पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२१३

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७३७ कपटीशन जाकर बाएँ कधे पर से ले जाना । उ०—डोनत दिमाग ड्वी खोसते जाते है। इससे पेड़ पर बैठी हुई चिडियों को फँसाते डग देत दीठि नाग रे कर डारन डौवन बेला की -- हैं । वसि को खोचा और कूचे को क । कहते हैं । पजनेम (शब्द॰) । मा०-कपा मारना या लगाना = (१)विडियो को नँगे से मारना कुन-सुज्ञा पु० [सं० कण] कान ! कर्ण । 'उ० - डुलै कन नाही मी फैमाना । (२) घोने में किसी को अपने वश में करना । मिनीका सुग्रीव —०, रा०, २५५२०९ ।। फैमाना । दाँव पर चढ़ाना । ३०-अवे तुम माशा अल्ताह से कप'–संज्ञा पुं० [१० कम्प] १ कपकपी । । पिना । २ शृगार के सयान हो । नेक वद समझ मकती हो। अगर यहाँ कपा न सात्विक अनुमावो में से एक। इसमें शीव, कोष र भय । मारा तो कुछ मी ने किया ।- सर०, पृ० २८ ।। आदि ने अकस्मात् सारे शरीर में कैंपकंपी सी मालूम होनी कपा मज्ञा स्त्री० [म कम्पा १ काँपना। २ मय । डर । ३. है । ३ शिल्पशास्त्र में मंदिरो यः स्तभो के नीचे या ऊपर की हिलना । आदोलन [को०)। केनी ! उ ।डो हुई कगनी । यौ०–कपज्वर = शोनवर । वुवार ! कपमापक = मूकप मापक कपाउ डे-भज्ञा पुं० [अ०] १ ग्रहता। चहारदीवारी के भीतर या 1 कंपवायु = एक प्रकार का वातव्याधि जिसमे मस्तक की छु । जगह । घेरा । २ दवाइयों का मिश्रण ।। कपाउ डर--सज्ञा पुं० [अ०] डाक्टर का सहायक जो पिधियों के और सब अगों में वायु के दोष से कपन होता है ।-माधव, पृ० ११६ । कपबज्ञान = कप यंबधी विज्ञान । मिलने का कार्य करता है । औपवयोजक । २, डाक्टर के कप---नज्ञा पुं० [स० कप] पड़ाव । लशकर। डेरा ! उ०—साथ में कार्य में आवश्यक उपकरण जुटानेवाला और निर्देश के अनुसार डाक्टर का सहायक । कर वह वडा है ।—हुमायू॰, पृ० ८० । कपाउ डरी---सज्ञा स्त्री०[में कपाउडर + वि० ई (प्रत्य॰)]१ काउडर कंपनि मज्ञा पुं० [सं० कम्पति] समुद्र । उ०---सत्य तोयनिधि | का कार्य । २ कपाउडर की वृत्ति ।। कंपति, उदधि पयोधि नदीस —मानस, ६।५।। कपाक--सच्चा पु० [सं० कम्पाक] हवा । वायु [को०) । कपन--संज्ञा पुं० [स० कन्पन][वि० क पित]१ कपना । थरथराहट। कपानापु–क्रि० स० [हिं० कॅपना का प्रे०] १ हिनाना । हिलाना- कैप¥गी । २ शिशिर काल (को॰) । कपना - क्रि० प्र० स० कम्पन] १ काँपना। थरथराना । २ । | डोलाना। २ भय दिखाना । डराना । कपायमान वि० [म० कम्पायमान] हिलता हुआ । कपिन । हिल उठना । उ०—(क) भएउ कोप कोउ त्रैलोक ।--- कपास--सज्ञा जी० [अ०] एक प्रकार का यत्र जिससे दिशाश्री का मानस, १६७ । (ख) फागुन कप्या रूख -- बी० रासो, ज्ञान होता है । दिग्दर्शक। कुतुबनुमा । पृ० ६२ । (ग) कपत चैतन रूप कहा जर जरत समृरे । —हम्मीर २०, पृ० २२।। विशेप--यह एक छोटी सी डिविया होता है जिसमे चुवक की कपनी--- सच्चा लौ० [अ०] १ व्यापारियों का वह समूह जो अपने एक छोटी सी सूई होती है जिसका सिरा सदा उत्तर को रहता संयुक्त धन से नियमानुसार व्यापार करता हो । २ इगलैड के है। इसमें लोगों को दिशा का न होता है। यह समुद्र में माझियों और स्थल में नापनेवाला प्रौर नकशे बनानेवालो व्यापारियों का वह समूह बो सन् १६०० ई० में बना था ।। विशेप -रानी एलीजाबेथ प्रधम की प्रज्ञा पाकर इस समूह ने । के लिये बड़ा उपयोगी है। यौ०--कपासघर= जहाज में वह स्थान जहां कपास रहता है । भारतव में व्यापार करना प्रारंभ किया। इसने यहाँ पहले | २ प्रकार । ज्यामिति के काम में ग्रानेवाला एक मापयत्र । कोठिय वनाई, फिर जमीदारी खरीदी और बढ़ते बढने देश के | ३ एक यत्र जिससे पैमाइश में लैन डालते समय समकोण का बहुत से प्रीतो पर अधिकार कर लिया। यौ०---पनी कागद = प्रमिसरी नोट । अनुमान किया जाता है। अ० राइटेगिल । ३ मैना की वह भाग जिसमे १८०० सैनिक होते हैं। ४ मुड । मुहा०-- कस लगाना = (१) नापना । (२) तक झाँक करना। गया। | फंसाने की बात में रहना । कपमान-- वि० [सं० कम्पम न ] दे० 'कपायमान' ।। कपित—वि० [म० कम्पित] कांपता इंग्रा । अस्यिर। चलायमान । कपस--सज्ञा पुं० [अ० कपास] दे॰ 'कपाल' । कुतुबनुमा । चंचल । उ०—छोभित सिबु, सेप सिर कपित पवन भयो गति दिग्दर्शक । उ०--तोही सो अरुझे खरे कपस से जुने नैन ।- फ्ग --सुर० ६।१५८।२ भयभीत 1 डर है ! श्यामा०, पृ० १७४। कपिल सच्चा पु०[१० कम्पिल्ल, काम्पिल्य]फरु घाबाद जिने का एक कपा--सच्चा पुं० [म० कम् (= गाँठ)+पाश या हि० कप] बाँस की पुराना नगर । कपिला । पतली पतली तीनियाँ जिनमें बहेलिए लासा नगाकर चिडियों विशे–ng q ef को फैलाते हैं । उ०—लीलि जाते वरही विलीक बेनी वनिता | द्रोपदी का स्वयंवर हुम। या । की जो न होती ग थनि कुन मसर कंपा की ।—(शब्द०)। कपिल-सा पु० [सं० कम्पिल्ल] कमला ।-० न०, पं० २५] विशेप--यह दस पांव पाली पतली तीलियों का कूचा होता कपाटशिन-सा पुं० [अ० फपिटीशन] प्र विद्वद्विता। स्पर्धा । उ०-- है । इयें पतले बाँस के मिरे पर वोमकर लगाते हैं और अन्य सरकारी नौकरी की राह में कपटीशन की कसौटियाँ फिर इस वाँस को दूसरे में और उसे तीसरे में इसी तरह हैं 1--भिशप्त, पृ० ७१।।