पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२३०

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छ 1७४४ कजरियाना रहते हो । काछियो की वस्ती । २ वह स्थान जहाँ काछी लोग फजफहुम = उलटी सीधी मम्झना । नाममझ। करिनार ३ सगि भाजी आदि वोते हो। टेढ़ी चालवाला । वऋगामी । कछु - वि० [हिं० कुछ] ३० 'कुछ'। उ०-(क) तदपि कहीं गुर कजअदा--वि० [फा०] १ कुटिल हाव भाववाला । वेमुवत। वारहि बारा । समुझि परत कछु मति अनुमारा ।—मानस, २. दु शीन। १।३१ । (ख) ता समै पर मेसुरी कछु कायर्थ वहाँ आई । कज प्रदाई-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] हावभाव का वकि उन । दु शीव्रता । - दो सौ बावन ०, पृ० १ ।। बेमुवती । ३०-~-जुल्फो का जल वनाना, अावें चुरा के मुहा०- कछु र = कुछ दूसर! ही । उ०—-तव ती सनेह कछु चलना । क्या फज अदा इयाँ हैं क्या कमनि गाहियाँ हैं।-- | और हौ, अब तो कछु अौरे भई ।--पृ० रा०, ७५६५ । कविता कौ०, भा० ४, १० ४३ । कछप्रा--संज्ञा पुं॰ [सं० कच्छप] [स्त्री० कछई] एक जलजत जिसके कंजक---सपुं० [फा०] हायी का अकुश । ऊपर वडी की ढाल की तरह खोपडी होती हैं। कच्छप । । कजकोल–सा पुं० [फा०] भिक्षुको का कपात या बप्पर । विशेप--इस खोपड़ी के नीचे वह अपना पिर और हाथ पैर कजनो-सा स्त्री० [हिं० काछना, कछन] वह औजार जिमचे तब सिकोड लेता हैं। इसकी गर्दन लवी और दुम बहुत छोटी यो पीतल के बरतनो को पुरचकर माफ करते हैं । वरदन।। होती है । यह जमीन पर भी चल सकता है। इसकी खोपड़ी कजपूनो-सधा बौ॰ [देश॰] दे० 'कृयपूती' ।। की ढाल खिलौने आदि बनते हैं। | कुजफहम-वि० [फा० फज +अ० फहम] उलटो समझवा ना । वक्र कछइक -वि० [हिं० कछु+एफ] थोडा सा । किंचित् । कुछ कुछ। | बुद्धि । नासमझ । मूखं [को०] । कुछ एक । उ०—(क) सुमनी जाती मल्लिका, उत्तम गधा कजुफहमीसा स्त्री॰ [फा० कङ्ग +० फहम + फा० ई (प्रत्य॰)] आस । कछु इक तुव तन बस स मिलति जासु को बास |-- दे० 'कजफहम' । उलटी समझ । मूर्खता । उ०—पीसता है। माहरू को सदा, केसी कजफतु मी पे च भीर है - नंद० ग्र०, पृ० १०५ ! (ख) दत्तात्रय सुकदेव जी कहे कटू इक वैन ।—सुंदर ग्र०, 'मा० २, पृ० ७८७ ।। भारतेंदु ग्र०, भा॰ २, पृ० ८६ ।। कछ क’ --वि० [हिं० कछु+एक] कुछ थोड़ा। उ०—(क) कछुक कजरा-सच्चा पुं० [हिं० काजर] १ ३० 'काजल' । २ का भी माखों वान! वैल ।। दिवस जननी घरु धीरा ।—मानस, ५।१६ 1 (ख) नाहिन कजरा--वि० [हिं० काजल [ो० केजरी] काली अाँउवाला। कछुक दरिदता जाकै ।-नद ग्र०, पृ० २१२! जिसकी अखिो मे काजल लगा हो या ऐसा मालूग हो कि कछक----क्रि० वि० थोड़ा सा । कुछ कुछ। जरा सा । उ०—-मछल काजल लगा है जैसे,— वरा बैल ।। ऍचि र प्रिया हीं कछुक छुटाऊ –घनानद०, पृ० ३४३ ।। केजराई • सी सी० [हिं० काजल +आई (प्रत्य०)] कालापन । कछुवा-सा पुं० [सं० कच्छप] दे० 'कछुप्रा' । ३०-कमठ ध्यान उ०--(क) गई ललाई घर ते कजराई अँखियान । चदन कछुवा मत ताक । ऐसी सुरत नाम से राखौ 1--घट०, पके न कुधन में प्रवति वात तियान --- ० सत०, (ख) पृ० २१७ ।। सितारों की जलन से वादलों को अांच कर माई। न चदा को कछोटा-सा पु० [हिं० काछ+ोटा (प्रत्य॰)] [स्त्री॰ अल्पा० कमी व्यापी अमा की घोर कजराई ।-ठडा०, १० ७६ ।। | क छोटी] कछनी । काछन । कजरारा--वि० [हिं० काजर+रा (प्रत्य॰)] [ी० कजरारी] क्रि० प्र० --वाँधना । --मरिना । उ०--अचल पेट कटि मे खोस १ काजल वाला। जिसमे काजल लगा हो। अजनयुक्त । कछोटा मारे । सीता माता थी अाज नई छवि धारै ।—साकेत, उ०—(क) फिर फिर दौरत देखियत निचले नैकु रहै न । पृ० २०३ । ये कजरारे कौन १ करत जाकी नैन --विहारी (शब्द॰) । कछौहा—सक्षा पुं० [हिं०] दे० 'कछार' । । (ख) कजरारे दृग की घटा जव उनवे जेहि ओर। बरसि कृज -अव्य० [सं० कार्य प्रा० कज्ज दे० 'काज' । उ०---हमहि सिरावे पुभि उर रूप झलान +फोर ।-रसनिधि (शब्द०) ।। वहुत अभिलाप देव वीरानि दरस कज ।-पृ० ० ६५१४८ । २ काजल के समान काला। काला । स्याह । उ०-- (क) कुज-- सेवा पुं० [फा०] १. टेढ़ापन । जैसे,—उनके पैर में कुछ वह सुधि नेकु को पिय प्यारे । कमल पति में तुम जल लीनो जा दिन नदी किनारे । तहँ मेरो माय गयो मृगछौना जाके क्रि० प्र०--ग्राना ।—पड़ना। नैन सहज कजरारे ।---प्रताप (शब्द०) । (ख) गरजे गरारे मुहा०--फेज निकालना= टेढ़ापन दूर करना । सीधा करना । कजरारे अति दीह देह जिनहिं निहारे फिरे वीर करि धीर | २ कसर । दोष । दूपण । ऐव।। मग |--गोपाल (शन्द) क्रि० प्र०—मना ।—पड़ना । —होना । कजरियाना—क्रि० स० [हिं० काजर से नाम०] दे० 'काजर' । १ मुहा०—कज निकलना=(१) दोष दूर करना । (२) दोप बच्चों को नजर लगना बचाने के लिये माथे पर काजल की बतलाना । दूपण दिखाना। बिंदी लगाना । २ रात या अंधेरा दिखलाने के लिये चित्र में यौ०-कजम = कुटिल । भ्रवाला । धनुषाकार भवाला । काला रंग भरना ।