पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२१८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फैमलणी कइनस ७३२ ढोलह करई कंत्राइय, अयउ पूगल पासि ।–ढो जा०, क’--संज्ञा पुं॰ [सं०]१. अह्म । २. विष्ण। ३ कामदेव । ४ सूर्य । ५ प्रकाश । ६ प्रजापति । ७ दक्ष । ८ अनि ! है. वायु । दू० ५२२। । कॅमलणी--संज्ञा स्त्री० [सं० कमलिनी, प्रा० कमलिणी] ३० १० राजा । ११ यम । १२ आत्मा । १३. मन । १४ ‘कमलिनी'। उ०-पॅण कॅमलाणी, कमलणी सुरिज ऊगई शरीर। १५ काल । समय । १६ घन ! १७ मयूर । १८ अाइ –ढोला०, ६० १३० । शब्द । १६ अ थि । गाँठ । २० जुले । उ०—ति ने नगर न कॅमलाणी- क्रि० स० [सं० फु+म्लनि, प्रा० कुमण]कुम्हलाना । नागरी, प्रतिपद हस के हानि ।—केशव (शब्द॰) । मुरझा जाना । उ०-- (क) पॅण केमलाणी, कमदणी, सिसहर यो०--कज = कमल । कद = वादल । । ऊगइ आइ - ढोला०, ६० १२६। (ख) काटत वेलि कूप २१ गरुड (को०) । २२ ग्रानद । मुख (को०) ! २३ मस्तक ले मेल्ही, सोचताडी के मुलाणी ।--कवीर ग्र०, पृ० १४२ । (को०) । २४ सुवर्ण (को०) । २५ पक्षी (को०)। २६ केश । कॅरवऐ----सज्ञा पुं० [सं० फलम्वक, करेवुमा, करेमु]दे० 'करेनू' । वाल (को०)। २७ केशगुच्छ (को०)। २२ स्त्री का करणे उ०---निकले कमल सरो मे और केरबुए लहरे ।--अपरा०, या क्रिया (को०)। २९ दुग्छ । दूध (को०) । ३० कृपण ! पृ० १६४ । (को०) । ३१ विप (को०) । भय (को॰) । कलगी -सज्ञा स्त्री॰ [फा० कॅलगी] दे॰ 'कलगी'। उ० -कैलगी फ**----वि० [हिं०] १ का । उ०-सुवा के वेल पवन होइ नवरतन पन्हावा । तोह सचिव के कोरि चढावा ।—हिदी० लागा।-जायसी रा ० (गुप्त), १० २०९।२ को । ३०- प्रेमा०, पृ० २७२। राम निकाई रावरी, है सही को नी । जो यह सूची है। केवरि–सुज्ञा स्त्री० [स० कुमारी, कुअरि] ६० 'कुमारी' । उ०---- सुदा, नौ नीको तुलसीक |--मानस, १२:। चंद्रकला देवलि कंवरि, पारसि महिमा साह }--हम्मीर रा० के --अध्य० [फा० कि] की । या । अथवा । उ०—-क गल नहीं। पृ० ११६ । के मस नहीं, नहीं क लेखणहार।–डो ०. ० १४० ।।

  • वरी---संज्ञा स्त्री० [हिं० कोर ?] तमोलियो की भाषा में पचास कइ --प्रत्य० [हिं० फी] १ की उ०--शो मा दशरथ भबने कई

