पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१९९

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और्व' वयो को जोडनेवाज पुम्सुक दे दी ग्रोर घर का कोई भी कार्य या बस्तु र १२ प्रकार के पुत्रों में रगोटग ७१३ राजा । (३) मुजवश का आदि म प्रतापी नरेश । यह शाहजहां औरत-वैज्ञा स्त्री० [अ०] १. स्त्री । महिला । २ जोरू । पत्नी। का तृतीय पुत्र श्री ! इसका शासनकाल ईस्वी १६५९ है औरना --क्रि० अ० [हिं० शरि= अघिक+ना (प्रत्य॰)] १. १७०७ तुक था। ग्र घों में अौरंग, रंग और नौरग अादि प्रागे कौ ग्रहोर बढना । अग्रसर होना। २ दिखाई पड़ना । ३सके नाम प्राप्त होते है। अरगनशीन = सिहानारूढ । लोकना । सूझना ।। औरगोटा-संज्ञा पुं० [मला०] ३० ‘ौगोटग' । औरश्न--वि० [सं०] मैप या भेड़ नबंधी । भेड़ का बे०] ।। और अव्य० [सं० अपर, प्रा० अबर]एक संयोजक शब्द | दो शब्दो औरश्न-सज्ञा पु० १ भेड का मास । २ ऊन का वस्त्र । कवन[को०)। या बायो को जोड़नेवाला छ । जैसे ---(क) घोडे अौर और भ्रक- सज्ञा पुं० [स०] मेप सुमुहू । भेडो का झुर (को०)। गधे चर रहे हैं। (ख) हमने उनको पुस्तक दे दी अौर घर का औरभ्रिक--सज्ञा पुं० [स०] १ मेपाल । गडेरिया।२ मेप मबधी राता दिखल दिया । और-वि० १ टूर । अन्य । भिन्न । जैसे,- यह पुन्तक किसी अौर औरस--वैज्ञा पुं० [सं०] स्मृति के अनुसार १२ प्रकार के पुत्रों में मनुष्य को मत देना । सबसे श्रेष्ठ पुत्र । अपनी धर्मपत्नी से उत्पने पुत्र । मुहा०—रि अर= अन्यान्य । विभिन्न । दूसरे प्रकार के । ३०-- रस-वि• जो अपनी विवाहिता स्त्री से उत्पन्न हो । जायज । वैध । अनेक नावों के और और अलवन खड़े होते रहते हैं ।-- अौरसना ना._*) Ja Ta अव । —क्रि० अ० [स० अव या अप = बुरा + रस + हि० ना रस०, पृ० -३६ । श्रर झा र(१) कुछ का कुछ । विप (प्रत्य॰)]विरस होना । अनखना। कृप्ट होना उदासीन होना। रीत । अइबर 1 जैसे --वह सदा और का और समझती हैं। अौरसी-संज्ञा स्त्री० [सं०] विवाहिता स्त्री से उत्पन्न कन्या । श्रीर की ग्रौर होना == भारी उलट फेर होना । विशेष परिबर्तन औरस्य--म० पु० [सं०] गौरस पुत्र । होना । उ॰—द्विज प्रतिया दे कहियो श्यामहि । अव ही और अौराना--क्रि० स० [सं० अा+वरण, हिं० वरना या हिं० की अौर होत कंठाने वारा १ ताते में पानी लिखी तुम प्रान ‘श्रीराना'] अजित करना। सीख कर समाप्त करना । जानना। अघा -मुर (शब्द०)। और क्या=(१) है । ऐमा ही। वरण करना । सीखना । उ०—-नैहर मह जिन गुन और वा। है । जैसे,—(क) प्रश्न-या तुम अभी अागे ? उत्तर--पर ससुरै जाय सोई सुख पावा -- चित्रा०, पृ० २२३ ।। क्या ? (ख) वया इमको यही अर्थ है ? उत्तर-ौर क्या ? विशेप---ऐसे प्रश्नों के उत्तर में इनका प्रयोग नहीं होता