पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२०१

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प्ट्रक' औहाती श्रौष्ट्रक-वि० [सं०] ॐ संवधी । कैंट विषयक (०] । सर –सुज्ञा पुं० १ ३• 'अवसर' । उ॰—अटक हीण अस्पती, प्ट्रक-संज्ञा पुं० ऊँटों का झुड) ३०-वैली के फूड के लिये प्रौनक, पाप छित असर पायौ । रद करवा रज्जियाँ, दुरद जेहौ। ऊँट के कुछ के लिये ट्रक’ प्रचलित थे |----सपूण मद अायौ ।—रा० ०, पृ० १६ । २. वारी! पारी। उ०— अमि० ग्र०, पृ० २८८ । पाँच पति एक नारि यौमरे सों मानी है ।—-ग०, पृ० १३१ । अौष्ट्ररथ-सज्ञा पु० [सं०] ऊँटगाड़ी [को०] । औसाण –संज्ञा पु० [हिं०] ६० 'श्रीमान'। उ०—द जिन प्रौष्ट्रिक'–वि० [२०] ऊंट से प्राप्त या मिला हुआ, जैसे, दूध०] 1 प्राण पिंड हमके दिया, अतर सेवे ताहि । जै अब शौसाण औष्ट्रिक-सुज्ञा पु० तेती छो०] । सिरि, सोई नाव सवाहि —दा०, पृ० ३६ ।। औठ-- वि० [सं०] 5 के आकार का । अप्ठाकृति [को०] । औसान'—संज्ञा पु० [सं० अवसान] १. अंत । २ परिणाम। उ०— श्रौष्ठ्य--वि० [३०] ग्रॉठ से मुंबधित । जैहि तन गोकुल नाथ भज्यो । यो हरि विठुरत ते बिरहिनि ग्रौप्ट्यवर्ण-सज्ञा पुं० [न०] दे० 'ग्रोप्ठ्यवर्ण’ (को०] । सो तनु तवहिं तुज्यो । अब मान घटत कहि कैसे मन अप्ठ्यस्यान--वि० [सं०] (व्रण या शव्द) जो गोठ से उच्चरित उपजो परतीति-—सूर (शब्द॰) । | हो [को॰] । औसान --संज्ञा पु० सुधबुध । होहुवास । चैत । धेयं । प्रत्युत्पन्नग्रौप्ठ्यस्वर--संज्ञा पुं० [मु.] अप्ठ म्यातीय स्वर । वे स्वर जिनका मति 1 उ०---सुरसरि सुवन रन भूमि अाए । बाण बर्षा लागे करन अति क्रोध पार्थ असान तव भुलाए !---सुर(शब्द०)। चार प्रोठ नै हो । ३, ऊ, म्वर (को॰) । गैर--सज्ञा पुं० [सं०] उप्रीती 1 उष्मा । गम (को॰) । मुहा०--ौसान उड़ना, सान स्वता होना, औसान जाता रहना, प्रौप्य --सज्ञा पू० [सं०] दे० अौ प्ण' (को॰] ।। असान मूलना= सुध बुध भूलना। बुद्धि का चकराना । वैर्य ग्रौप्य--संज्ञा यु० [सं०] गर्मी की स्थिति । ऊष्मा [को॰] । न रहना । मतिभ्रम होना। उ०---पूछ राखीं चापि रिस नि: ग्रौस ---मज्ञा स्त्री० [न० अवश्याय दे० 'ग्रोस । उ०—अरुन उदै काली कॉपि, देखि सव सुप आसान भूने। पूछ लीनी झटक, |ल तरुनई अंग अॅग झ’ की ग्राइ ! छिन छिन तिय तन ग्रीस घर नि सो गहि पट कि फू कह्यो लटकि करि क्रोध फ्ले ।स मिटत नरकई जाइ ।—सु० मुस्तक, पृ० ३७० । सूर (शब्०) । भौम--संज्ञा स्त्री० [हिं० उमस] दे॰ 'मस' ।। | औमना--क्रि० म० [हिं० सना] फन या अौर किमी वस्तु को औसतनुज्ञा पुं० [अ०] १ वह मृदया जो कई स्थानों की भिन्न | भूचे ग्रादि में दबाकर पकाना। भिन्न सच्याओं से जोड़ने और उसे जोड को, जितने स्थान औसाफ-संज्ञा पुं० [अ० श्रौसाफ] खासियत । गुण । विशेषता । हो उतने से नाग देने पर निकलती हो । बरावर का परता। । उ०—तीन लोक जाके औसाफ । जनका गुनह करे सब माफ। समष्टि का सम विभाग 1 सामान्य । जैसे,—एक मनुष्य ने --मूलक०, पृ० ३।। एक दिन १०), इमरै दिन २०), तीसरे दिन १५) और। औसि-क्रि० वि० [सं० अवश्य दे० 'अबश्य' । मी चौथे दिन ३५), कमाए, तो उसकी रोज को औसत आमदनी -सुज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'ग्रौली' । २०) दुई। २ माध्यमिक । दरमियानी । साधारण । मामूली । असर -सज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'अवमेर' । उ०--वन मापक मुरली । जैसे,—वह औसत दरजे का आदमी है। की देर । अावति ब्रजवासिनी ग्रौलेर ।---धनानद, पू० २२८ । श्रीसतनु-- क्रि० वि० [हिं० औमत] सामान्य रूप से । साधारणत् । हठ-वि० [हिं०] दे॰ 'घट’। उ०—औठ पटणि ताकै दस । असना---क्रि० अ० [हिं० उमेरी+ना द्वार --प्राण०, पृ० ११ ।। (प्रत्य॰)] १. गरमी पड़ना । ऊमसे होना। २. देर तक रखी हुई खाने की चीजो औठी--वि० [सं० अप+हठिन] बुरे हठवाला। हठी। जिद्दौ । मे गध उत्पन्न हो ना ! वासी होकर सडना । उ०—हठी हठीले इने बदरजहान रिपु कौतुक कों विविध विमान छिति छुवै रहे --गग०, पृ० ११६ । क्रि० प्र० जना । श्रीहत--संज्ञा स्त्री० [सं० अपघात या अवहन =कुचलना, कूटना] । ३. गरमी से व्याकुल होना । | अपमृत्यु । कुगति। दुर्गति । उ०--औहत होप मरों नहि क्रि० प्र०---जाना। झरी । यह सठ मरी जो नेरहि दूरी ।—जायसी (शब्द॰) । ४. फन अदि का भूसे अादि में दब कर पकना । अहाती -वि० सी० [हिं०] दे० 'अहिवाती' । २-२४