पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२१०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

कडू ७२४ कदर कडू–संज्ञा स्त्री॰ [स० कुण्डूरा] केवॉच [को०] । कथा-सच्चा श्री० [स० कन्या] १. गुदड़ी। उ०—-फारि पटोर सो कडूल-पि० [स० कण्डुलखुजली पैदा करनेवाला । सुरसुरी उत्पन्न पहिरों कया । जो मोहिं कोउ दिखावे पूया !-—जायसी (शब्द०) करनेवाला । (को०] । २ कयडी । कयर' (को०)। ३ मीत । दीवार (को०) 1 ४ कडूल-सज्ञा पुं॰ सूरन । झोल | जमकद (को०)। नगर। शहर (को०)। ५ जोगियो का पहनावा या परिधान कडोच-सज्ञा पुं॰ [सं०] कीड़े की दशा को प्राप्त रोएँदार अपूर्ण पतग। (ला०) । डिम् । कमला। झाँझ । इल्ली (को०] । कथाघारी-वि० [सं० कन्याघारिन कथा धारण करने वाला योगी। कडोल---सज्ञा पुं० [स० कण्डोल]१ बेत या वाँस को बना टोकरा ।। जोग (को०) । २ वड़ी दौरी या दौरा । ३ माडार गृह । ४ ऊँट [को०)। कथारी–स ज्ञा पुं० [सं०] एके प्रकार का वृक्ष । कडोलक--सज्ञा पुं० [स० कण्डोलको १ डलिया । टोकरा । टोकरी । कथी—संज्ञा पुं॰ [सं० कन्थिन्] गुदड़ी पहननेवाला व्यक्ति । फकीर । । २. भाडार गृह (को०} । । उ०--जोगि जुती अरु ग्रावहिं के था। पूछे पियहि जान कोई कडोलवीणा–संज्ञा पुं० [सं० कण्डोलवीण चाडालवीणा । किगरी । पथी ।—जायसी (शब्द॰) । कडोर-संज्ञा पुं० [सं० कण्ड या देश० अयवा हिं० काँठो] १ अन्न का केद'-- संज्ञा पु० [सं०] १ वह जई जो गूदेदार और विना रेशे की | एक रोग । | हो। जैसे ---सूरन, मूली, शकरकंद इत्यादि । विशेप-—यह रोग प्राय ऐसे अन्नों को होता है जिसमें बाल लगती यौ---ज़मीकद । शकरकंद । बिलारीकद । है, जैसे धान, गेहू, ज्वार, बाजरा अादि । वाल में काले रंग २ सूरन । न । कदि । उ०—चार सब सैर कद मैगा । की चिकनी घुल या भुकडी बैठ जाती है । इसे बाल मे दाने अाठ अश नरियर ले अ कबर स०, पृ० ५४६ । नही पडते और फसल को बड़ी हानि होती है। कडा और ३. वादल । घन । उ०—-यज्ञोपवीत विचित्र हेममय मुक्त मिल कैजुमा भी कहते हैं। उरसि मोहि माई । कद तडित विच ज्यो सुरपति धनु निकट २ ३० 'कहर' । बलाक पति चलि अाई । —तुलसी (शब्द॰) । कडोप -संज्ञा पुं० [स० कण्डोप]१ डिभ । इल्ली। २ बिच्छूको०)। यौ–अनदेव । कडौ-संज्ञा पुं० [हिं० कडा +ौरा.(प्रत्य॰)] १ वह स्थान जहाँ ४ तेरह अक्षरों का एक वर्णवत्त जिसके प्रत्येक चरण में कडा पाया जाता है । गोहूर । २ वह घर जिसमे कड़े रखे चार यगण और अंत में एक लघु वण' होता है (य य य ये जाते हैं । गोठौला । २ कडो का ढेर जिसके ऊपर से गोवर ल) । जैसे,—इरे राम हे राम हे राम हे राम । करो मो छोप देते हैं। वठिया ।। हिये मे सदा अपनो घाम ।