पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२२५

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७३९ कृप्चा त्रुमर --संज्ञा पु० [हिं० कुचलना]१. कुचलकर वनायर हुअा अचार। कचौदा---क्रि० स० [हिं० कई = घंसाने का इन्दि चुभाना 1 धंसाना । | कुचला ! २ कुचली हुई वस्तु । भर्ता । भूतां । कचोरा --संज्ञा पुं० [हि कसा+ोरा (प्रत्य॰) I[स्त्री०कचौरी] मुहा०-- फनर करना या निकालना=(१) खुर्च कूटना । चूर कटोरा । प्याला । उ०—(क) पनि लिए दासी चहुओरा। चूर करना । कुचलना। २ असावधानी या अत्यंत प्रधिकं ।। अमिरित दानी भरे कचौरा ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) न्यदरि के कारण किसी वस्तु को नष्ट करना। विगाड़ना । मुकूलित केश सुदेश देखियत नील वसन लपटाए । भरि अपने नष्ट करना । जैसे, तुम्हारे हाथ में जो चीज पडती है, उसी का कर कनक कचौरा पीवत प्रियहि चखाए ।- सूर (शब्द॰) । कुचूमर निकाल डालते हो । ३. मारते मारते बेदम् कर कचोरी--संज्ञा स्त्री० [हिं० चोरा+ई (प्रत्य॰)1 छोटा कटोरा। देना । खूब पीटना । भुरकुस निकालना। प्यावी। कटोरी। चूर--संज्ञा पुं० [सं० कचूर]हल्दी की जाति का एक पौधा। नर कचौड़ी-सझा ली० [हिं०] दे० 'कचौरी । कुचूर । जरवाद उ०---परे पुढूमि पर होइ कचूरू 1 पर केदली कचौरी--संज्ञा स्त्री० [हिं० फचरी]एक प्रकार की पूरी जिसके भीतर महँ होइ कपूल 1---जावजी (गुप्त), पृ० ३३१ । । उरद आदि की पीठी भरी जाती है । यह कई प्रकार की होती विशेष—यह ऊपर से देखने में विलकुल हल्दी की तरह की होता है ! जैसे--सादी, खस्ता अादि । उ०-~-पूरि सपूरि कचौरी है, पर हल्दी की जड़ और इसकी जड या गाँठ में भेद होता कौरी । सदल सु उज्वल सुदर सौरी ।—सूर ० (रधिा०), हैं। कचूर की जड या गाँठ सफेद होती हैं और उसमें कपूर पृ० ४२० । के सी की महक होती है । यह पौधा सारे भारतवर्ष में कच्चट-संज्ञा पुं० [सं०] एक जलीय पौधा [को०] । लगाया जाता है और पूर्वीय हिमालय की तराई में आपसे कच्चपच्च---सज्ञा पुं० [अनु॰]३० ‘कचपच । भीड़ । शोरगुल । बच्चो अाप होता है । वैद्यक के अनुसार कचूर रेचक, अग्निदीपक का कोलाहुन । और वात तथा कफ को दूर करनेवाला है। यह सॉस, कन्चर-वि० [स०]गर्द से भरा हुआ। मैला कुचला । मल से दुपिते । हिचकी और बवासीर में दिया जाता है। कच्चर-संज्ञा पुं० पानी मिला मखनिया दृछ। पर्या०---कर! द्राविड । कश्यं । गंधमूलक । गवतार । वैघ बघ- कच्चा--वि० [सं० कपणे = कच्चा]१ विना पका। जो पका न हो। १ ० | मूत्र । जटाल ! हरा और विना रस का 1 अपक्व । जैसे—कच्चा फल । मुहा०-कचूर होना = कचूर की तरह है। होना । खूब हैरा होना (यती ग्रादि का) । मुहा०---कचा खा जाना मार डालना । नष्ट करना । (क्रोध कचूर–पज्ञा पु० [हिं० फचरा] [जौ करी] कबूल्ला कटोरा। मे लोगों की यह माधारण वोन चाल है।) जैसे, तुमसे जो उ०—(क) नयन कचूर प्रेम मद भरे । भई सुदिष्टि योगी सो कोई वोलेगा उसे में कच्चा खा जाऊँगा । उ०—क्या महमूद ढरे ---जयेती (शब्द॰) । (ख) माँगी भीख खपर लइ मुए के अत्याचारों का वर्णन पढकर जी मे यह नहीं आता है कि वह ने छोडे वार । बुझ जो कनक कचुरी भीख देहु नहि मार। सामने अाता तो उसे कच्चा खा जाते ।—रस०, पृ० १०१। -जायनी (शब्द॰) । २ जो जाँच पर न पका हो । जो आंच खाकर गला न हो कचेरा–सुज्ञा पुं० [हिं० कांच] दे० 'कॅचेरा' । यो खा न हो गया हो । जैसे,—कच्ची रोटी, कच्ची दाल, कचेल-सज्ञा पुं० [३०] १. वह और जिसमे कागजपत्र, ग्रंथ रखे। कच्चा घडा, कच्ची ईंट । ३. जो अपनी पूरी वाढ़ को न पहुँचा जाये । २. वह अावरण या जिल्द जिसमें कागजपत्र सुरक्षित हो । जो पुष्ट न हुआ हो । अपरिपुष्ट । जैसे,—कच्ची कली, | रखे जायें [को०) । कुच्ची लकडी, कच्ची उमर । कचेहरी-संज्ञा पुं० [हिं० कचहरी] दे॰ 'कचहरी' । मुहा०—कच्चा जाना = गर्भपात होना 1 पेट गिरना। कच्चा कचंडी--सज्ञा झी[हिं० कचहरी] दे० 'कचहरी' । उ०-चाड़ी बच्चा=बह वच्चा जो गर्भ के दिन पूरे होने के पहले ही | करे चैडी चढिया 1–बाँकी० ग्र०, मा० ३, पृ० १०६ । पैदा हुअा हो । कचोक-संज्ञा स्त्री० [हिं० कचोकना] कोई नोकदार चीज चुमने या ४. जो वनकर तैयार न हुआ हो। जिसके तैयार होने मे कसर गरूने की क्रिया या भाव । हो । ५. जिसके सृस्कार या संशोधन की प्रक्रिया पूरी न हुई कचोकना--क्रि० स० [अनु०] किसी नुकीली चीज को चुभाना था। हो । जैसे--कच्ची चीनी कच्चा शोरा । ६. अदृढ़ । कमजोर । | गडाना । चुनानी ।। जल्दी टूटने या बिगडनेवाला । वहुत दिनो तक न रहनेवाला। कचोट-सज्ञा सी० [हिं० कचोटन] रह रहकर बार वार होनेवाली । अस्थायी। स्थिर। जैसे,—(क) कच्ची घागा कच्चा काम, वेदना । कचोटने की क्रिया या भाव। उ०—उसे देखने के कच्चा रग । उ०—(क) कच्चे बारह बार फिरासी । पक्के लिये उटता हृदय कचोट -झरना, पृ० ७३ ।। तो फिर थिर न रहासी ।-बायसी यू ०(गुप्त०), पृ० ३३१। कचोटना--क्रि० अ० [अनु० ]मन के भीतर की वेदना का उमडना । (ख) ऐसे कच्चे नहीं कि हमपर किसी का दांवपेंच चले। किसी की याद में दुख का होना ! इ०-- हृदय कचोटने लगती —फिसाना, मा० १, १ ० ६ । । हैं ।-ककात, पृ० १३ । • मुहा०—फचा जी या दिल = विचलित होनेवाला चित्त। वह ३-२७