पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२१९

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कुईलासवासी कृकोल पर मल्लिका गुविद के चंद माझ बुध कुरविंद रूप चेरो रो । ककड़ी—संज्ञा स्त्री० [स० कर्कटी, प्रा० कक्कटी] १. जमीन पर —पजनेस०, पृ० २३ । फैलनेवाली एक बैल जिसमें लव लवे फल लगते हैं । कइलासवासो--संज्ञा ‘i०[स० कैलास + वासिन्] १ कैलास में रहने विशेष--यह फागुन चैत में बोई जाती है और वैसाख जेठ में वाले । शंकर । उ०—कइलाजवानी उमा कति खवासी दासी फलती है। फल लबा और पतला होता है । इसका फल कच्चा मुक्ति तत्रि काली नच्यिौ रच्यो कैयो राग पर ब्रज़० तो वहुत खाया जाता है, पर तरकारी के काम में भी आता ग्रं॰, पृ॰ ३२।। है। लखनऊ की ककडियां बहुत नरम, पतली और मीठी कृइसे –क्रि० वि० [हिं० कैसे दे० 'कॅमे' । उ०-कइसे विरह होती हैं। न छाड, मा ससि गहन गिरोस ।- पदमावत, पृ० ११० । । २ ज्वार या मक्के के खेत में फैलनेवाली एक बैल जिसमे लबै कई- वि० [सं० कति, प्रा० कई] एक से अधिक । अनेक । लवे और बड़े फल लगते हैं। जैसे,-कई वार ! कई आदमी । विशेप---चे फल मादा में पककर अपसे आप फूट जाते हैं, इसी से यौ--कई एक = अनेक । वहुत से। कई वार= कितने वार । 'फुट' कहलाते हैं। ये खरबूजे ही की तरह होते हैं, पर स्वाद में कई दफा । फीके होते हैं । मीठा मिलाने से इनका स्वाद बन जाता है। कई–वि० [सं० कृत, किअ, क्यि की हुई। उ०-- महा०-ककड़ी के चोर को कटारी से मारना = छोटे अपराध या अपराध छमिवो दोल पठए बहुत ही ढीठ्यो कई । दोष पर कहा दइ देना। निष्ठुरता करना । ककड़ी खीरा मानस, १।३२६ } , करना= तुच्छ समझना । तुच्छ बनाना ! कुछ कदर न करना । कई–क्रि० ० [हि० कहना का भूत कृ०, कॅना (खड़ी)] काही । जैने,—तुमने हमारे माल को ककड़ी खीरी कर दिया । । उ०—–जा री जा मखि 'भवन आपने लाख वात की एक कई ककना-संज्ञा पु० [सं० कणदे॰ 'जगन' । उ०—-नेह विग रही री -नंद ग्रं॰, पृ० ३६७ । । दोहरी सजनी, ककनी अकिल के द्वार हो ।---कवीर कई(s)*--संज्ञा स्त्री० [हिं० फाई] दे॰ 'काई' । उ॰—सरिता सजन श०, पृ० १३४ । स्वच्छ सलिल सब, फाट्टी काम कई - सूर०, १०॥३३४२। ककनी--संज्ञा स्त्री० [हिं० कॅगनी] १ ३० 'कॅगनी' । २ गोल चक्कर कउ--प्रत्य० [हिं०] का । को। की। उ०—राजमती को जिसके बाहरी किनारे पर दाँत या नुकीले कँगूरे हो । ददानेदार रचउ वीवो --ची० रा०, पृ० १५ । चक्कर । ३ कॅगनो के प्रकार की एक मिठाई। कउहा--वि० [हिं० कड़वा] दे० 'कड़वा' । उ०—चण तृण त्रिभुवण ककनू- सज्ञा पुं० [अ० ककनूस] एक पक्षी । उ०----ककनू पंखि बसिया उड़ा मीठा खाय !-प्राण०, २८३ । जैन सर साजा --जायसी ग्रं० (गुप्त), पु० २५८ ।। कउडि--संज्ञा स्त्री० [हिं० कौडी) ६० कोडी' । उ०- कठडि विशेष—इसके संबंध में प्रसिद्ध है कि यह बहुत मधुर गाता है। पठोले पावन हि घोर -विद्यापति, पृ० ५६। | और अपने गान से ही उत्पन्न अग्नि में जल जाता है। कउण-सर्व० [हिं० फौन कौन । उ०—-कवण सुग्रावे कण ककमारी--संज्ञा स्त्री० [स० काक = कौवा+मारना] एक प्रकार की सुजाय --प्राण ०, पृ० ७७ ।। बडी लता, जो अवध, वगाल और दक्षिण भारत में होती है। कउतुक -संज्ञा पुं० [अ० कौतुक दे० 'कौतुक' । उ०—मन विद्यापति विशेप- इसको पत्तियाँ चार से आठ इच तक लंबी होती हैं । | कामे रमनि रति, कडतुक बुझ रसभंत ।-विद्यापति, पृ० ३४ । फूल नीलापन लिए पीले रंग के और बहुत सुगघित होते हैं । कउल -संज्ञा पुं० [स० कमल, पुकँवल, क्वल] दे० 'कौन' । इसमे छोटे छोटे तीक्ष्ण फल लगते हैं जो मछलियो और कमल । उ०-- घरहर वरपे सर मरे, सहज ऊपजे कउलु । कौवो के लिये मादक होते हैं। विलायत में जौ की शराब में —प्राणु०, पृ० ९६ । इसका मेल दिया जाता है ।। कउल---संज्ञा पुं० [अ० कौल दे० 'कौल--२' । उ०—-जनमत मरते । ककरे---संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी । दाज (को॰] । अनेक प्रकार त्रसित कउल पुनि बार वार 1मीबा० । ककराली--सज्ञा ० [सं० कक्ष, प० कक्ख हि० काँख +वाली श०, पृ० ८२। (प्रत्य०)1 काँख का एक फोढा । वह गिल्टी जो वगल में निकलती है। कद्दराली । कखवाली । कैखौरी ।। कउलति -संज्ञा पुं० [अ० क्यूलियत]अगीकार । स्वीकार । उ०--- ककरासीगी---सज्ञा स्त्री॰ [हि० काकासगी] दे० 'काकडासगी' । कउल ति कए हरि अनिल गेह --विद्यापति, पृ० ४०४ । । केकरीf-मज्ञा स्त्री० [हिं० ककड़ी] दे॰ 'ककडी ०-ॐकरी कउवा –संज्ञा पुं० [हिं० कौवा] दे॰ 'कौवा' । उ०—-आँखि । कृचरी अरु कचनारयो । सुरस निमोन नि स्वाद संवारयो । निमाँणीं क्या करइ कउवा लवइ निलज्ज ढोला०, -सूर० (राधा०), पृ० ४२०, दु० ५२० । ककरेजा-सुज्ञा पुं० [हि० काकरेजा] दे० 'काकरेजा' । कुकद- संज्ञा पुं० [सं० ककन्द] सोना कौ] ।। कुकरेजी संज्ञा पुं० [हिं० कुकरेजी] दे० 'काकरेजी' । कुकई--सुज्ञा सी० [सं० कडूती, प्रा० कंकइ] दे॰ 'कघी'। ककरौल-सबा पुं० [स० कर्कोटक, प्रा० कक्कोक] ककोड़ा। ककड़ासीगी--संज्ञा स्त्री० [हिं० काकासींगो] दे॰ 'काकासीगी। • खेसा ।