पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२३८

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केंटुकंद ७५३ कटौरिया विशेप-इएका प्रयो। 'पुर र भ है । है जहां दही का स्त्रीगि कटुरस-वि० जिसका रम या म्वाद कडवा हो किो०)। वाजते हैं। कटुरव-सद्मा पुं॰ [मु.] मेढक । दादुर । कटुकद---संज्ञा पुं॰ [म० कट कन्द] १ अदरक | ग्रानी । २ नमुन | कटुवचन-मा पुं० [स० कट+वचन] कडवी वान । उ०—अति लगुन । ३ मून । कटुवचन कहति कैकेयी -मानस, २२० । कटुक- वि० ०]१ कडुग्रा । कट । २ जो चित्त का न 'माते । जो कटु विपाक-वि० [सं०] पाचन में अन्तरसववेक [को०] । बुरा नगे । उ०—अर मधुर प्रधान ते कटक वचन जनि कटुम्नैह - मज्ञा पुं० [H०] मफेद सरसो (को॰) । वन । वन वटा पट लगि मुरन को मोन |– कटूक्ति-संज्ञा स्त्री॰ [स०] कडवी बात । अप्रिय वात् । रमें निधि (गब्द॰) । | कटूमर- सी मी० [स० कटु+उदुम्वर प्रयदा हि फट या कठ+ कटुकता--ज्ञा स्त्री० [म०] कर्क गना। नड्प न [को०] । | ऊमर] जुगली गूजर का वृक्ष । फटगू गर । कटुक्रय- मज्ञा पुं० [म०] मिर्च, मोठ और पीपल, इन तीन वस्तुस्रा करना---० अ० [हिं० केट + पूरना] किसी को बुरे भाव में | का 3। । दयना। नए दृष्टि से देखना ।। कटेरी--सज्ञा स्त्री० [हिं० कांटा] भटकटैया ।। कटु की--संज्ञा स्त्री० [स०] कुटकी । कटेनी--संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की कपास जो बनात प्राव में कटुकीट-भज्ञा पुं॰ [स०] मन्छर । डाँम 1 मा ।। | वनुतायत में होती है। कटुवा-संज्ञा पुं० [३०] टिट्टिम कौ] । कटेहर--सुज्ञा पुं० [हिं० काठ + घर हुल के नीचे की बहू कडी कटुx वि.---सुज्ञा स्त्री० [सं० कटुग्रन्थि] १. सोंठ । २ fiपर मूल । जिसमें फल वैठाया रहता है। खापा ।। क चातुजक -सुज्ञा पुं॰ [सं०] चार कडवो वस्तुग्रा का ममूह, कटैया –वि० [हिं० काठ ४ऐया (प्रत्य॰)काटना]१ काटनेवा। अर्थान् इलायची, तेज, तेजात अोर मिचं । जो काट डाले । उ०---एक कृपाल तही तुलशी दमरत्व के नंदन कटुच्छद-सज्ञा गु० [स] तगर वृक्ष (को०] । बदि कटैया ।--तुलसी (शब्द०)। फसल काटनेवाला । कछदक-सज्ञा पुं० [सं० टन्दफ] उरकट या तदए गंध । कटेग्रा—िसज्ञा पुं० १ काटनेवाला व्यक्ति । ३, फमल काटनेवाल। अथवा स्वादवाला कद । जैसे,—अदरक, मूवी, लहसुन, प्याज अादमी ।। अादि (को०] । कटे ग.-सज्ञा स्त्री॰ [स० कण्टकमटकटैया । उ०—दू के को पात कटुना-मना श्री० [मृ०] इवापन् । कईबाई । | कटैया, झाल अनिनि की जान --चरण० वानी, पृ० २६ । कतिक्नक-सज्ञा पुं० [सं०] १ मुनित्र । चिरायता । २ गण का कटैयाई४---सज्ञा झी० [हिं० कटिया] लवनी । फल की कटाई । पौवा । मनई कि०] । कटेला--सज्ञा पुं० [बैश०] एक कीमती पत्थर ! उ०--हिं प्रौर दुतिक्ता- सम्रा नी० [सं०] नित तोकी [को०] । फिटकिरी की वह खानें हैं, और माणूक, लहसुनिया, नीम, कटुतु डी-संच ब्री० [स० कट तुण्डी कटु नराई (को०] । कला, गोमेदक, बिल्लौर नदियों के बालू में मित्रता है। कटुतु वीडो - सी ग्त्री० [सं० कट्टतुम्वी] तितलौकी [३०] । शिवप्रसाद (शब्द०) । कटुत्व--सपा मुं० [सं०] व उपापन् । कटोर--सुज्ञा पुं०[न०]मिट्टी का एक छोटा छिछनपात्र या वरतन । कटुदला सा नी० [सं०] कर्कटी नाम का पौधा [को । | कमी किो०)। कटुप--सञ्च। सी० [सं०] भडे माँढ । नृत्यानाशी (को०] । कटोरदान–सुज्ञा पुं० [हिं० कटोरा+दान (प्रत्य॰)] पावल का एक कटुफन—सधा पुं० [सं०] कायफल । ढक्कनदार वरतन जिममें तैयार मंजिन अादि रखते है । कटुवीजा-सा मी० [सं०] बढी पोषन क्रिो०] । कटरा-मज्ञा पुं० [हिं०फाँसा +ोरा प्रत्य०} = के सोरा या म०कटोरा कटुभग ई० [स० कट ३३] मा [वै] । एक पुन मुह, नीची दीवार और चौटी पेंदी का छोरा कटुभा–सक्षा नी० [म० कटुभन] एक प्रकार की जग नी माँग परतन । साधु का प्याला 1 पता । जिसकी पत्तियों खाने में अहुत कडवी होती हैं (को] । मुहा०—कटोरी चताना = मश्वन ग चोर या माल का पत! लगाने के लिये कटोरा मुकाना। कटुभद्र--सा पृ. [म०] अदरक । प्रादी। विशेष—इसमें एक आदमी मत्र पढ़ता हुआ पीती सरसो डालता कटुभापी-वि० [अ० केटमायिन्] की बात तो नेवार (को॰) । जाता है और औरों से कटोरे को खूब दबाने के लिय कहता कटुमजरिका-सा नी" [१० पैट्रमन्जरिका] अपामार्ग । चिचिडा जाता है। के टोरा अधिक दाब पड़ने में किम न किसी और वसकता जाता है । जोगो का विश्वास है कि कटोरा वहीं कटुर'---सा पुं० [२०] छा। मछ। [यै] । झता है जहाँ चोर या माल रहता है। फटोरा सी भांख= कटुर–५० चुगिन । ३५ (०] । ' बडीं बहो और गोल अाँख । झट्टरस --सुथा पु० [स० कटु + रस] ठह प्रकार के रस में से एक ! कटोरिया--सज्ञा श्री० [हिं० कटोरी+इया (प्रत्य॰)] दे॰ इना रस घे] । ‘कुटो' ।