चढाई 1-पृ० रा०, १४ । १२३।। कठिन'-.-३० [सं०]१ कडा । सरु । कटोर । २. मुश्किल । दुष्कर। कठवते -संज्ञा पुं० [हिं॰] दे॰ 'कठौता' ।। दुःसाध्य । ३. शूर । निर्दय (को०)। ४, तीक्ष्ण । उग्र (को०)। कठवल्ली-सच्चा स्त्री॰ [सं०] कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा की एक । ५. कष्ट देनेवाला । कष्टकारक (को॰) । उपनिषद् । • • कठिन -सुज्ञा स्त्री॰ [सं० कठिन]१ कठिनता। २ कष्ट। संकट। विशेप- इसमे दो अध्याय हैं। पहले अध्याय में नचिकेता की । उ०—-मही कष्ट दस मास गर्म वसि अधोमुख सीस रहाई । गया है । नचिकेता के पिता 'विश्वजित् यज्ञ करके सर्वस्वदान " इतनी कठिन सही तब निकयो अजहू न तु समुझाई ।---सुर देते समय बूढी गाय देने लगे। पुत्र ने पूछा-पिता । मुझे (शब्द०)। किसको दोगे ? तीन बार पूछने पर पिता ने चिढ़कर कहा- कठिन---सी पुं० [सं०] झाड़ी (को॰) । 'तुम्हें यमराज को देंगे'। इतना सुनते ही लड़का यमलोक कठिनई---सच्चा औ० [हिं० कठिन] १ कड़ाई । २ कठोरता । पहचा] वहाँ यमराज ने उसे ब्रह्म विद्या का उपदेश दिया, । उ०—(क) ऊधो जो तुम हेमहि बतायो । सो हम निपट उसी का वर्णन पहले अध्याय में है। दूसरे अध्याय में ब्रह्म को कठिनई करि करि या मन को समुझायो ।—सूर (राधा०), लक्षण बतलाया गया है। पृ० ५५३। (ख) पाई तुम मृदुताई भई कठिनई दुरि -- कठवा--संज्ञा पुं॰ [हिं० कठ+वा (प्रत्य॰)] १ काठ। २ तुलसी- - - दीन० ग्रं॰, पृ० ६२ । ३ संकट । दास (ल० तुलसी शब्द के कारण) । उ---सार । । कठिनता–सल्ला औ० [सं० कठिन] १ कठोरता। कडापन । सखी। सार मव अँधर कुहि गा कठवौ कहिस अनूठी । वची सूची सव जोनहा कहि गा अवर है सब झूठी (लोक०)। २. मुश्किल । असाध्यता । ३ निर्दयता । बेरहमी । ४. कृठसरेया- सच्चा स्त्री॰ [स० कटसारिका] दे॰ 'कटसरैया' ।। मजबूती । दृढता । . कठसेमल-सा पुं० [हिं० काठ+ सेमल] सेमल की जाति का एक कठिनताईq---संज्ञा स्त्री० [सं० कठिन +हि० ताई (प्रत्य॰)] दे० | प्रकार का वृक्ष। 'कठिनाई' या कठिनता' । . कुठसोला--संवा०[हिं० काठ = सोला]सोला की जाति की एक प्रकार कठिनत्व—संज्ञा पु० [सं०] दे० 'कठिनता' । को माडी या छोटा पौधा । कठिनपृष्ठ-सुज्ञा पुं० [सं०] दे० कृच्छप । कछुग्रा [को०] । विशेप-यह प्राय सारे 'भरिन, स्याम और जापान में होता है। कठिना'-.-सज्ञा सी० [सं०] १ चीनी को बनी मिठाई । ३ भोजन वर्षा ऋतु में इसमे सुदर फल लगते हैं। पकाने की मिट्टी का बरतने को॰] । २-२६