जिनके सन'-h० अ० [हि० अरसना] ६० 'अऔर सना' । उ०--- अंत मे निषेधार्थक शब्द 'नहीं' वा 'न' इत्यादि भी लगे हैं, वजन नैन सुरंग रस माते । ' वसे कहू सोइ बात कही सखि जैते,---तुम वहाँ जाप्रोग या वहीं ? रहे इहाँ केहि नाते । सोइ सुज्ञा देखत अौरासी विकल उदास (२) अाश्चर्यसूचक शब्द । (३) उत्साहवर्धन वाक्य । और तो कला ते }---सूर (शब्द०) । गे। और भव तो छोड़ दो। औरासीf- वि० [स० अप+राशि] १. बुरी या निकृष्ट राशि जैसे,---और तो और पहले अाप इनी को करके देखिए । में पैदा होनेवाला । ३ विचित्र । ढगा। विलक्षण । उ०-- (२) ३० अौर तो क्या' । (३) दुसरो का ऐसा करना बि स सुर बिरह दुख अपन अव चल चाल औरासी । तो उतने अाश्चर्य को वात नहीं । दूसरो से या दूसरो । --सूर (राधा) २६७७ । के विषय में ऐसी भावना हो भी । जैसे,—(क) और औरेव--सज्ञा पुं० [सं० अर्व =विरुद्ध +रेख> रेह> रेग्र> रेव या फा० उरेब] १ बक्र गति । तिरछी चाल । २. कपड़े को तो और, स्वयं सेनापति जी नहीं आए। (ब) और तो और तिरछी काट। ३ पंच। उलझन । ४ पॅच की बात । चान की यह छोकडा भी हमारे सामने बातें करता है । शौर ही कुछ बात । उ०--दीनी है मधुप सवहि सिख नीकी । हमहू कछुक होना= सवने निराला होना। विलक्षण होना । उ०---वह चितवनि और कछू जिहि बस होत मुजान [-विहारी(शब्द०)। लखी हैं तव की अौरे नंदलाल की --तुलसी (शब्द॰) । और तो क्या=ग्रार व नो दूर रही। और बातों का तो ५ किंचित् दोष या त्रुटि । साधारण खरावी । जिक्र ही क्य। उचित तो बहुत कुछ था । जैसे,---ौर तौ मुहा०—ौरेव सुधारना= उलझन दूर करना । | य०---ौरेवदार = टेढो कादवाला। क्या, उन्होंने पान तबाकू के निचे भी न पूछा । और लो, और। ग्रौणिक-वि० [सं०] ॐणं या ऊन से संबधित । ऊन से बननेसुनो यह वाक्य किसी तीसरे से उस समय कहा जाता है जब दाला 1 ऊनी []। कोई व्यक्ति एक के उपरात दूसरी अरि अधिक अनहोनी वात | प्रौद्ध्व देह--- सच्चा पुं० [सं०] ग्रत्येष्टि कर्म (को॰] । कहता है या कहुनेवाले पर दोपारोपण करती है। प्रौर सौ (५) = ३० अर का अर' । उ०-अधर मधुर मधु औदद्वदेहिक, श्रौद् देहिक-वि०स०]मरने के पीछे का। अत्येष्टि । सहित मुख हुतों अबन सिर मौर। सो अव वगरे फलन मौ०-औद् वैदेहिक कर्म= प्रतक्रिया । दसगात्र, सपिंड दान ज्य भयौं अौर च और l- ज० प्र०, पृ० ६३ । अादिक कम् । २. अधिक। ज्यादा । विशे। जैसे,—म भी और कागज छाम, अवि --संज्ञा पु० [सं०] १. वडवानले । २. नीनी मिट्टी का नाम इतने से काम न चनेगा। ३. पौराणिक भूगोल का दक्षिण भाग जहाँ सत्रुण नरक है। औरग' - वि० [न०] उरग या साप का। सर्प सबंध को॰] । और दैत्य रहते हैं। ४. पंच प्रवर मुनियों में से एक । ५. औरंग-संज्ञा पु० एलेया नाम का नक्षत्र [को॰] । भृगुवशीय ऋपि ।