पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२१४

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७३६ कपू -सज्ञा पुं० [अ० कैप १ वह स्थान जहाँ फौज रहती हो । कर-- ० तिर रग । नविन र 1 चित्र पर्ष 18० । छावनी । उ०—कपू वन वाग के कुदा कपतान पुई।- कवल-राजा मुं० [५० फम्बत] [i० अरपा) कमला 1 ऊन का पद्माकर ग्र०, पृ० ३२० । २ वह स्थान जी नाई के समय या है। मोटा कप४ विग गरी रोग प्रीते हैं। यह दो फौज ठहरती है । पड़ाव 1 जनस्थान । ३ डेरा । मेगा । ४, के ऊन का बनता है और ३ रे ग ए वृनने हैं । ३०- फौज । सेना। दे० 'कपनी'। पहिण - Yण कथन ठे पुरिम रा--- ० • ६६२ । मुहा० - क ५ का बिगड़ा हुमा= (१) लुच्चा या गुडा। (लो०)। २ एक फोद्धा जी वरात में दिई वा है प्रोर के ऊपर (४) वागी । ले रोए होते हैं। हमन।। ३ जनत्रयाइ ।--प्रने झार्थ, कपोज---सज्ञा पुं० [अ० क पोज शब्दो और वाक्यो के अनुसार टाइप १० ६१६ । ४ मारना। मरी (१०) । ५ एक प्रार के अक्षरो को जोड़ना । जैसे,--(क) ब्राज प्रेस में कितना का हिरन (३०) । ६ भी । । दीर (को०) । ५ । मैटर कपोज हुअा। (प्र) तुमने के कितनी गेली ‘क पोज पानी (को०)। को थी ? कवलक---रा। पुं० [त० कम्बलक] १ नः ३८५ प पर। २. कि० प्र०—करना । होना । पल (२०] । कपीजिग---संज्ञा स्त्री० [अ० फ पौजिग] १ कपोज करने का फ।ग । काबलिकाःJt ची० [१० फम्बलि *] १ म ।। ३ एक प्रकारे २ कोज करने की मजदूरी । वपोज कराई। को हरिणी ने० ।। कपोजिंग स्टिक सुज्ञा स्त्री० [अ० क पोजिग स्टिक क ।जिटर का कवली'--वि० स० फम्बलिन्] १ कयर 3 1 29 1 १ २’ ने एक औजार जिसपर अक्षर बैठाए जाते हैं । | युक्त । बलवान [३०] । कपोजिटर--संज्ञा पुं० [अ० क पोजिटर छापेाने का यह कर्मचारी कालो---रात ५० चैत (a) । जो छापने के मैटर के अधरों को छापने के ये कम से कवि--संज्ञा स्त्री॰ [सं० फयि] ६० हवा' [] । बैठाता है। कविका-सा धी० [३० कम्विका प्रादौन फान् । ९ वाजा कपोजिटरी--मज्ञा स्त्री॰ [हि० क पोजिटर+ई (प्रत्य०)] कपोजिटर जिससे ताल दिया जाता था। का पद । जैसे,- कपोजिटरी का पयाल छोडो । २ कप जिटर कवी--सा ओ० [सं० कम्बो) २ १ । २ बम की गांठ । ३ | का नाम । यस का कुर (०) ।। कपौंडर - संज्ञा पु० [अ० क पाउडर] दवा बनानेवाला । डाक्टर को कुबु'--वि० [स० कम्यु] चित पर । अनेक वणों का [७] । दवा तैयार करने में सहायता पहुचानेवाला । कबु-—पुं० १ शय । उ-उर मनि मात कषु कल प्रया। कपडरी-सज्ञा स्त्री० [हिं० के पीडर +६ (प्रत्य०)] १ कपडर का । —मानस, १।२३३ । काम । २ कपडर का काम करने की उजरत । ३ कपहर यो०- बुकठ । के बुग्रीव । का पद । २ शप को चू । ३ पोषा। हाथो । ५ दियेवणं (को॰) । कप्र--वि० [स० कम्प्र]कपित हुआ । हिलता हुपा । चल। स्फूर्त ।। ६ क कण । *गना (को०) । ७ नलिका । नती हो तेज (को०)। फी) (को॰) । कफहम--वि० [फा० कम +फहम] १ कम अल । २ मयं । ३० - कवक---वि० [सं० कम्बुरुण्ठ अर्य जती गर्ने वा + [को०] । । कफहम अादमी की राय मुस्तकिम नहीं होती --श्री कवठी -वि० श्री० [सं० फम्बुकठी] श7 को जैसी गदनेवाल।[2] । निवास प्र ०, पृ० ३१ । कबुक----सी पुं० [स० कम्युक १ कनु । शq । उ०—–ज । तें तेरे कुव –सुज्ञा स्त्री॰ [सं० फम्बाछडी । यष्टि । हाय में शौफ से रेपने कुच चिर, हरि हरे भरि नैन । कनक कतरा, कबुक कईद की छ । उ०--धंण केयर कव ज्य', सुकी तोइ सुरति । भीके तन के लगे हैं ।—म १०, पृ॰ २५७ । मह जी अधर्म - ढोला०, दू० १३५ ।। हो (को॰) । मुहा०--क व लगाना = छही या लकड़ी से मारना । उ4-मारू कुबुका-सा स्त्री० [सं० फम्बुकर] १ अश्वगंधा नाम का वृक्ष । ३ मन चिता धरइ करहुई कब लगाइ –ढोला०, ६० ६३४।। | गदन । ग्रीवा [को०] । कबखता -वि० [हिं॰] दे॰ 'कमवस्तु' ।। कबुकाष्ठा--सा स्त्री० [स० फम्बुकाष्ठा] पश्चगधा {३] । कवडी--सज्ञा स्त्री॰ [सं० कम्वा+हि० डी (प्रत्य॰)] दे० 'कव' । कवुग्नवि-वि० [स० कम्युग्रीव शप जैती गर्दन ला [को॰] । उ०—सड सड याहि में कवडी र राँगा देह में चूरि –ढोला, कबुग्रीवा--वि॰ [रा० कम्बुग्रीवा शप जै गर्दनाली (को॰] । दु, ४६२ । कुवपुष्पी-सा पी० [सं० कम्बुपु०पी शपुप्पी (को०] । कवर --मज्ञा पुं० [स० कम्बल ७ फम्पर]पु० 'कवल' । उ० कवमालिनोस। स्त्री० [सं० फम्बुमालिनी ] शधदुप्पी (को॰] । वैसेई कवर अवर हार । वै खुइ सहज अाहार विहार ।—द कबू—सा पुं० [स० कम्३ } १ चोर । २ लुटेरा । ३ कगन (को०)। ग्र ०, पृ० २६५। कबोज---सा पुं॰ [स० कम्योज] [वि॰ कांयोज] १ अफगानिस्ान कुबर-वि० [सं० कवंर, कम्प नेक वण का चित्त । चितकबर[[को० । के एक भाग का प्राचीन नाम ।