पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२२४

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कचलोदा ७३८ कचूमर' कचलोदा--सज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + लोदा] कच्चे आटे का पेडा। कचाना--क्रि० अ० [हिं० कन्चा] १ कचियाना । पीछे हटना । लोई। जैसे,—वह रोटी नही जानता, कचलोदे उठाकर सामने सकपकाना। हिम्मत हारना । जय भीत होना । डरना । रख देता है ।। कचायँध---सज्ञा नी० [हिं० फच्चा + ध] कच्चेपन की महक । कचलोन–सज्ञा पु० [हिं० काँच + लोन] एक प्रकार का लवण । कचायन–सुज्ञा श्री० [हिं० कचकच किचकिच । लडाई झगड़ा । विशेप-यह काँच की भट्ठियों में जमे हैए धार से बनता है । यह कचोर--सज्ञा पुं० [हिं० कछार] नदी के किनारे उस स्थान का जन पानी में जल्दी नही घुलता और पाचक होता है । जहाँ कोच या दन्न दल के कारण वन उठते हैं और जहाँ कचलोहा—संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा + लोहा] १ कच्चा लोहा । २ । नाव नहीं चढ़ सकती । | अनाहो का किया हुअा वार । हुलका हाथ । कचार-सज्ञा झी० [फचरा या फवा] पाद । कचलोही-सज्ञा स्त्री० [हिं० कचलोहा का स्त्री॰] दे० 'कचलोहा'। क्रि० प्र०—काढ़ना ।--डालना --फेंकना - हटाना। कचलोह-सज्ञा पुं० [हिं० कच्चा+लोहू] वह पनछा या पानी जो कचार–सज्ञा स्त्री० [हिं० कचारना] कचारने का काम या भाव। कचार–सजा ६ | खुले जखम से योडा थोडा निकलता है। रसधातु । कचारना-----क्रि० स० [अनु॰] कपड़े को पटककर धोना। कचवाँसी–संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा = बहुत छोटा +अश] वेन मापने कपडा धनः । । का एक मान जो वीधे का अाठ हजारवाँ भाग होता है। वीस कुचालू--सज्ञा पुं० [हिं० फच्चा+अल्] १ एक प्रकार की मई । कववाँसी का एक विश्वासी होता है। वडा । २ एक प्रकार की चाट । उाले हुए अन् या बडे कचवाठ+--- संज्ञा स्त्री॰ (f० कचाहट] १ खिन्नता। विराग। २ के कतरे जिसमें नमक, मिचं वदाई ग्रादि चरपरी चीजें गिनी नफरत । चिः ।। रहती हैं । ३ कमरय, अमरूद, पौर, केवढी अादि के छोटे कचहरी-संज्ञा स्त्री॰ [देश० प्रयवा सं० कप + गृह = कप गृह> फशघरी छोटे टुकड़े जिनमे नमः, मि व मिनी रहती है । > कछहरी> केवहरी अथवा सं० कृत्य = कर्तव्य + गृह) मुहा० --कचालू करना या बनाना । - तूर पीटना। कच्चघरी) कचहरी]१ गोष्ठी। जमावड़ा । जैसे,—तुम्हारे यहाँ कचावट----संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा+प्रावट (प्रत्य॰]]च्ने प्राम के पन्ने दिन रात कचहरी लगी रहती है। २ दरवार | राजस म । की अमावट की नरह 'जमाई हुई खटाई । उ०:-अमर सिंह राजा को नामा। नागी कचरा व विधि ध) मा |--कवीर सा०, पृ० ४५५ ।। कचाहट-सज्ञा नी० [हिं० कच्चा] कापन् । फचाई । कच्चे होने क्रि० प्र०—उठना । - करना । —बैठना । —लगना। - की अवस्था या भात् ।। कुचाहिंद—सज्ञा धौ० [हिं० फचायन] किचकिच । लडाई झगड़ा । लगाना । ३ न्यायालय । अदालत । कचिया–संज्ञा स्त्री॰ [हिं० फोटना] देती । हँसिया । क्रि० प्र०-उठना । —करना । —लगाना । कचिया–सुज्ञा दे० [सं० फाँच एक प्रकार का नमक जो कोच में मुहा०—कचहरी चढ़ना = अदालत तक मामला ले जाना। वैनाया जाता है । कचि लवण । दे० 'कचनोन। | ४ न्यायानय का दफ्तर । ५ दफ्तर । कार्यालय । कचियाना---क्रि० अ० [हिं० फच्चा] १ दिल कच्वा करना । साहम कचा--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ हथिनी । २ शोमा । सौंदर्य [को॰] । छोडना । हिम्मत हारना । तप्पर न रहना। २. डर जाना । कचा--वि० [हिं० कच्वा]दे० 'कच्चा' । उ॰—अद्भुत नर्तक नई पीछे हटना । २ लज्जित होना । शर्माना। आँपना। कुछ कच । सप फनन पर ताव नचे ।—नद० ग्र ०, पृ०२८१ । सयो॰ क्रि०—जाना । कचाई-सज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा+ई (प्रत्य॰)] १ कच्चापन । कचीची' —संज्ञा स्त्री॰ [हिं० फवपदी] कृतिका । २. कचपचिया । उ०—सने सने थल पक पिटाई । वीरुध तुननि की गई । उ०—कानन कुडल खूट ग्रौ जुटी। जानपरी कचोची टुटी । कचाई ।-नद० ग्र० पृ० २९१ । २ नातजुर्वेकारी । अनुभव । —जायसी (शब्द॰) । की कमी । उ०-ललन सलोने पर रहे अति सनेह सो पानि। कचोची--संज्ञा स्त्री० [हिं० फच्ची को म पा०] कनपटी के पास तनक कचाई देति दुख सूरन लो मुख लागि ।—बिहारी दोनो जवडो का जोड जिससे मुंह खुलता और वद होता है । (शब्द॰) । है । जबडा । दाढ़ । कचाकच--सज्ञा स्त्री० [सं०] एक दूसरे के बाल पकड़कर खीचना । मुहा०—कबीची बटना= दाँत पीना । किचकिचाना । कवीची केशाकेशी [को०] । लेना= मरने के समय का दाँत पीसना । कवीची बँधना= कचाकु'---वि० [सं०] १ दु शील । उद्द ड । २ कुटिल । ३ असह्य दति वैठना ।। (को०) । ४ दुष्प्राय (को०) । कचु-सधा पु० [स] कद शाक । धुर्रयाँ । वडा [को०] । कचाकु'--संज्ञा पुं० सर्प । साँप [को०] । कचुल्ला- सच्चा पुं० [fइ० फसोरा, कचोरा + ऊला (प्रत्य०)] वह कचाटुर--सुज्ञा पुं॰ [सं०] वन मुरगी जो पानी या दलदल के किनारे कटोरा जिसकी पुदी चोडी हो । की घासों में घूमा करती है। कचूमर'-सच्चा पुं० [हिं॰] दे॰ कठूमर'।