-(शब्द॰) । ५ छप्पय छद कत'---वि० [स० कन्त] प्रसन्न । अनि दित [को०] । के ७१ भेदो मे से एक जिसमे ४२ गुरु ६८ लघु, ११० वर्ण कत"G—संज्ञा पुं० [सं० कान्त] १ पति ! स्वामी । उ०—मदन और १५२ मात्राएँ, अथवा ४२ गुरु ६४ लघु, १०६ वर्ण लाजवश तिय नयन देखत बनत एकत। इंचे खिचे इत उत् और १४६ मात्राएँ होती हैं। ६ योनि का एक रोग जिसमे फिरत ज्यो दुनारि को कत ।—पद्माकर(शब्द०)। २ मालिक । वतौरी की तरह गाँठ बाहर निकल आती है । ७ शोय । ईश्वर । उ०—-तू मेरा हौं तेरा गुरु सिप कीया मत। दूनो सूजन (को०)। गाँठ (को०)। ६, लहसुन (को॰) । भूल्या जात है दादू विसरया कृत |--दादू (शब्द॰) । कद-संज्ञा पुं० [फा०] जमाई हुई चीनी। मिस्री । उ०—हक में कतरि--संज्ञा पुं॰ [स० कान्तार] वन । जगल । अाशिक के तुझन वाँका वचन । कद है नेकर है शक्कर है। कता –सृज्ञा पुं० [सं० कान्त] दे॰ 'कत' । उ॰—(क) तव जान्यो -कविता कौ०, भा० ४, पृ ३९ । कमला के कता ।—सूर (राघा०), पृ० ४५० । (ख) जैसे। यौ०-कलाकद 1 गुलकद ।। कता घर रहे वैसे रहे विदेस (कहावत)। कदक-सज्ञा पुं० [सं० कन्दक] पालकी [को०] । कतार- सुज्ञा पुं० [स० कान्तार] जगल । वन ।। कंदगुडुची सूज्ञा स्त्री० [स० कन्दगुडुची] एक प्रकार की गुडुची । कति--सज्ञा स्त्री०स० क्वान्तादे० 'काता' । ३०-~-कहै कति सम | पिडालू । वहुच्छिन्ना [को०] ।। कत, तृते पावन १६ कब्बिय ।-पृ॰ रा॰ १।७। कदन- संज्ञा पुं० [सं० कन्दन] नाश । ध्वम् । कतित---सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक पुरानी राजधानी जिसके खडहर कदमूल--सज्ञा पुं० [सं० कन्दमूल]१ कद और मूत्र । २ तौन चारे मिर्जापुर के पश्चिम गगा के किनारे पर हैं और जहाँ इस नाम हाथ ऊँचा एक पौधा । का एक गाँव भी है। मिथ्यावासुदेव की राजधानी यहीं थी। । विशेष—इसका पत्ता सेमल के पत्ते सा होता है। इसकी जडी कतु'---वि० [स० कान्त, कन्तु] प्रसन्न । मोटी, लवी और गूदेदार होनी है। इमको डालियाँ जमीन फतु-सज्ञा पुं० १ कामदेव । २. हृदय । ३ अन्न का 'भाडार । ४ में लगती हैं । नेपाल की तराई में पहाडो के किनारे यह बहुत प्रेमी [को॰] । मिलता है । लकडी पोली और निकम्मी होती है। जडे को कथGf--संज्ञा पुं० [स० कान्त]६० 'कत' । उ०—कय बुलाय केकेई लोग उबालकर या तरकारी बनाकर खाते हैं। कदर-संज्ञा पुं॰ [स० कन्वर] [स्त्री० फन्दरा] १ गुफा । गुहा कुहियो, अप वचन पूरी आस ।--रघु० रू०, पृ० १०० । उ०—कदर खोह नदी नद नारे। अगम अगाध न पाहि