पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२१६

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केगनीदुमा ७३० केटियारो खाते हैं । के गनी के पुराने चावल रोगी को पथ्य की तरह । केंगूरेदार-वि० [हिं० फमूरा+फा० दार] जिसमें पूरे हो । दिए जाते हैं । | केरेवाला । । | पर्या०-.-काकन । ककुनी । प्रियगु । कगु । टाँगुन । डेंगुनी । केगोई -सा झी० मि० कडूती, प्र० फ इ) दे० 'कॅग' । कॅगनीदुमा--विः [हि० कॅगनी+फा० दुम]जिसकी दुर्म में गाँठे हो । उ०~-कधी कपड़े कॅगई जो योने वाल । हुप। मानै हो केनाई गठीलो पुछवाला । को देवे डाल । दविनी०, पृ० २७१ ।। केगनीदुम- सज्ञा पुं॰ वह हाथी जिसको दुम में गाँठे हो। ऐसा Fघेरा-सेर ० [हिं० क घा+एरा (प्र०)] [ी० के वेरिन] हाथी ऐसी समझा जाता है । केंगलपु–संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कग' ।--डि०। । ककहगर ! कघा वनानैदा । केला--वि० [स० फङ्काल] [स्त्री० कगली ३० 'कंगाल' ।। केंचुम्रा--वि० [हिं० कच्चा]दे० 'कच्चा १' । उ०—-तितु लागे के चुद्रा

  • गसी- संज्ञा स्त्री॰ [स० फड़नी = कॅगही] पूजा गठना। ककन ।।

। फन मोती ।—कर ग्न ०, पृ० ०५ । केवी । केंचुली–सधा बी० [स० कञ्चुलो केबुल ।। क्रि० प्र०-. दाँघना । गठा।। केचुवा-सा पुं० [स० कञ्चक, प्रा० क बु] १. कुर्ता यौ०---कगसी की उड़ान = मातृखम में एक प्रकार की सादी २ चोनी । । पकड जिसमें दोनों हाथो से कैगसो वाँधकर या पंजा गुठकर ऊँचेरा--संज्ञा पुं० [सं० फांच +एरा (प्रत्य॰)] [री कचेरिन्] उड़ना पडता है। काँच का काम करने जा । एक जाति जो क ब वना है। कॅगही - सज्ञा स्त्री॰ [ स ० की , प्रा० के कइ ] दे॰ 'कधी'। उ०- । उसके । काम करते हैं । इस जाति के लोग प्राय मुसलमान | कॅगही के देत प्यारी कसकत मसकत, पुनकि ललकि तन स्वेद । होते हैं पर क क हिंदू 47 मिलते हैं। बरसते है । -ब्र ज०, ग्र ० पृ० १३८ । | कॅचेली--पन्ना स्त्री॰ [म० फन्चुक या देश॰] एक वृक्ष का नाम । के गारू- सज्ञा पुं० [अ०] एक जतु । । विशप :- पह हजारा, शिमला ग्रीर जसार में होता है। वैसे विशेप- --यह अस्ट्रेलिया, न्यूगिनी अदि टापुप्रो में होता है । मियाना कद का होता है । ल F डी मफेद रंग की और मजबूत इसकी कई जातियाँ होती हैं। वह जाति का केंगारू ६ ७ फुट होती है, मकान में लगती हैं तया वैत के औजार बनाने के लंबा होता है। मादा नर से छोटी होती है और उनकी नाभि काम अाती है । पत्ते चौपायो को खिलाए जाते हैं। वरस त के पास एक वैली होती है। जिसमें वह कभी कभी अपने बच्चो में इमके वीज बोए जाते हैं । को छिपाए रहती हैं। कंगारू की पिछली टाँगे लम्बी और कैचोरा--सी पुं० [हिं०] ३० 'कचरा' |--वर्ण ०, ११ । अगली बिलकुल छोटी और निकम्मी होती हैं। इसकी पूछ । लवी और मोटी होती है । पैरो में पजे होते हैं । गर्दन पतली । | कैंजियाना–क्रि० प्र० [हिं० क डा] अगारे का ठेठ पढना । कान लबे और मैं हैं खरगोश की तरह होता है। यह खाकी झैवाना । मुरझाना । रग का होता है, पर अगला हिस्सा कुछ स्याही लिए हुए और केजुवा-ससे पु० [हिं॰] दे० 'के इवा' । पिछ ना पीनापन लिए होता है । इसका अागे का धड पतला के टवांस--सज्ञा पुं॰ [स०कप्टक + वश हि० कॉट + वाँस]एक प्रकार की और निब न और पीछे का मोटा और दृढ होता है । यह १५ बाँ। जिसमें वहुत कड़े होते हैं और जा पो कम होता है। से २० फुट तक की लबी छ नाँग मारता है और बहुत डरपोक । इसकी लाठी अच्छी होती है। होता है । ग्राम्टून पात्रा ने इसका शिकार करते हैं । कॅटाय---सज्ञा स्त्री॰ [स० फन्टाक ] एक प्रकार का केटीला पेड । केंगुरिया--संज्ञा स्त्री० [हिं० केंगुरी +इया (प्रत्य॰)] ६० विशेप---इसकी लकड़ी के यज्ञपात्र बनते हैं। इसकी पतिय छोटी- 'कनगुरिया' । छोटी और फल देर के समान गोल होते हैं, जो दवा के काम कँगुरी-सज्ञा स्त्री० [हिं०] कानी अगुली । अाते हैं । गूरा-~-सा पु० [फा० में गूरह] [वि० क गुरेदार १ शिखर । केटाल-सज्ञा पुं० [हिं० कट+भाल (प्रन्य०)] ६० कटारा। चोटी । उ०—कौतुक कपीश कदि कनक गूरा चढि रावन ऊँटेकटारा। उ०—कहा नीरू जउ बर ३, कटलउ नः 'फोग। भवन जाई ठाढ़ो तेहि काल म ।-- नसी (प्राब्द०)। --ढोला०, ६० ४२८ ।। २ कोट या किले की दीवार में थोड़ी थोड़ी दूर पर बने हैए केंटिया---सज्ञा स्त्री० [स० कण्टको, कण्टकका, दि० फाँटी] १ दिः । स्थान जिसका पिरा दीवार से कुछ ॐच निकला होता है। छोटी कील । २ मछली मारने की पनली नोकदार में कुमी । और जहाँ से छिपे सिपाही निशाना लगाते हैं । बुर्ज । उ०-- ३ अंकुसियों का गुच्छा जिससे कुएं में गिरी हुई चीजें मगर, कोट के गुरन चढि गए कोटि कोटि रणधीर ।—तुलसी रस्सा अादि निकालते हैं। ४ किसी प्रकार का अँकुस। (शब्द०)। ३ मदर ग्रादि का ऊपरी के 1श अादि । ४ जिससे वस्तु फेसाई या उलझाई जाय । ५. एक प्रकार की गहना गुरे के प्रकार का छोटा रवा । ५ नथ के चदक प्रादि पर जो सिर पर पहुना जाता है । ६ इमली की वे छोटी फल का वह उ भाउ जो छोटे छोटे रवों की स्विकार रख कर जिन में वीज न पड़े हैं। केतुनो। बनाया जाता है । के दियारी--सूज्ञा स्त्री० [सं० कटकारी] भटकटैया ।