पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/२०

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उँकठनी उका उकठना--क्रि० प्र० [सं० अच= अपवृष्ट, सूखा + (काष्ठ= लकडी) । उकलवाना-- क्रि० स० [हिं० उकेलना फी रूप] दूसरे को उकेलने के जैसे कठियाना= कडा होना सुखना । सुखकर कदा या धीमङ लिये नियुक्त करना । हो जाना । सूखकर ऐंठ जाना । उ०—(क) कीन्हेसि कठिन उकलाई-सा स्त्री० [सं० उद्गिरण, प्रा० उग्गाल) कै । उलटी । पढाइ कुपा । जिमि न नवइ पुनि कठि कुकाढू ॥--मानस, चमन । मचली । २।२०। (ख) मधुवन तुम कत रहते हुरे ? कौन काज ठाढ़े उकलाना'-¥ि० अ० [हिं० उकलाई] उल्टी करना । वमन करना। रहे बने में काहे न उकठि परे ।—सूर (शब्द॰) । कै करुना ।। उकठी- -वि॰ [अब बुरा+काष्ठ= लकडी] शुष्क । सुखा । सूख- उकलाना-क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अकुलाना' । कर ऐंठा हुा । उ०--छोह ते पलुहहि उकठे रूखा । कोह ते उकलेसरी—संज्ञा पुं० [सं० उत्कल अथवा हिं० अकलेश्वर उकलेसर महि सायर सव सुखा ॥--जायसी (शब्द०)। ( अकलेश्वर) का बना हुआ कागज। ( उकलेसर दक्षिण यौ०-उकठा काठ । मुहा०—उकठे काठ को हरा भरा बना देना= मरे हुए को जिला उकले दिस--संज्ञा पुं० [अ० यू०] १ एक यूनानी गणितज्ञ जिसने देना । मुर्दे को जिंदा कर देना। रेखागणित निकाला यो । २, रेखागणित । उकडू-संज्ञा पुं० [सं० उत्कुटुक, प्रा० उक्कुडग, उक्फुडय= अासन- उकवत-सज्ञा पुं० [ स० उत्कोय ] दे॰ 'उकवय' ।। विशेष] घुटने मोडकर वैठने की एक मुद्रा जिसमे दोनो तलबे उकवथ-सच्चा पुं० [सं० उत्कोथ] एक प्रकार का चर्म रोग जो प्राय जमीन पर पूर बैठते हैं और चूतड एडियो से लगे रहते हैं । पैर में घुटने के नीचे होता है। इसमे दाने निकलते हैं जिनमें क्रि० प्र०-उकड वैठना ।। वाज होती है और जिनमे से चेप वही करता है ।। उकृढना- क्रि० अ० [सं० उकृष्ट> उकड्ढ+ना] दे० 'कढ़ना' । उ०- उकसना-क्रि० अ० [सं० उत्कपण] १ उभरना। ऊपर को उठना। तुरग कुदाइ अागे उ कढ़ि अरिगन में गयौ ।-पद्माकर यह कहि उ०---(क) पुनि पुनि मुनि उकसहि अकुताई ।--तुलसी ग्र०, पृ० १६ । ( शब्द०)। ( ख ) सेज सो उकसि वाम स्याम सो लपट उकत सम्रा जी० [स० उक्ति] दे० 'उक्ति' । उ०—याकी मत गई होति रति रीति विपीति रस तार की !-रघुनाथ (शब्द॰) लखत न बनत जाकी मखी विचित्र । वनत ने मन औरै उकत ३ निकलना । अकुरित होना। उ०-३ग्यो अनि नवेलियहि चुकत चितेरे चित्र -स० सप्तक, ३७१ ।। उकत -सच्ची पुं० [स० उक्ति} डिंगल में एक प्रकार की वर्णनपद्धति । मनसिज वान । उकसन लाग उरोजवा, दूग तिरछान - उ०—-मिश्रत माँहो मोहि मिल, वांधे उकत विशेप । रहीम (शब्द०)। ३ सीवन का खुलना । उधडना। ४ रघु रू०, २१४८ ।। दूसरे के द्वारा प्रेरित होना (को०)।। कताना- क्रि० स० [सं० अवकलन ५० , काकताना , उकसनि - सच्चा स्त्री० [हिं० उफसना उभाई । उ०- दृग लागे ऊदन 1 १०-रोज पुडी खाते खाते जी एकता गया तिरछे चलन पग मद लागे, उर मे कुछुक उकसनि सी कढ़ (शब्द०)। २ घबडाना । अाकुल होना । जल्दी भधान । लगी ---- शब्द०)। उतावली करना । उ०-उकताते क्यो हो, ठहरो, थोडी देर में उकसवाना-क्रि० स० [हिं० 'उकासना' का प्र० रूप ] किस चलते हैं । दूसरे से उकासने की क्रिया कराना ।। सयो० क्रि० - उठना । जानी । पडना । । उकसाई-सका जी० [हिं० उकासना ] १ उकासने की क्रिया या उकतीहट-सा सी० [हिं० उकताना अधीरता । व्याकुलता । । भाव । २ उकासने की मजदूरी । । | जल्दबाजी । उकसाना- क्रि० स० [हिं० ‘उ कसना' का प्र० रूप] १ ऊपर को उकुति -सज्ञा स्त्री० [सं० उक्ति दे० 'उक्ति' । उ०—तुन सुवरन उठाना । २ उमडना। उत्तेजित करना। उ०----ये लोग सुवरन वरन सुवरन उकति उछाह् । धनि सुवरनमय वं रही तुम्हारे ही उकसाए हुए हैं।---(शब्द०)। ३ उठा देना। सुवरन ही की चाह --पद्माकर ग्र०, पृ० १०६ । हटा देना। उ०-- गाढे ठाउँ कुचनु ढिलि पिय हिय को उकवा---सच्चा पुं० [अ० उकवह] प्रलय का दिन । उ०---करामत ठहराइ । उकसौहें ही तो हिमैं दई सवै उकाइ ।--विहारी कश्फ हुक तुमना देवेगा भोत कुछ न्यामत दर रोजे कथा । र० दो० ४६२ । ४.1 दिए की बत्ती बढ़ाना था खसकाना। भरें --दक्खिनी० पृ० ११५।। उक्साहट- सच्चा स्त्री० [हिं० उकसाना] १. उकसाने का भाव या उकरू-सम्रा पु० [हिं०] दे उकडे'। उ०——उकरू नहि वैठत भुमि | क्रिया । २ उत्त जना। | -हृभ्मीर रा०, पृ० ४५ । उकसही--वि० [हिं० उकसना+हाँ (प्रत्य॰)] उकलना--क्रि० अ० [सं० उत्कलन= खुलना] [क्रि० स० उफेलना, [स्त्री०] उकसहीं ] उभरता हुआ। उठता हुआ। उ० –उर उकसौहे. प्र० कि० उकलवाना] १. वह से अलग होना । उचाना । उरज लखि घरत क्यों न घनि घर । इनहि विलोकि विलोकि-- पृथक् होना । २ लिपटी हुई चीज का तुलना । उघड़ना । पतु सौतिन के उर पीर ।। --पद्याकर ग्र ०, पृ० ८५ । विखरना । उ०—ग्रीष्म ऋतु क्रीडते सुजान । यिति उकलत उकाव'-सपा पुं० [अ० उकाव] वडी जाति का एक गिद्ध ! गरु । पेह नम साजन पृ० ०, २५।२। उकाव--सा जी० अफवाह । उद्धृती खदर। उ०=-प्राजकुल ऐसी