पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२१७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कॅटोर ७३१ कैवाना कॅटोर–ज्ञा पुं॰ [स० कठोरव] दे० 'कंठीरव' । उ० --संग मिलियौ गै सिवौ, कजण नवौ कैटर-० रू०, पृ० ५:८ । कॅटीला–वि० [हिं० कांट+ईला (प्रत्य॰)] [डी केटीली काँटेदार। जिसमें कांटे हो। उ०—जिन दिन देखे वे कुसुम गई से वीत घहार । अब अनि रही गुनाब की अपत कटीली इार-विहारी (शब्द॰) । कैटेरी–ज्ञा स्त्री॰ [त० कटकार मैट कटैया । कॅटेला--सज्ञा पुं० [हिं० काठ+फेला] एक प्रकार का केला जिसके फन वडे ग्रौर हवे होते हैं। यह हिंदुस्तान के सभी प्राती में होता है। कवकेा । कठकैला। कैठ –मज्ञा पुं॰ [स० कठ] दे० 'कंठ'। उ०—जैहि किरिस सो सोहाग सोहागी । चंदा जैस स्याम कँठ लागी ।—जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० ३३५। कॅठना पु–सुज्ञा पुं० [सं० कठ+ला (प्रत्य॰)] गले में पहनने का | बच्चो का एक गहना । उ०—मणि गन कैठना कठ, मद्धि केहरि न व सोहन --पृ० १०, १७१७ | कॅठहरिया--संज्ञा स्त्री० [सं० कठहार का अल्पा० रूप] की। उ०—सूर सगुन वोटि गोकुल में अब निगुन को प्रोमो । ताकी चार छार कंठहरिया जो ब्रज जातो दूसरो ।—सूर । (शब्द॰) । कठोर -ज्ञा पुं० [सं० कठोरव] ३० 'कठीर' । उ०—मनो। मदमत्र कॅठीर ग द्वार ---]० रा०, २२० । केई–तज्ञा पुं० [म० कन्वल ] मून, सरसो प्रादि के बीच का मोटा उठ ३ जिसमे फून निक नते हैं। इसका लोग साग बनाते अौर अचार डालते हैं। कॅडहार --सज्ञा पुं० [सं० कर्णधार] केवट । नाविक। मांझी । कर्णधार । उ०—(क) जा कहे अइम होहिं कॅडहारा। -जायसी यू ०(गुप्त),पृ० १३२ । (ख) चहत पार नहिं कोउ केहाल --मानस ११२६० । केडिया-मज्ञा वी० [४०] दे० 'कडिया' । उ०—कैडिया विच पाल्यो कमथे ।-नट०, पृ० १२७२। । कॅडिहारा —संज्ञा पुं० [सं० कर्णवार] ६० 'उहार' । उ०—सतगुरु | नव तारण कॅडिहारा ---कवीर सा॰, पृ॰ ४३० । । कडुवा--संज्ञा पुं० [हिं० कोदो या मे० कण्डु] वानवाले अन्नों का एक रोग। इनमें बाल पर काली काली एक चिकनी वस्तु जम जाती है जिससे उसके दाने मारे जाते हैं। यह रोग गेहूं, जैवीर वाजरे अादि की दालों में होता है। कजुप्रा । झीटी ।। क्रि० प्र०—लगना । मारना। , एस1 [बी० कॅडेरिन] एक जाति जो पहले तीर कमाने वाढ यी और अब रुई धुनती है। धुनिया ।

  • , कनैर] कनेर । उ०-

धण कॅणयर । कत्र ज्यउँ, सुकी तोइ सुरत ।—होना ०, | ६० १३५ । २-२६ केंदराना--क्रि० अ० [अ० कर्दम मैलयुक्त हो जाना । कैदरी—संज्ञा स्त्री० [सं० कर्दम] १ गीली मिट्टी । २. कूटी वरी या सुख। दारा--सज्ञा पुं० [प्र० कडि+० घार] कमर पर पहननेवाला एक तागा । करधनी । करगतः ।। केंदु--संज्ञा पुं० [स० कन्दुक] दे॰ 'कंदुक'। केंदुप्रा -संज्ञा पुं० [हिं० कोदो] बालुवाले प्रश्नों का एक रोग जिससे बाल पर काली भूकड़ी जम जाती है और दाना नहीं पड़ता। कौर । केंदूरी---सज्ञा स्त्री० [सं० कन्दूरो] कुदरू । विवः । दूरी-संज्ञा पुं० [फा०] वह खाना जिसे मुसलमान वीवी फातमा या किसी पीर के नाम का फातिहा करते हैं। कैंदेलिया -सुज्ञा स्त्री॰ [देश ०] कम दूध देनेवाली गैस । कदैला-वि० [हिं० काँदो, पू० हि० कॅदई +ऐला (प्रत्य॰)] मलिन । गंदला । मलयुक्त । उ०—जनम कोटि को कदैलो हृद हृदय थिरातौं ।—तुलसी (शब्द॰) । कँवाई-संज्ञा पुं० [हिं० कन्हाई] ३० कन्हाई' । उ०—मोहि नद के कैवाई वोल भाई रे हरी ।—भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ५१० । वावर--सुज्ञा स्त्री० [हिं० कंधा +आवर (= प्रावरण) (प्रत्य॰)] १. वह चद्दर या दुपट्टा जो कधे पर डाला जाता है। मुहा०—कंधावर डालना= किसी पट या दुपट्टे को जनेऊ की | तरह कचे पर डालना । विशेप--विवाह आदि मे कपडे पहनाकर ऊपर से एक दुपट्टा ऐसा डालते हैं कि इसका एक पल्ला बाएँ कंधे पर रहता है और दूसरा छोर पीछे होकर दाहिने हाथ की वगल से होता है। फिर बाएँ कधे पर अा पड़ता है। इसे कैंधविर कहते हैं। २. जुए का वह भाग जो वैल के कंधे के ऊपर रहता है। ३ हुड्क या ताशे की वह रस्सी जिससे उसे गले में लटकाकर बजाते हैं । कैवेली- संज्ञा स्त्री[हिं० कंधा+एली (प्रत्य॰)]१. घोडागाडी का एक साज जिसे घोडे को जोवते समय उसके गले में डालते हैं। इसके नीचे कोई मुलायम या गुलगुली चीज टंकी रहती है जिसमे घोडे के कधे में रगड़े नहीं लगती है । २ घोड़े या वैल को पीठ पर रखने का सुडका या गद्दी । यह चारजामे या पलाभ के नीचे इसलिये रखी जाती है कि उनकी पीठ पर रगड न लगे । कॅधया--सज्ञा पुं० [स० कृष्ण, प्रा० कण्ह, हि० कान्ह, कन्हैया] १. दे० ‘कन्हैया' । उ०---हेय दावि कन्हैया, सुमिरि कॅवैया, सुगज सँधैया पर पहुंची।—हिम्मत०, छ० २०६ । कॅवैया –संज्ञा पुं० [सं० स्कन्घ, प्रा० कन्य, हिं० कध+ऐया(प्रत्य॰) दे० 'कधा'। कँपकँपी-सुज्ञा स्त्री० [हिं० कांपना] थरथराट । काँपना। संचलन। कॅपना-क्रि० अ० [स० कम्पन] १ हिलना । डोलना । सूचलित होना । काँपना ! २ भयभीत होना । डरना । कॅवाना--क्रि० स० [सं० कम्ब से नाम०] छडी से मारना । उ०-~-