पान की एक गड्डी । (चार कवरी की एक ढोली होती है ।)। को कवि व ने पार ।--मानस, १२९७ 1 २ को । के लिये । केवल–सज्ञा पुं॰ [सं० कमल,किवल, केवल] दे० 'कमल' । उ०० तोहि सम हिन न मोर समार। बहे जात कर भइसि केवलककडी----संज्ञा स्त्री० [हिं० कॅवल+ ककड़ी] कमल की जड । अधारा ।--मानस, २।२३ । भसङ । मुरार । । कइ --वि० [सं० कति, प्रा० कइ] १ कितनी । उ०-जन में लाभ केवलगढ़ा ---सज्ञापुं० [सं०कमला+ग्रन्थेि> हिं०गट्टा]कमल का वीज ।। कई अवधि अधाई ।--मानस०, २०५२ । कँवलदाव-सज्ञा पु० [हिं० फमल+वायु] दे० 'कमलवायु' । कइ@---क्रि० वि० [सं० फदा, प्रा० फया, कद] कव । उ० - कँवला--संज्ञा पुं॰ [स० कमल] दे० 'कमल-१' । उ०—-पदुमावति । केंवला सुसि जोती ।—जायसी ग्र० (गुप्त), प० २८५।। कइ परर्ण रुपमणी किमान }--वैनि०, १० १६८ । कैवारी-वि० [सं० कुमारी] कुयारी । क्वारी । उ०—वह भी तो कइG४---अव्यं० [फा० कि] या । अयवा। उ०--जइ त हो ना दुलहन बनेगी कभी और खुल जायेंगी मढियो, उसको कच्ची नावियउ कई फागुन कइ चेत्रि 1-ढोला०, ८० १४६ ।। कैवारी सभी मेढ़ियाँ -वैदनवार, पृ०, ५१ । कइको --वि० [हिं० कई+एक] अनेक 1 कई । उ०—राम दिन कँवासा–संज्ञा पुं॰ [देश॰] [ी० केवासी] लडकी के लडके का कइक तो ठौर अवरो रहे, अाई वल्वल तह दई देखाई। | लड़का । नाती का लडका । —सूर० (राघा०), पृ० ५८५ । कॅसुला--सज्ञा पुं० [हिं० फाँसी] [स्त्री० अल्पा० कसुली] कसे कइकण---सुज्ञा स्त्री॰ [देश॰] केकाण । घोडा । उ० --एही भली का एक चौखूटा टुकडा जिसके पहलों में गोल गड्ढे होते हैं। इस न करहला, करहुलिया कर्कण |--ढला०, ६० ६२७।। ।। पर सोनार धुघरू अादि के वोरो की खोरिया बनाते हैं। कइकुल-संज्ञा पुं० [स० वि + कुल कविसमूह । । १fसा । किरकिरा । उ०—अवखर रस बुज्झनिहार नहि कहकुल भिक्खारि भउँ । कॅसुली--संज्ञा स्त्री॰ [हि० कॅसुली की लो०] दे० 'कैसुला' । --कीवि०, पृ० १८ ।। कैंसुवा-सुज्ञा पुं० [हिं० काँस एक कीड़ा जो ईख के नए पौधो कइत+--सज्ञा स्त्री॰ [हिं० कित] मोर । तरफ । को नष्ट करता है। कॅसेरा-सुज्ञा पुं० [हिं० काँसा+एरा (प्रत्य॰)] दे॰ 'कसेरा' । कइथिन --सज्ञा स्त्री० [हिं० कायिय की स्त्री०] दे॰ 'कायथ' । उ हाट करे मो प्रयम प्रवेश, अष्टधातु घटना पङ्गारे, कसरी । उ०—-कइथिनि चली समाfह न अगा।-पदमावत, पृ० ६४ । पसर काँस्य कङ्गारा।-कीति०, १० २८ ।। कइन--सज्ञा स्त्री० [स० कञ्चिका वाँस की टहनी या शाखा । केहार-संज्ञा पुं॰ [स० कर्मधार> कम्महार> फेहार हिं० कहार] कर--संज्ञा पुं० [स० कदर] दे॰ 'करील' । उ०--कई कर ही दे० 'कहार' । उ०—-चपल पालकी के के हार सरवान । रणजे, अइ दिन यू' ही टाल |--ढोला०, ६० ४३०। महाउत । प्रेमघन॰, पृ०१२ । कइलास-सज्ञा पुं०[स० कैलास] दे० 'कैलास' । उ०—-स मु कइलास एक कीडा जो ईख के नए पौधो केइत-सज्ञा पुं० [सं० फपित्य प्रा० का ३० 'कायथ' ।