पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२११

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७३५ निहारे ।—तुलसी (शब्द॰) । ३. अकुश । ३. सोंठ । शूठी कदला कचहरी-वैज्ञा स्त्री० [हिं० कन्दला+कचहरी] वह जगह (को०)। ४ मेघ । वान्न (को॰) । जहाँ कलाकशी का काम होता है ! तार का कारखाना । कुदर -सुंज्ञा पुं० [H० कन्द मूल । जडे । कंदले का कारखाना । कदरफ -सज्ञा पुं० [सं० कन्दपं] दे॰ 'कदप' । उ०—कठ्या लहरि कलाकशु--सज्ञा पुं० [३० कन्दली+फा० केश] तार वचनेनाना। कंदरफ को पलटू गुर जी :-रामानद०, पृ० १५ । जो तारकशी का काम करता हो । तारक । कदरा- सज्ञा भी[सं ० कन्दरा]१ गुफा । गुहा । उ०—मानहु पर्वत कंदलाकशी-सुज्ञा स्त्री० [हिं० कन्दला+फा० का +ई (प्रत्य० ) कदरा, मुख सच गये मुमाइ ---र०, १०।४३१ । २ घाटी। तार खींचने का काम ! उपत्यका (कौ०) । कदलित--वि० [२० कन्दलित] १ प्रस्फुटित । खिला इग्रा । २ कदराकर--सज्ञा पुं० [अ० कन्दराकर] पर्वत 1-दि० । उद्गत । निको हुअा [को०] ।। कदराल- सूज्ञा पु० वि० कन्दराल] अखरोट । कंदलिवास –सुज्ञा पुं० [सं० फन्दल= सोना+वास = निदान) कदरिया –सुज्ञा सी० [सं० कन्द] ६० कद । मूल 1 जूड । हिरण्यगर्भ । परमात्मा । ब्रह्म । उ०—काया माई कदलिवासा । कदरी--सुन्नी स्त्री० [सं. कुन्दरी] दे० 'कदरा' [को०] ।। काया माई हैं लश --दादू०, पृ० ६४१ ।। कदर्प-सज्ञा पुं० [सं० कंदर्प] १. कामदेव । | कदली–चा जी० [म० कन्दली] १. एक पौधा जी नदि के किनारे यौ॰—कदर्पशूप= भग । योनि । कन्दर्पर = काम का ज्वर ।। पर होता है। बरसात में इसमें सफेद सफेद फूत्र लगने है । कदपंदन= शिव । कदपंमयन = शिव। कंदर्पमुप, कदर्प- २ केला (को०) । ३ हिरन की एक किम (को०)। ८ गताका मुसले= लिग । शिश्न । कंदर्प खुल =(१) रतिच्छद । | (को०) । ५ कमलगट्टा (को०)। (२) एक प्रकार का रतिवछ । ५० १ [सं० कदलीफुसुम) कुकुर मुत्ता । २ २ संगीत में ताल के ११ भदो में ३ एव । ३ चुत में कदलातुमसा । केले का फूल [को०] । एक प्रकार का ताले जिनमें कम से दो दुश, एक लघु और दो कदवधन-संज्ञा पुं० [स० कन्दवर्दन] तुरन । न [को०] । गुरु होते हैं। इसके पखावज के वील इस प्रकार हैं—तक जग कदशूरण- संज्ञा पुं० [सं० कन्दमूरण] अोल । नमीकद (को०] । धिम तक वीकृत धकृत : विधिगत यो यो । ४. प्रणय । कदसार--सज्ञा पुं॰ [सु० फन्दसार] १ नंदनवन । इद्र का बगीचा । प्यार (को॰) । २. हिरन को एक जाति । कदल-सुज्ञा पुं० [सं० फन्देल] १ नया अँखुमा । उ०—नवन। विकच कंदल कूल कनिका जगमोहन अकुलावं । --श्यामा०, कदा-सज्ञा पु० [स० केन्द] १ दे० 'कद' । २ करकद । ग जी । । ३ घुइया । अरुई । पृ० ११६ । २. कपाल । ३ सोना। ४. वादविवाद ( कचकच । वायुद्ध । ५. निदा । उ०--नगले मद्ये गारि कंदल घरहल कदाकारी संज्ञा स्त्री॰ [फा० कन्दहकारी] वे वेलबुटे जो नोन, चादी लकड़) या पत्यर पर बनते हैं। नक्काशी ---पा० मा०, हरहलि चोट ।—वै० पृ० २६ । युद्ध । उ०—सालुले पृ० १२६ ! विदल कंदल समात्र ।-रा० ६०, पृ० ७३ । ७ मधुर ध्वनि कदालु-संज्ञा पुं० [स० कन्दालु वनकद । जगली कंद (वै । या म्वर (को०)। ६. एक प्रकार का केला । कदिर-संज्ञा स्त्री॰ [स० कदिरी] नाजवती। लजाल ८ ल । कंदल-सज्ञा स्त्री० [सं० कन्द।दै० कंदर' । उ०-पग टौहर नाम का पौधा [को०) । कदल ही जु ठया पृ० रा०, ११५५३ । कदा चज्ञा पुं॰ [सं॰ कन्दिन्] १ मूरन । ग्रन । २ मल । कला-सुज्ञा पुं०] १० कन्दल = सोना] १ चोदी की वह गुट न पा —देशा०, पृ० ८० । लुवा छड जिससे तारकश वार बनाते है । पास। | रैनी । गुल्ली । विशेष—तार बनाने के लिये चाँद को ग नाकर पहले उसका एक कृति-सजा पू०प्र०] जैन मत के अनुनार एक प्रकार के देव जो वाणुव्यर के अंतर्गत हैं । लंबा छड बनाया जाता है। इन छड के दोनो छार नुकीले कदल' संज्ञा [अ० फन्दोल] अवरक, कादि या fuटटी का र होते हैं। अगर सुनहला तर बनाना होता है, तो उसके बीच घेरा जिसमें रखकर दीपक जलाते हैं अौर ऊँचाई पर टांग में सोने का पार चटा देते हैं, फिर इसका यत्री में वीचते हैं। इस छड़ को सुनार गुल्ली और तारकश कदला, पासा मौर कदील—संज्ञा पु० [हिं० फाल जहाज में वह स्थान जहां पानी रैनी कहते हैं । | रहता है ग्रोर ला पायघाना फिरते र नाते हैं। मुहा०—कलो गलाना = (१) चाँदी ग्रोर सोना मिलाकर एक सेतना । साथ गुलाना । (२) सोने व चांदी का पतला तार । कंदीलची-मुज्ञा पु० [→० कदोल+ तु० ची (2त्य०)] वह प्रादन। यो०-कदलकश । कलाकचहरी । जी मस्जिद में कदल बनाने का काम करना है। कला-संज्ञा पुं० [मं० कन्दल] ए प्रार का कचनार । ३० कदु---सृज्ञा पु० जी० [३२ केन्दु १ भट्ठी । भट्ठा । २. ना. ३ 'कचनार ।। काह।। ४ । । ५ गॅद। ६. पका हुआ बवा भने इम। कदला -सज्ञा पुं० [सं० कन्दरा] कदरा। गुफा । इ०-दिक्पो अन्न (०] । भुवीर महतो रोह -पृ० रा०, १॥३९८ ।