पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२२३

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७३७ कचलू कचपचिया लोगों का भर जाना । गिचपिच । गुत्यमगुत्या। २ ३ कचरघान--संज्ञा पुं० [हिं० कचरना+घान] १ बहन सी ऐसी 'कचकच' । वस्तुओं का इकट्ठा होना जिनसे गाड़ी हो । २ वहुत से लड़के वाले । कच्चे बच्चे । ३ घमासान, ४ मारपीट । कुचपचिया-सुज्ञा स्त्री॰[हिं०]दे० 'कचपची' । उ०-पहिरे भी सिंहले । कचरना -क्रि० स० [सं० कच्चरण = बुरी तरह चलना या अनु० दी। जन भर कचपचिया सीपी —जायसी ग्र ०, पृ० ४५।। कच] १ पैर से कुचरना। रौंदना। दवाना। उ०—चलो कचपची- संज्ञा स्त्री० [हिं० चपन्न] १. बहुत से छोटे छोटे तारो का चल चल चलु विचलु न बीच ही तें कीच बीच नीच तो पुज्ञ जो एक गुच्छे के समान दिखाई पड़ता है। कृत्तिका नक्षत्र। कुटुव को कचरिहीं। एरे दगावाजे मेरे पातक अपार वहि उ०—जेहि पर सीस जो कविपचि भए । राजमँदिर सोने गंगा के कछार में पछारि छार करि हौं ।-- पद्माकर (ज०) । नग उरा -जायमी 'ब्द०)। २ दे० 'कचवची' । २ सानना । उ०—ोग समझते हैं कि साला मूगफ । कचपेंदिया--वि० [हिं० कच्चा+पेंदी] १ पेंदी का कमजोर । २. के तेल में आटा कवर कर ठगने लगा है।--वो दुनिया, अस्विर विचार का । वात का कच्चा ! जिसकी बात का पृ० १५५ । ३ खूब खान । चबाना । कुछ ठीक ठिकाना न हो। ग्रोछ । महा-कचर कचरकर खाना खुव पेट भर वाना । कचबची-संज्ञा स्त्री० [हिं० कचपच चमकीले बुदै जिन्हें स्त्रियाँ शो मा । मा कवर पचर--संज्ञा पुं० [अनु०] १ गिचपिन । २ दे० 'कचपन'। के लिये मस्तक, कनग्टी और गाल पर चिपकाती हैं । | कचरा- सज्ञा पु० [हिं० कच्चा] १ कच्चा खरबूजा । २ फूट का वरिया। सित ।। तारा । चमकी । उ०—-घानि कचवची कच्चा फल । केक। ३ सेमल का इ ३] या ढोढ । ४ खूदटीका सजा। तिलक जो देख ठाउँ जिउ त जी ---जायसी खाद । कूडा करकट । रद्दी चीज । ५ रुई का खुद या विनौना (शब्द॰) । जो धुनने पर अलग कर दिया जाता है । ६ उरद या चने की कत्रभार--सज्ञा पुं० [१०] १ केश का भार या बोझ । उ०— पी। ७ सेवार जो समुद्र में होनी है। पत्थर का झाड । सुमन भई महि मे करे, जव मुकुमारि विहार । तव सखियाँ जरस । जर।। सहि फिर, हाथ निए कचार !भिखारा ग्र०) मा ४ च --सज्ञा ब्री० [हिं० कचर] १ ककी की जाति को एक वेल पृ० १०६ ।। जो खेती में फैलती है । पेहटा । पेटुन । गुरम्ही । सेधिया । केचमाल-सुज्ञा पुं० [सं०] धुझ ०] । विशेष—इसमें चार पांच अगुल के छोटे छोटे अड़ाकर फल लगते कचरई अमौवा--संज्ञा पुं० [हिं० कचरी+अनौवा] एक प्रकार का हैं जो पकने पर पीले और खटमीठे होते हैं । कच्चे फनो को अमौवा रंग जो ग्राम की कवरी के रग का सा ग्रन् हरापन लोग काटकर सुखाते हैं और भूनकर सोधाई या तरकारी लिए हुए वादामी होती है। बनाते हैं। जयपुर की कचरी खट्टी बत होती है और कई विशेप--इसकी चाह लोग रग के लिये उतनी नही करते जितनी कम । पच्छिम में सोठ और पानी में मिलाकर इसकी चटनी नुगंध के लिये करते हैं। बड़े बड़े भादमियों के लिहाफ और बनाते हैं । यह गोश्त गलाने के लिये उसमें डाली जाती है । रजाई के अस्तर इस रंग में प्राय रंगे जाते हैं। पहले कपड़े २ कचरी या कच्चे पेहटे के सुखाए हुए टुकडे । ३ सूखी कचरी को हल्दी के रंग में रंगकर हरे के जोशादे मे डुवाते हैं। की तरकारी । उ०-पापर वरी फुलौरी कचोरी। कूरवरी कचरी इसके पीछे उसे कसीसे में डुबोकर फिटकिरी मिले हुए अनार औ मियौरी - सूर (शब्द०) ! ! काटकर सुखाए हुए के जोशाद में रेंगते हैं। इस रग के तीन भेद होते हैं—सुली, फल मूल आदि जो तरकारी के लिये रखे जाते हैं । ३० - सूफीयानी और मलय गिरि । कुदरू योर ककोड़ा कोरे । कचरी चार चचेडा सौरे । मूर कचर कचर--संज्ञा पुं० [अनु० या देश०]१ कच्चे फन खाने का शब्द । (शब्द॰) । ५ ठिलवे दार दल । ६ रुई का विनौला या खुद । जैसे--(क) ग्राल पका नही, कचर कचर करता है। (ख) कुचलपट-वि० [हिं० काछ + लपट] दे॰ कळलंपट' ।। वह सारी ककडी कवर कर खा गया। २ कचकच । कचला–सुज्ञा पु० [स० कच्चर= मलिन]१ गीली मिट्टी । निलावा। बकवाद । वतझा । २ कीचड। कचर कचर–क्रि० वि० दे० 'कचरना'। कुचल कुचलकर । चबा | कचलू-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक पहाड़ी पेड़ । कर । उ०—खूब मजे में मास कचरे कचर खाना और चैन विशेप- इसकी कई जातियाँ होती हैं। हिंदुस्तान में इसके चौदह करना ।—मारतेंदु ग्र॰, भा॰ १, पृ० ७१ । भेद मिलते हैं जिनकी पहचान केवल पत्तियों में होती है, कचरकूट--संज्ञा पुं० [हिं० कचरना + फूटना] १. खूब पीटना और

  • कहियो में कुछ भेद नहीं होता। इसकी ल की सफेद, चमक| लतियाना । मारकूट।

दार और कडी होती है । प्रति घनफुट २१ सेर वजन में क्रि० प्र०—करना ।--मचाना । होती है। यह पेड यमुना के पूर्व में हिमानय पर्वत पर ५००० ३. चूर्व पेट भर भोजन ! इच्छा भोजन । उ० -तो कोई से ६००० फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। पैड देखने में गोश्त रोटी और कवावे को कवर कूट मचा चला ।—प्रेमघन॰, बहुत सुंदर होता है। इसकी पर या शिशिर में झर जाती हैं। मा० २, पृ० १४२ । मौर वसत में पहले निक न अाती हैं। इसके तने मकान में क्रि० प्र०—-फरना 1--होना |--मचना ।—मचाना । लगते हैं और चाय के सुदूक बनाने के काम में ग्राते हैं।