पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२०३

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कंकृतिक ७१७ केल ककृतिका--सुज्ञा झी०[न० कडुतिका कधीं। २ केशप्रसाचिनी कंकालमाली--संज्ञा पुं० [स्त्री॰ कालमालिनी १ शिव । महादेव । (को०] । २ भैरव ।। कृती-सज्ञा स्त्री० [सं० डुती दे० 'कृतिका' । केकालव--सज्ञा पुं० [म० कङ्कालय] देह । शरीर [को०] । ककत्रोट–संज्ञा पुं० [सं० कोट] [स्त्री० क्त्रोदी] एक प्रकार की कंकालशुर--सुज्ञा पुं॰ [सं०]वहु वाण जिसके सिरे पर हड्डी लगी हो । मछली जिमका मुह वगने के मुंह की तरह होता है । काँग्रा ककालशेप---वि० [म० कङ्कालशेप] १ जो हड्डियों का ढाँचा मात्र मछनी । २६ गया हो । २ प्रतिकृग । उ०----ककानशेपे नर मृत्युप्राय । ककन -सज्ञा पु० [नं ० कडुण]१. 'कक्ण'। उ०—दोन्ही हार –अनामिका, पृ० २४ । । न कर ककन' मातिनि थार मरै—सूर०१०।१७ । बिमष्ठा ए० [न कडालास्त्र] एक अस्त्र का नाम जो हड्डी | दे० 'ककए । उ०--कर के पे कन छूट 1-सुरc el२५ से बनता था। ककपत्र-सज्ञा पुं॰ [स ० कङ्कपत्र] १ क का पर 1 २ बाण । ककालिनी'.-मज्ञा स्त्री॰ [ स० कङ्कालिनी] दुर्गा का एक रूप । ककपत्री---सज्ञा पुं० [सं० कपत्रिन्] बाण। तीर । ककालिनी-वि० उग्र स्वभाव की । कर्कशा । झगड़ानू । लडाकी। ककपवाज्ञा पुं० [सं० कडुपर्दन] एक प्रकार का नाप । दुष्टा। उ०—कंकालिनि कूवरी, कल किनि कुरूप तैसी चेटकनि कॉपृष्ठी---नत्र भी० [सं० फड्पृठी] एक प्रकार की मछली । चेरी ताके चित्त को चहा क्रियो।—पद्माकर (शब्द॰) । ककमुख-सुज्ञा पुं० [सं० पढ्भुज] एक प्रकार की इस जिससे विजिनक किसी के शरीर में बने हुए कृटि को निकालते हैं। ककाली'--संज्ञा पु० [स० केल+हि० ई (प्रत्ये)][ी० ककालिन] ककर --सज्ञा पुं० [स० कर} दे० 'ककड़' । एक पिछड़ी जाति जो गाँव गाँव किंगरी बजाकर भीख माँगती ककर'.----सपा पु० [स० किड्रोमैक । दास 1 उ०---विनु गुर जसे फिरती है । उ०-~-यश कारण हरिचद नीच धर नारि | ककर वज्ञि परे । प्राण, पृ० ३५ । समय । यश कारण जगदेव सीस ककालिहि अप्यों ।कुकरीट-पझा नौ० [अ० काझीटा] १ एक माला जो गच पीटने वैताल (शब्द॰) । के समय छत पर डाला जाता है । चूना या सीमेट, केकडे, कृकाली-नक्षा स्त्री० [स० कहूलिनी दुर्गा का एक रूप । उ०— बालू इत्यादि में मिलकर बना हुआ गच पीटने का मसाला । कर गहि कपाल पीवे रुधिर ककाली कौतुक करे -- छरी, वजरी। हम्मीर०, पृ० ५८।। विशेप-चूने या संमेट में चौगुने या पचगुने ककड़, ईंट के ककाली–वि० कर्कशी । लडाकी । टुकड़े, वालू अादि निलाकर यह बताया जाता है। ककु–सुज्ञा पुं० [सं० कङ्क! कगु नामक अन्न । कॅगनी । २ छोटी छोटी ककड जो सड़कों में बिछाई और कुटी कुकूष्ठ–संज्ञा पुं० [सं० कष्ठ] एक प्रकार की पहाड़ी मिट्टी ।। जाती है। विशेप-भावप्रकाश के अनुसार यह हिमालय के शिखर पर उत्पन्न ककरोल—सच्चा पु०म० करोल]एक वृक्ष का नाम । निकोचक[को०) होती है। कहते हैं, यह सफेद और पीली दो प्रकार को ककन–सच्चा पुं० [सं० कृकल वन्य यः चाव का पौधा ।। होती है। सफेद को नालिक और पीली को रेणुक कहते हैं । विशेष—यह मलक्का द्वीप में बहुत होता है। भारतवर्ष के रेणुक ही ग्रधिक गुणवाली समझी जाती है । वैद्यक के अनुसार मलावार प्रदेश में भी होता है । इसका फल गजपीपर है ।। यह गुरू, स्निग्ध, विरेचक, तिक्त, क, उष्ण, थर्ण कारक औद केही मी दवा के काम में आती है ! जड को चैकठ कहते कृमि, शय, गुल्म तथा कफ की नाशक होती है। हैं । बंगाल में जड और नको रेगने के काम में ग्राती है । पृय -कालकुष्ठ । विरग रगदायक ! रेचक । पुलक। शोधक। इसका अकेला रग कपडे पर पीलापन लिए हुए बादामी होता कालपलिक । है और बक्कम के साथ मि :ने में लाल बादामी रग अाता है। ककूध--मज्ञा १० [सं० कडूप भीतरी शरीर। ग्राभ्यतर देह (०]। कका–स ० [सु० का राजा उग्रसेन की लडकी जो कक की ककेर--सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का पान जो कडी होता है। | वहिन यी ! यह वसुदेव के भाई को 31ही थी। ककेरू—संज्ञा पुं॰ [स० करू] कोब्रा । ककारी संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार का वृक्ष । ककेल–सज्ञा पुं॰ [स० कईल] युप्रा । केकाल-सचा पु० [न० काल] १ 2ठरी । अस्थिपञ्जर । शरीर की ककेलि-संज्ञा पुं॰ [सं० केल] अशोक का पेड़ । | हड्डियो का ढौवा । कल्ल —सजा पु० [सं० फङ्घल्ल] दे० 'ककेलि' (को॰) । यौ०—ककालास्त्र । ककेल्लि -सज्ञा पुं० [सं० कडूल्लि] दे० 'ककेलि' [को०] । ककालकाय--वि० [त० कङ्कालकाय] १ हड्डियों के ढांचे से शरीर- ककोल----संज्ञा पु°[सं० कङ्गोल]• शीतल चीनी के वृक्ष का एक भेद । वाला । २. अत्यंत दुर्वल । उ०—चे दोन क्षीण कंकालकाय । उ०—चुदन वदन योग तुम, धन्य दुमन के राय, देत कुकुज —तुलसी०, पृ० १७ । ककोल लो, देवन सीम चढाय ।—दीनदयाल (शब्द०)। ३ ककालमाली'----वि० [सं० कालमालिन्] हुड्डी की माला पहनने कुकोल का फल । इमे ककोल मिच भी कहते है। उ०— वाला । जो हुइडों की माला पहने हो । शशिद्युत डील जिती ककोल --नपरीक्षा (शब्द॰) ।